डॉ. विकास मानव
जैसे काष्ठमन्थन से यज्ञाग्नि प्रकट होती है, उसी तरह पुरुष स्त्री के उपस्थ मन्थन से कामाग्नि का प्रज्ज्वलन होता है। इसमें पुरुष अपने वीर्य की आहुति डालता है। स्त्री की योनि यज्ञ को वेदी होती है। मैथुन ही सृष्टियज्ञ का दूसरा नाम है। इसका फल है; सुख, आनन्द, तृप्ति.
इस विषय में ऋषि का कथन है :
एषां वै भूतानां पृथिवी रसः पृथिव्या आपोऽपामोषधयः
ओषधीनां पुष्पाणि, पुष्पाणां फलानि फलानां पुरुषः पुरुषस्य रेतः।
~बृहदारण्यक उपनिषद (६ । ४ । १)
【इन पञ्चभूतों का रस पृथ्वी है। पृथ्वी का रस जल है। जल का रस (सार) ओषधि है। ओषधियों का रस पुष्प हैं। पुष्पों के रस फल हैं। फलों का रस पुरुषशरीर है। पुरुष शरीर का रस वीर्य है।】
प्रजापति ब्रह्मा ने सर्वप्रथम वीर्य उत्पन्न किया। इस वीर्य को व्यर्थ न होने देने के लिये उसने स्वी की रचना की है।
ऋषि कहता है :
‘सह प्रजापतिरीक्षांचक्रे हस्तास्मै प्रतिष्ठां कल्पयानीति,
स स्त्रियं ससृजे तां सृष्ट्वाध उपास्त, तस्मात्
स्त्रियमध उपासीत स एतं प्राञ्चं ग्रावाणमात्मन एव समुदपारयत् तेनैनामभ्यसृजत्।’
~बृहदारण्यकोपनिषद् (६।४।२)
[उस प्रजापति ने इच्छा की कि इस पुरुषसार (वीर्य) के लिये प्रतिष्ठा (उत्तम स्थान) बनाऊं। तब उसने स्त्री को रचा। उसको रच कर उसेनीचे आराधा अर्थात् भूलोक में उसे पत्नी रूप में नियत किया। जिससे पुरुष उसे पत्नी रूप में अराधे। उसने इस पुरातन शिलावत् कठोर व्रत को पूरा किया। उसी से स्त्री-पुरुष के स्वाभाविक नियम को रचा ।]
सप्तम भाव रूप स्त्री तत्व का वर्णन करते हुए ऋषि कहता है :
“तस्या वेदिरूपस्थो लोमानि बर्हिश्चर्माधिषवणे, समिद्धो।
मध्यतस्तौ मुष्कौ स यावान् ह वै वाजपेयेन यजमानस्य
लोको भवति, तावानस्य लोको भवति य एवं विद्वानद्योपहासं
चारत्यासाँ स्त्रीणां सुकृतं वृङ्क्तेऽथ य इदमविद्वानघोपहासं – चरत्यस्य स्त्रियः सुकृतं वृते।”
~बृहदारण्यकोपनिषद् (६।४।३)
तस्या = उस (स्त्री) की।
वेदि (पुत्रेष्टि यज्ञ का स्थल।
उपस्थः = योनि स्थान।
लोमानि= रोएँ ।
बर्हिः =कुशाएँ।
चर्म-अधिषवणे = मृगचर्म और अधिषवण।
समिद्धः = दीप्त।
मध्यतः = मध्यभाग में।
तौ = वे दोनों।
मुष्कौ= दोनों मुष्क (कपाट)।
सः वह यावान् = जितना।
ह वै = निश्चय से।
वाजपेयेन = वाजपेय (यज्ञ) से। यजमानस्य = यज्ञकर्ता का।
लोकः = स्थिति फल प्राप्ति।
भवति = होता है।
तावान् = उतना।
अस्य = इसका।
लोकः = स्थान, फल।
भवति = होता है।
यः =जो।
एवम् = इस प्रकार।
विद्वान् = जानने वाला।
अद्योपहासम् = रतिकर्म, आधान-निषेक क्रिया।
चरति =करता है।
आसाम् = इन स्त्रीणाम् स्त्रियों के।
सुकृतम्= पुण्य को।
वृङ्क्ते = पा लेता है।
अथ =और।
यः जो इदम् = इसको
अविद्वान्= न जानता हुआ। अद्योपहासम् =मैथुन कर्म।
चरति = करता है।
अस्य = इस (मूर्ख के)।
स्त्रियः = स्त्रियाँ।
सुकृतम् = पुण्य को।
वृञ्जते = हर लेती हैं।
इस मन्त्र में यही बताया गया है कि स्वी का शरीर यज्ञशाला है। उसका जननांग / योनि स्थल यज्ञ की वेदी है। योनि स्थान पर उगे हुए रोयें. (बाल) उस वेदी पर बिछी हुए कुशाएँ हैं। भगोष्ठ (योनि के छिद्र को ढके हुए दो मांस फलक) ही मृगचर्म है। इस भगोष्ठ के नीचे दो अन्य लघु कपाट (मांस फलक) ही अधिषवण हैं। भगांकुर ही प्रदीप्त अग्नि की लपट है।
मैथुन कर्म वाजपेय यज्ञ है। वाजपेय का अर्थ है-बल, मैथुननि जो बली है, जिस पुरुष के शिश्न में शक्ति है, जिस पुरुष का लिंग स्त्री योनि के सन्निकर्ष से कठोरता/दृढ़ता को प्राप्त करता है, वही इस यज्ञ का सम्पादन कर सकता है। ऐसा पुरुष बाजपेयी है। यजमान स्त्री है। बाजपेयी पुरुष, यजमान स्वी का यज्ञ करता है-उसकी योनि में शेफ रूपी खुवा से घृतरूपी वीर्य की आहुति डालता है। इससे स्त्री को लोक में प्रतिष्ठा मिलती है। स्त्री गर्भवती होगी, पुत्र जनेगी तो लोक में सम्मान प्राप्त पायेगी जो विद्वान् 1 स्त्री में यज्ञ की भावना से निषक करता है, वह स्त्री के पुण्य कर्मों के फल का आस्वादन पाता है।
स्त्री को यज्ञशाला मानकर, उसकी योनि को यज्ञ वेदिका समझ कर रतिकर्म करने का अर्थ है-स्त्री को मान प्रतिष्ठा देते हुए उसका उपभोग करना। इससे स्त्री प्रसन्न होगी। उसकी इस प्रसन्नता से उसका पुण्य उसे स्वतः प्राप्त होता है। ऐसा विद्वान पुरुष सुखी होता है। जो यज्ञ भाव से अद्योपहासन (रतिक्रिया) नहीं करता अर्थात् स्त्री को सम्मान नहीं देता, वह उसका पुण्य पाने से वञ्चित रहता है, उल्टे अपना पुण्य ही उसे देता है।
पुण्य से रिक्त पुरुष दुर्दशा को प्राप्त होता है। ऐसा पुरुष अविद्वान् होता है। ऐसा करने वाला अपनी पत्नी के साथ बलात्कार करता है। बलात्कारी पति मूर्ख होता है, क्योंकि वह अपने पुण्य को गवाँता है।
स्त्रीरूप यजमान यज्ञ से सन्तुष्ट है प्रसन्न है तो बाजपेय पुरुष धन्यता पायेगा ही। यह धन्यता ही स्त्री का सुकृत है। यजमान असन्तुष्ट है, अप्रसन्न है तो बाजपेय धन्यता से च्युत रहेगा। पौरुषहीन विपन्न पुरुष की गति का वर्णन में कैसे करूँ !
यज्ञशाला साफ सुथरी होनी चाहिये। यानि स्त्री को देह स्वच्छ एवं सुभूषित-सुवासित होनी चाहिये। पवित्र होनी चाहिये. स्त्री की योनि पवित्र (ऋतु स्नान के पश्चात् काँ) होनी चाहिये। इसके अतिरिक्त यजमान स्त्री एवं पुरुष के भाव भी दिए होने चाहिये.
हर पुरुष (गृहस्थ) की अपनी एक यज्ञशाला (पत्नी) होनी चाहिये। हर स्त्री (विवाहिता) का अपना एक याज्ञिक (वाजपेय पुरुष) वा पति होना चाहिये। यह यज्ञ (मैथुन) यथा समय होते रहना चाहिये। इससे दोनों स्त्री-पुरुष का ऐश्वर्य बढ़ता है।
मैथुन यज्ञ के तीन प्रकार :
१. तामसी मैथुन-
इस यज्ञ में पुरुष जब अपना स्वार्थ देखता है, स्त्री के स्वार्थ (आनन्द) की अवहेलना करता है तो वह पिशाच होता (कहा जाता है। जब स्त्री ऐसा करती है तो वह पिशाचिनी की संज्ञा प्राप्त करती है। कलियुग में ऐसे यज्ञ अधिक हो रहे हैं।
२. राजसी मैथुन-
इसमें स्त्री और पुरुष परस्पर के सुख का ध्यान रखते हैं। ऐसे स्त्री-पुरुष क्रमशः यक्षिणी एवं यक्ष कहलाते हैं।
३. सात्विक मैथुन-
इस यज्ञ में पुरुष को सतत चेष्ठा रहती है कि वह स्त्री को पूर्णतः तृप्ति पुरुष को सुसन्तुष्ट रखती है। ऐसे स्त्री पुरुष क्रमशः ऋषि और ऋषि होते हैं।
अपनी ही वेदी (स्वस्त्रीयोनि) में ही पुरुष हवन करे, दूसरे की वेदी (परस्त्रीयोनि) में नहीं। धर्मसंगत होन पर दूसरे की वेदी पर हवन किया जा सकता है। जैसा कि वेदव्यास ने अपनी माता सत्यवती के आह्वान पर विचित्रवीर्य की दो विधवाओं एवं एक दासी की यज्ञ वेदी पर स्ववीर्य का हवन करके धृतराष्ट्र, पाण्डु एवं विदुर को पैदा किया। इससे अस्त होता हुआ कौरव वंश बच गया।
गृहस्थी का यही आचार धर्म है कि वह स्त्री को यज्ञ रूप जान कर उसके साथ बर्ताव करे। इस धर्म का समर्थन आणि उद्दालक, मौद्रल्य नाक एवं कुमार हारीत ने अपनी-अपनी स्मृतियों में किया है।
‘एतद्ह स्म वै तद्विद्वानुद्दालक आरुणि: आहैतद्ह स्म वै तद्विद्वान्नाको मौद्गल्य आहैतद्ह स्म वै तद्विद्वान्कुमारहारित आह।’
(बृह.उप. ६।४।४)
ब्राह्मण कहलाने वाले बहुत से मनुष्य मैथुन कर्म को यज्ञ न मानते हुए दुराचार के कारण इन्द्रियहीन सुकृतरहित होकर इस लोक से अशुभ लोक को जाते हैं। ऐसे वे ही जन होते हैं जो इस सदाचार के भेद को न जानते हुए संसर्ग (मैथुन) करते हैं। कई ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनका वीर्य सोते वा जागते स्खलित होता है अर्थात् स्त्री को यज्ञ के समान पवित्र नहीं समझते और उसे विषय का साधन समझते हैं, वे भी बुरे लोकों को पाते हैं, पतन के गर्त में गिरते हैं।
“बहवो मर्या ब्राह्मणाय निरिन्द्रिया विसुकृतोऽस्त्रीस्माल्लोकात् यन्ति य इदमविद्वांसोबी धोपहासं वरन्तीति बहु वा इदं सुप्तस्य वा जाग्रतो वा रेतः स्कन्दयति ।’
( बृह. उप. ६ । ४ । ४ )
पुरुष मैथुन यज्ञ नहीं करेगा तो उसका वीर्य सोते-जागते व्यर्थ में स्खलित होगा। स्खलन से होने वाली क्षति से बचने के लिये उसे मैथुन करना चाहिये वीर्य की सार्थकता इसी में है। जिसका वीर्य स्वप्नदोषादि के माध्यम से वह जाय उसे क्या करना चाहिये ? ऋषि कहता है :
‘तदभिमृशेदनु वा मन्त्रयेत्वन्मेऽद्यरेतः पृथवीमस्कान्त्सीद् यदोषधीरप्यसरद् यदपः । इदमहं तदेत आददे पुनर्मामेत्विन्द्रियं पुनस्ते पुनर्भगः । पुनराधिष्ण्या यथास्थानं कल्पन्तामित्यनामिकाष्ठाभ्यामादायान्तरेण स्तनी वा भ्रुवौ वा निमृज्यात्।”
(बृह.उप.६/४/५)
तद् =उस (स्खलित वीर्य) को।
अभिमृशेत्= छुवे।
अनुवा मन्त्रयेत्= अथवा चिन्तन करे कि ऐसा क्यों हुआ)।
यत् = जो।
मे= मेरा ।
अद्य = आज।
रेतः = वीर्य।
पृथिवीम् = पृथिवी पर।
अस्कान्सीत् =स्खलित होकर गिरा है।
यद्= जो।
ओषधीः= ओषधियों को।
अपि = भी।
असरत् = चला / सरका है।
यद् = जो।
अप = जलों को।
इदम् = यह इस।
अहम् = मैं।
तद् = उस।
रेतः =वीर्य को।
आददे = ग्रहण करता हूँ, पुनः संचित करता हूँ (फिर से स्खलित नहीं होने दूंगा)।
पुनः= मुझको।
एतु = प्राप्त हो, आवे।
इन्द्रियम्= इन्द्रिय सामर्थ्य।
पुनः = फिर।
अग्निः =शरीराग्नि।
धिष्ण्या = धारण करने वाली (बुद्धि या समझ)।
यथास्थानम् = पूर्ववत् अपने-अपने स्थान पर।
कल्पन्ताम् = होवें।
इति = ऐसे जप कर वा चिन्तन कर।
अनामिका + अङ्गुष्ठाभ्याम् = अनामिका अंगुली तथा अंगूठे से।
आदाय ग्रहण कर।
अन्तरेण = मध्य में।
स्तनौवा = दोनों स्तनों (हृदय प्रदेश) के।
भ्रुवौ वा = दोनों भृकुटियों (मस्तिष्क वा ललाट) के।
निमृज्यात्= प्रक्षालन करे, जल से मार्जन करे (हृदय एवं मस्तिष्क की शुद्धि करे)।
हृदय भावों का घर है। मस्तिष्क विचारों का आलय है। हृदय और मस्तिष्क के दूषित होने पर भाव और विचार दूषित होते हैं। इनके दूषित होने पर वीर्य का नाश होता है इसलिये अंगुष्ठा और अनामिका से स्खलित वीर्य वा वीर्य स्थान शिश्न का स्पर्श कर पुनः इसी से पश्चात्ताप की भावना करता हुआ भृकुटिमध्य एवं हृदयमध्य का संस्पर्श करे।
अनामिका सूर्य की अंगुली है। सूर्य आत्मा का कारक है। अंगुष्ठ शुक्रमह का स्थान है। शुक्र वीर्य वा काम शक्ति का कारक है। सूर्य और शुक्र दोनों एक दूसरे के शत्रु हैं। दोनों का सहयोग होना पारस्परिक पुष्टि के लिये शुभ है। तन और मन से वीर्य की रक्षा करना ही स्पर्श का उद्देश्य है।
स्पर्श मन्त्र का भाव यह है :
आज जो मेरा रेतस् पृथ्वी पर स्खलित हो गया, जो ओषधियों की ओर तथा जलों की ओर बहा, मैं वह सामर्थ्य लेता हूँ-निमह की शक्ति धारण करता हूँ। रेतस् निग्रह से मुझको फिर इन्द्रिय बल प्राप्त होवे, फिर तेज, फिर सौभाग्य प्राप्त होवे। अग्नि है स्थान जिसका वे अग्निधिष्ण्य देव- अपनी सामर्थ्य से फिर मुझको यथा स्थान में कर दे, मेरे गये हुए बल को फिर लौटा दे। ऐसा जफ्ते हुए अनामिका और अंगूठे से जल लेकर दोनों स्तनों एवं भ्रुवों के मध्य में लगावे।
सबकी उत्पत्ति मैथुन से होती है। इसलिये सबके भीतर मैथुन क्रिया का संस्कार होता है। किसी को मैथुन सिखाना नहीं पड़ता। मैथुन करने का प्रशिक्षण नहीं लेना पड़ता। रतिकर्म की दीक्षा की आवश्यकता नहीं होती। सबमें सम्भोग की इच्छा होती है। सब लोग सम्भोग करना जानते हैं। कोई तन से संयोग करता है। कोई मन से सहवास करता है। कोई मन और तन दोनों से संश्लेष करता है।
ऐसा क्यों? स्त्री, पुरुष का एक भाग है। पुरुष उसे पाना चाहता है। पुरुष स्त्री का एक अंग है। वह उसे प्राप्त करने की इच्छा रखती है। इसलिये स्त्री-पुरुष का पारस्परिक सम्मिलन अनिवार्य एवं स्वाभाविक है। इसके लिये पुरुष स्त्री के साथ संगम करता है, पुरुष के साथ स्त्री सहयोग करती है। स्त्री यजमान है तो पुरुष पुरोहित। दोनों के सहकार से यह यज्ञ चल रहा है।
दोनों की पार्थिव / शारीरिक संयुक्ति न होने पर मानसिक मैथुन होता है। इसमें कभी-कभी वीर्य स्खलित हो जाता है। इससे बचने के लिये परमात्मा के स्वरूप का चिन्तन करते हुए भगवन्नाम जाप सरल निदान है। राम नाम जप से इष्टदेव का स्मरण करने से वीर्य की रक्षा होती है। मैथुन करते हुए वीर्य की रक्षा करने का यत्न करना चाहिये। इसके लिये सतत अभ्यास एवं ईश कृपा आवश्यक है । यह मेरा अनुभव है। इससे वीर्य की रक्षा होती है।
उत्तम भाव योनि है। योनि से सबका प्राकट्य होता है। इसलिये सप्तम भाव जन्म स्थान है। दूसरी ओर, लग्न को जन्म स्थान कहते हैं। यह विरोधाभास क्यों ? इसका अर्थ है-लग्न भाव प्रथम एवं योनिस्थान सप्तम का समान महत्व है। लग्न के अच्छा या बुरा होने से सप्तम भाव अच्छा या बुरा होता है। सप्तम स्थान के शुभाशुभ होने से लग्न स्थान शुभ वा अशुभ होता है। भविष्यफल कथन में इस तथ्य को आँखों से दूर नहीं करना चाहिये। ज्योतिषी अपनी दोनों आँखों से इन दोनों भावों पर एक साथ दृष्टि कर देखे और तब निर्णय करे। यही कारण है कि लग्न में मंगल के रहने से कुण्डली मंगली होती है तथा सप्तम में मंगल की उपस्थिति से भी कुण्डली में मंगलीपन आ जाता है। मंगल दोनों स्थानों में रहता हुआ दोष उत्पन्न करता है।
लग्न में मैथुन का विचार होता है तो सप्तम मे वह विचार मैथुन क्रिया रूप में प्रतिफलित होता है। लग्न (मस्तिष्क) में मैथुन का विचार उठता है तो सप्तम (उपस्थ) में हलचल मच जाती है। यह तथ्य सब के द्वारा अनुभूत है।
श्रीमद भगवद्रीता का एक श्लोक है :
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्बह्माग्नौ ब्राह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥
(अध्याय ४, श्लोक २४ )
मैथुन कर्म ब्रह्म कर्म है क्योंकि यह व्यापक रूप से सर्वत्र सब प्राणियों द्वारा किया जा रहा है। जब स्वी और पुरुष आपस में मिलते हैं-रतिक्रिया में लीन होते हैं तो दोनों की आँखें मुंद जाती हैं। सम्भोग की चरम अवस्था में दोनों निष्पन्द हो जाते हैं, हिलते-डुलते नहीं, एकाकार हो जाते हैं।
यह आनन्द की अवस्था होती है। यह समाधिस्थता है। जीव, ईश्वर का ध्यान करता है। जब ईश्वर के साथ मिलकर जीव समाधि अवस्था में पहुँचता है अर्थात् ब्रह्म हो जाता है तो उसे जो सुख मिलता है, वही सुख पुरुष वा स्त्री को एक दूसरे में प्रवेश करके एक हो जाने से होता है। यह सुख ब्रह्मानन्द सहोदर है।
मैथुन में स्त्री, पुरुषमय हो जाती है तथा पुरुष, स्वीमय हो जाता है। समाधि में जीव ईश्वरमय हो जाता है तथा ईश्वर, जीवमय हो जाता है। दोनों की युज्यता असम्पृक्तता ही आनन्द है। यह अनिवर्चनीय है। जो इसे अनुभव करे, वही जाने । समाधि ब्रह्मकर्म है, मैथुन ब्रह्मकर्म है। समाधि में ब्रह्माकार वृत्ति होती है। मैथुन में भी ब्रह्माकार वृत्ति होती है। यह अनुभूत सत्य है।
ब्रह्मार्पणम् = ब्रहम अर्पणम् वहा, अर्पण / दक्षिणा/ उपहार भेंट है।
ब्रह्म हवि = ब्रहम हविघृत/आहुति/हवनीय द्रव्य है।
ब्रह्माग्नौ= ब्रह्मारिन में बह्यरूपी अग्नि में ब्रह्म अग्नि है।
ब्रह्मणा हुतम् =ब्रह्म के द्वारा यज्ञीय अग्नि में डाला गया द्रव्य।
तेन = उस (यज्ञ) के द्वारा।
ब्रह्मैव गन्तव्यम् = ब्रह्म ही गन्तव्य / लक्ष्य प्राप्तव्य है।
ब्रह्मकर्म समाधिना= समाधि से ब्रह्मकर्म।
【 सम् + आ + था कि = समाधि ।
समाधि का अर्थ है-ठहराव / स्थिरता/ गतिशून्यता, मन को, चित्त की, विचार की।】
निर्वलता का त्याग समाधि है। पूर्ण शान्तिमयता समाधि है। गीता के इस श्लोक का पार्थिव अग्नि में हवन करने से कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि यहाँ समाधि होती ही नहीं। ध्याता, ध्येय और ध्यान की त्रिपुटी का एकीकरण समाधि है। शान्तचित्तता समाधि है। शान्तचित से जो कर्म किया जाता है, वह साधारण कर्म न होकर ब्रह्म कर्म होता है। अथवा, शान्तचित्त व्यक्ति का हर कर्म ब्रह्मकर्म है।
यह सृष्टि अग्निषोमीय है। स्त्री अग्नि है। पुरुष सोम है। स्त्री को योनि में योषाग्नि है। पुरुष का वीर्य सोमतत्वी है। योषाग्नि में पुरुष अपने वीर्य का हवन करता है। इससे जो प्राप्त होता है अर्थात् सुख, वह ब्रह्म है। स्त्री को पुरुष द्वारा अथवा पुरुष को स्त्री द्वारा जो अर्पण किया जाता है, वह है प्रेम। यही दक्षिणा है।
प्रेम अर्पण वा दक्षिणा है, मैथुन यज्ञ की। यह दक्षिणा मैथुन से पूर्व दी जाती है। यह प्रेम ब्रह्म है। हवि वा घृत रूप वीर्य ब्रह्म है। योनिस्थ अग्नि / रज भी ब्रह्म है। रज ब्रह्म में रेतस ब्रह्म की आहुति डाली जाती है। आहुति डालने वाला पुरुष ब्रह्म है। यह मैथुन यज्ञ ब्रह्म है। इस यज्ञ के द्वारा प्राप्त होने वाला आनन्द भी ब्रह्म है। रतिक्रिया ब्रह्म कर्म है, केवल तभी जब यह शान्तचित्त होकर की जाती है। ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’- यह उपनिषद् वाक्य इस श्लोक का केन्द्र बिन्दु है। इस ब्रह्माकार वृत्ति से स्वस्थ मैथुन करने वाला पुरुष प्रणम्य है।
स्त्री ब्रह्म है। पुरुष ब्रह्म है। स्त्री का रज ब्रह्म है। पुरुष का वीर्य ब्रह्म है। रति कर्म ब्रह्म है। दोनों के बीच प्रेम (आकर्षण) ब्रह्म है। दोनों के परिरम्भ से मिलने वाला सुख ब्रह्म है। इसका जिसे बोध है, वह ज्ञानी है। तस्मै ज्ञानिने नमः।
गृहस्थी को यह ब्रह्मज्ञान कब होगा ? जब उसकी कुण्डली के सप्तम भाव में शुभ ग्रह होगा, अशुभ प्रभाव नाम मात्र का भी न होगा। ऐसा जातक कामयोग से ईश्वरसाक्षात्कार करता है। उसके लिये मैथुन अनिवार्य है, आत्मलाभ के लिये। वह अपने वीर्य की रक्षा करता करता हुआ स्त्री को तुष्ट करता है। न उसका पतन होता है, न स्त्री का।