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लोकतंत्र के लिए असुरक्षित माहौल

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महाराष्ट्र का सियासी संकट बढ़ता ही जा रहा है। एक साल पहले जिस तरह से शिवसेना को तोड़कर भाजपा ने शिंदे गुट के साथ मिलकर न केवल सरकार बनाई, बल्कि सत्ता में बने रहने के लिए देवेंद्र फड़नवीस को उपमुख्यमंत्री तक बना दिया, लगभग वैसा ही खेल फिर से खेला और इस बार मोहरा बनाया गया अजित पवार को। दरअसल शिवसेना में फूट के बाद भी महाविकास आघाड़ी’ भाजपा के लिए चुनौती बना हुआ था। क्योंकि इसमें शरद पवार जैसे दिग्गज नेता हैं। शरद पवार को कमज़ोर करने के लिए भाजपा ने एनसीपी में फूट डालने की अपनी कोशिशें तेज की और आखिरकार अजित पवार को अपनी ओर मिला ही लिया। दीवार पर लिखी इबारत की तरह इस बात को साफ़-साफ़ पढ़ा जा सकता है कि भाजपा का तोड़-फोड़ का यह खेल महाराष्ट्र की सत्ता पर पकड़ मजबूत करने के अलावा अगले आम चुनावों में विपक्षी खेमे को कमज़ोर करने के लिए भी है। क्षेत्रीय दलों को पहले अपने साथ मिलाओ, फिर उनमें फूट डालो यह सियासी खेल अब काफी जाना पहचाना हो चुका है। लेकिन इस बार भाजपा का मुकाबला शरद पवार से हुआ है।

शरद पवार खुद कांग्रेस से अलग हुए थे। लेकिन तब मसले दूसरे थे। उन्होंने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को 27 सालों में काफी मजबूत कर दिया और ज़रूरत हुई तो यूपीए का हिस्सा बनने से गुरेज नहीं किया। अब अपनी ही बनाई पार्टी पर अधिकार के लिए उन्हें लड़ाई लड़नी पड़ रही है। शरद पवार ने अजित पवार समेत कई विधायकों पर कार्रवाई की है। दिल्ली में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक पर इस मसले को लेकर बुलाई जिसे अजित पवार ने गैरकानूनी करार दिया, क्योंकि अब वे पार्टी पर अपना अधिकार मान रहे हैं। वैसे शरद पवार ने ये संकेत भी अपने समर्थकों को दे दिए हैं कि ज़रूरत हुई तो तीन महीने के भीतर नए सिरे से पार्टी खड़ी कर देंगे। यानी अभी ये तय नहीं है कि एनसीपी पर असली हक किसका होगा। लेकिन इतना तो नज़र आ ही रहा है कि अजित पवार के साथ हाथ मिलाकर भाजपा ने एक बार फिर फूट डालो और राज करो की चाल चली है। लेकिन यह चाल देश के लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है।

27 मई 1996 को जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था, तो संसद में अपने ऐतिहासिक भाषण में वाजपेयी जी ने कहा था- ‘हम सत्ता के लोभ में ग़लत काम करने को तैयार नहीं हैं। … अगर पार्टी तोड़ कर, सत्ता के लिए नया गठबंधन करने से सत्ता हाथ में आती है तो मैं ऐसी सत्ता को चिमटे से भी छूना नहीं चाहता।’ इसके बाद एनडीए के पास बहुमत न होने के कारण अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिन की सरकार गिर गई थी। वाजपेयी जी ने अपने भाषण में तब शरद पवार के कांग्रेस छोड़ने का ज़िक्र भी किया था। कौन जानता था कि 27 साल बाद इतिहास एक नए रूप में देखने मिलेगा।दरअसल वाजपेयी काल की भाजपा से 2014 के बाद वाली भाजपा बहुत अलग हो चुकी है। अब सत्ता के लिए विचारधारा को परे रखने और सुविधा के हिसाब से गठजोड़ करने या दलों को फूट डालने का काम भाजपा करने लगी है। बीते लगभग एक दशक में विधायकों की कथित ख़रीद फ़रोख़्त और ‘ऑपरेशन कमल’ जैसे शब्द देश के सियासी शब्दकोष में शामिल हो गए हैं। 

वैसे तो आया राम गया राम का खेल 1967 से ही चल रहा है। हरियाणा में गया लाल ने 1967 में एक ही दिन में तीन बार पार्टी बदली थी, लेकिन तब दल बदल या विरोधी खेमे में शामिल होने को इतनी सहज स्वीकार्यता नहीं थी, जैसी अब हो गई है। राजनेता सत्ता और पद के लिए ऐसा करते हैं, और इसके लिए विचारधारा को परे रखते हैं, यह बात तो समझ आती है। लेकिन सवाल ये है कि जनता की मानसिकता इस दौर में किस तरह बदल दी गई है। क्या नेताओं के साथ-साथ जनता ने भी वैचारिक समझौता करना सीख लिया है। दलबदल करने वाले नेताओं को अगर जनता का साथ मिलने लगा है, तो यह स्थिति लोकतंत्र के लिए ख़तरे की निशानी है।

प्रधानमंत्री मोदी बार-बार भारत को लोकतंत्र की जननी कहते हैं। यह बात काफ़ी हद तक सही भी है, क्योंकि भारत के प्राचीन इतिहास में गणराज्यों का उल्लेख है। लेकिन मौजूदा राजनीति में केवल प्राचीन विरासत के गौरवगान से बात नहीं बनेगी। भविष्य के लिए कैसी मिसाल तैयार की जा रही है, यह भी देखना होगा। 

मोदीजी के 9 सालों के कार्यकाल में 8 बड़ी राजनैतिक फूट देखने मिली है। 2014 में उत्तराखंड में कांग्रेस के 9 विधायक टूट कर भाजपा में गए, 2015 में हिमंता बिस्वासरमा कांग्रेस में शामिल हुए,  2016 में अरुणाचल के मुख्यमंत्री पेमा खांडू समेत 33 विधायक भाजपा में शामिल हुए, 2017 में कांग्रेस विधायकों के साथ से मणिपुर में भाजपा ने सरकार बना ली, 2018 में कांग्रेस में जेडीएस और कांग्रेस की गठबंधन सरकार के विधायकों को तोड़कर भाजपा ने सत्ता हथियाई, 2020 में मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया से बगावत करवाकर कांग्रेस की सरकार भाजपा ने गिरवाई, 2022 में महाराष्ट्र में शिवसेना में फूट डालकर भाजपा सत्ता में आई, और इस साल 2023 में एनसीपी में भाजपा के कारण फूट पड़ी।

इसके अलावा और भी कई नेताओं को भाजपा ने तोड़कर अपने खेमे में शामिल किया है। दल बदल का यह खेल अगले साल के चुनाव तक जारी रहेगा। हो सकता है इससे भाजपा मजबूत हो और उसकी विरोधी पार्टियों के सामने असुरक्षा का खतरा मंडराए। लेकिन असल में इससे देश का लोकतंत्र असुरक्षित हो रहा है, इस बात पर सभी राजनैतिक दलों और जनसेवा के नाम पर राजनीति करने वालों को सोचना होगा।

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