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रामायण की लोकप्रियता के आधार स्तम्भ हैं वनवासी ‘राम’

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सुसंस्कृति परिहार

  मराठी विद्वानों का मानना है कि उत्तर भारत में राम कथा, महाभारत में सुग्रीव बाली कथा और दक्षिण में रावण की कथाएं प्रचलित थीं इन में परस्पर कोई संबंध नहीं था किंतु कथाकारों ने तीनों कथाओं को एक सूत्र में पिरोकर विभिन्न संस्कृतियों का समन्वय किया तथा इसे राम कथा या रामायण का रूप प्रदान किया ।

           यानि भारत में संस्कृतियों का जो विराट समन्वय हुआ राम कथा उसका अत्यंत उज्जवल प्रतीक है ।इसमें भौगोलिक एकता की प्रतिध्वनि सुनाई देती है  रामायण में अयोध्या ,किष्किंधा और लंका तीनों के बंध जाने से संपूर्ण देश एक नजर आता है। यही वजह है कि राम का चरित्र सभी भाषाओं में ना केवल लिखा गया बल्कि लोकप्रिय भी हुआ ।हालांकि संस्कृत के धार्मिक साहित्य में रामकथा का रूप अपेक्षाकृत कम व्यापक रहा फिर भी रघुवंश, भक्ति काव्य,  महावीर चरित, उत्तर रामचरित आदि इस बात के प्रमाण हैं कि बाल्मीकि रामायण में सभी भाषाओं के साथ साथ संस्कृत में भी महत्वपूर्ण स्थान बनाया । तमिल, तेलुगू ,मलयालम, कन्नड़ ,बांग्ला ,उड़िया एवं हिंदी(अवधी) में राम चरित का यशगान मिलता है ।

         हमारे देश के साथ तिब्बत,सिंंहल ,खोतान, हिंद चीन, ब्रह्मदेश, कश्मीर और हिंदेशिया  में प्रचलित राम काव्य को शामिल कर लें तो राम एशियाई संस्कृति की अमूल्य धरोहर हैं। राम कथा की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता और प्रभावकता  का असर घोर कम्युनिस्ट समाजवादी राष्ट्र सोवियत संघ (रूस) में देखा जा सकता है प्रतिवर्ष रशियन कम्युनिटी  रामलीला का मंचन करती है ।प्रो० बारान्निकोव और  उनके पुत्र ने रामचरित मानस कृत तुलसीदास का अनुवाद रशियन में किया है जबकि अमेरिका ,कनाडा और इंग्लैंड में भारतवंशी भी इसे प्रचलन में रखे हुए हैं।

           राम कथा ने भारत को ना सिर्फ एक सूत्र में बांधा बल्कि अपनी संस्कृति को दूर देशों तक पहुंचाया इसके माध्यम से शैव और वैष्णव विभेद भी जाते रहे।आदि रामायण पर हालांकि शैव मत का कोई प्रभाव नहीं रहा हो पर आगे राम कथा शिव भक्ति से जुड़ गई । राम युद्ध आरंभ करने  से पूर्व रामेश्वरम में शिव की प्रतिष्ठा करते हैं।आर्य संस्कृति के प्रतीक राम ने शैव एवं वैष्णव मतों में ना केवल वैभिन्य कम किया बल्कि उनमें एका स्थापित कर नई संस्कृति का स्वरुप प्रदान किया ।

         रामचरित ज्यों ज्यों लोकप्रिय  हुआ त्यों त्यों उसमें अलौकिकता आती गई हालांकि राम की बोधिसत्व  के रूप में कल्पना ईसा  पूर्व प्रथम शताब्दी में ही की जा चुकी थी।राम की महिमा के कारण पूरे भारत वर्ष की संस्कृति दिनों दिन राममयी होती चली गई ऐसा चरित और कहीं नहीं मिलता।

               सवाल इस बात का है कि राम की इतनी लोकप्रियता की वजह क्या है? यूं तो कई राजा हुए जिन्होंने अपने राज्य को आतताईयों  से मुक्ति के लिए संग्राम किए पर उन की गाथाएं एक विशेष काल तक ही सीमित रह कर समाप्त हो गईं , लेकिन राम के दो चेहरे जनमानस के सामने हैं एक है राजकुमार राम का सत्ता विहीन चेहरा और दूसरा है लंका विजय के बाद राजाराम का सत्तासीन चेहरा ।जो राम को अन्य राजाओं से अलग करता है वह है सत्ता विहीन राम का चरित।

             यूं राम की अपार लोकप्रियता का एक बड़ा कारण उनकी प्रगतिशीलता है ।उन्होंने जनक को खेत में मिली अयोनिजा सीता से विवाह किया लगता है ,जनक की चिंता सीता विवाह को लेकर ही थी।  राम ने ही संस्कारों के इस धनुष को उठाकर सीता का वरण किया जबकि आमंत्रित बड़े राजे महाराजे आए तो जरूर ,सीता सुंदरी को देखने पर अभिजात्य संकोच से पस्त पड़ गये। आज के प्रगतिशील जमाने में जब युवा आज भी ऐसी युवती को जीवन साथी नहीं बना पाते तब यकीनन यह कहा जा सकता है कि राम का राजसी अहंकार के प्रति यह विद्रोह था हो सकता है, अभिजात वर्ग में इसकी अच्छी प्रतिक्रिया नहीं हुई होगी और तभी से उनके खिलाफ राजा ना बनाने की मुहिम का श्रीगणेश हुआ ।तभी तो येन-केन -प्रकारेण उन्हें राजसत्ता से विमुख कर वनवास का रास्ता दिखाया गया । यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया हो सकती है।

           राम के इस कदम का आमजन ने निश्चित तौर पर स्वागत किया।बाल्मीकि रामायण में यह भी उल्लेखित है राम को 14 वर्ष वन -गमन का संदेश दिया गया तो उनके चेहरे पर वही भाव देखा गया उनके राजा बनने की घोषणा के बाद था। राम का यह निरपेक्ष भाव भी उन्हें अन्य राजाओं से अलग करता है, महान बनाता है ।उन्होंने राजाज्ञा शिरोधार्य की कोई सत्ता प्राप्ति हेतु साजिश नहीं की ऐसे अलौकिक राम भी जन-जन को प्यारे हुए ।

              वनवास के दौरान राजकुमार राम जब वन में पहुंचते हैं उनका अभिजात्य और राजसी प्रभाव पहले युद्ध’ ताड़का वध ‘में जरूर प्रदर्शित होता है लेकिन आगे जब वे वनवासियों के स्नेह और प्रेम से अभिभूत होते हैं उनका आतिथ्य स्वीकार करते हैं तब उनमें एक सहज परिवर्तन आता है।वे सिर्फ ‘वनवासी’ बन, वनवासियों के सखा बन जाते हैं इसी सखा भाव के कारण वे शबरी के जूठे बेर ग्रहण कर जाति -पांति के तमाम अभिजात्य संस्कारों को तिलांजलि दे देते हैं ।  इंसानियत का यह पैगाम उन्हें सच्चे इंसान की पहचान देता है वे एक अलग लीक बनाने वाले राम हैं।उनकी लोकप्रियता का संजाल जन-जन में पहुंचाने में इस घटना की अहम भूमिका है।

             एक आम वनवासी की तरह जब उनकी पत्नी सीता का हरण हो जाता है जैसा कि आमतौर पर वनों में होता रहता है ,राम लक्ष्मण की तरह उद्वेलित नहीं होते। उनको वनवासियों का पर्याप्त सहयोग मिलता है उनके सहयोग से वे सेना बनाते हैं।भरत से सेना की मांग नहीं करते , वनवासी ही उनके सब कुछ हैं। वही उनके प्राण हैं, प्रिय हैं ।यह शिक्षा उन्हें विश्वामित्र जैसे गैर ब्राह्मण गुरु से प्राप्त हुई क्षेत्र वासियों से अगाध प्रेम और समन्वय के कारण ही आगे चलकर वे लंका पर विजय प्राप्त करते हैं लेकिन राज सत्ता की लिप्सा ना होने के कारण विभीषण को सत्ता सौंप, सीता को लेकर अयोध्या वापस आ जाते हैं ।

            एक प्रसंग और जो राज कुमार राम को अन्यों से अलग करता है। वह है ,अपनी पत्नी को राजाज्ञा के बावजूद अपने साथ ले जाने की शायद वे उस मानसिकता को समझ रहे थे कि उनके जाने के बाद राजघराने का उनके साथ कैसा व्यवहार होगा? राम की यह सोच उन्हें दूरन्देशी और  उनके पत्नि प्रेम को प्रदर्शित करती है । पत्नि धर्म निभाने का ऐसा आदर्श और कहीं नहीं मिलता एक पत्नि निष्ठा भी उनके चरित्र की विशेषता हैं।

           लेकिन राम जब वनवास पूरा कर अयोध्या लौटते हैं तब राम जन-जन के प्रिय राम नहीं रह जाते वे राजा राम होते है। उनका वह रूप छिन्न-भिन्न हो जाता है जो वनवास में दिखाई पड़ता है निश्छ्ल राम अब वशिष्ठ के पौरोहित्य से जुड़ जाते हैं।सीता की अग्नि परीक्षा होती है उसे गर्भावस्था में घर निकाला मिलता है।क्या यह भी राजसी षड्यंत्र था जिसके लिए  राजा राम मज़बूर किए गए जिस सीता की चिंता उन्हें वनवास में साथ ले गए वे राम राजा बनते ही कैसे बदल गए सीता गर्भवती थीं।ऐसे कठिन समय सीता महारानी का निष्कासन निंदनीय है और रामजी का यह क्रूरतम कार्य है। वनवासी राम जो शबरी के बेर ग्रहण करने में संकोच नहीं किये ,वे शंबूक का सिर तराश देते हैं।अपने ही विरथ पुत्रों से रथी होकर संग्राम करते हैं । आश्चर्य नहीं कि अपने पुत्रों से परास्त होकर ही राम ने जलसमाधि ली हो ।

             अंत में, यही कहना समीचीन होगा कि राजकुमार राम जब तक सत्ता से दूर रहे जनमानस के लिए आदर्श स्थापित  करते रहे। स्त्रियों के प्रति समाद्धृत भाव रहा। विभेद की तमाम दीवारें तोड़ी गई।पत्नि के प्रति वफादार रहें। अनीति के रावण का वध किया । उनके आदर्श समूचे देश को एकाकार करने में मददगार रहे। राम इतिहास नहीं मिथक हुए, विश्वासों में खरे उतरे वे इतिहास से परे हैं।तभी भक्ति कालीन कवियों ने एक ऐसे राम का सृजन किया जो आज भी जनता के दिलों में विद्यमान हैं।वे आराध्य बन राम मंदिरों में   बैठाए गए पर राजा राम महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि उनकी वनवास कथा उन्हें विश्व में एक समन्वयवादी, प्रगतिकामी, क्रांतिधर्मा स्वरूप में उच्च स्थान पर बिठाती है। काश! राम सत्ता भरत को सौं वनवासी राम ही बने रहते तो शायद देश में रामराज्य की कल्पना सही मायने में साकार होती और वे राम बुद्ध, महावीर और गांधी जी की परम्परा में आज शामिल होते जिन्होंने राजपाट की परवाह नहीं की और जन जन की सेवा की राह चुनी।

अब जब देश में राजसी सत्ताओं का अवसान हो गया है तब भी रामराज्य वापसी की बात करना लोकतांत्रिक देश में उचित नहीं है। वाकई राम का चरित सत्ता विमुख ही रहा है  उन्होंने सत्ता से दूर रहकर जो लंबा समय वनों में गुज़ारा है वे राम वंदनीय हैं।ये सच है सत्ता का नशा बुरा होता है और इसमें अहित होता ही है हमारे देश में भी कई लोग सत्ता के नशे में बर्बाद हुए। आज उसी राह पर सत्ता   त्यागी राम का नाम लेकर वर्तमान सरकार सत्ता के नशे में मदहोश है।ये लोकतंत्र और संविधान की परिपाटी के ख़िलाफ़ है। राजाराम भी इसके शिकार हुए इससे हमें सबक लेना चाहिए।असली राम तो सत्ता से दूर राम ही हैं  जिनका उपासक एक वृहत समाज है।वहीं उनकी अमरता और लोकप्रियता का राज है और यही उनके प्रति आस्थावान बनाता है।

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