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वैदिक दर्शन : योग: कर्मसु कौशलम्

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                 डॉ. विकास मानव 

       कर्मों में कुशलता ही योग है. दुष्कर्म कर्म नहीं होता. कर्म यानी कर्तव्य, सत्कर्म. 

     कर्म बाहरी जीवन के उद्देश्य भी पूर्ण करता है और आंतरिक जीवन के उद्देश्य भी। जब बाहरी जीवन के उद्देश्य पूरे हों और आंतरिक जीवन के भी उद्देश्य पूरे हों, दोनों उद्देश्य समान भाव से पूरे हों, तो वो कर्म, कर्मयोग बनता है। भगवान श्रीकृष्ण गीता में योग को परिभाषित करते हुए कहते हैं : ‘योग: कर्मसु कौशलम्’ (2/50).

      ये कुशलता पैदा करना, ये कुशलता विकसित करना, मनुष्य के लिए संभव है, अन्य जीवों के लिए नहीं। 

योग की परिभाषा में वे एक और सूत्र देते हैं- ‘समत्वं योग उच्यते’ (2/48).    

    समता पैदा करना योग है. समता घटनाक्रमों में। समता सम्बन्धों में, समता भावनाओं में। समता मन:स्थिति में समभाव से रहना, परेशान नहीं होना, हैरान नहीं होना, समत्वं। 

    अगर हम कहें और अपने अन्दर को झाकें, तो कर्म करते हैं हम, लेकिन क्यों करते हैं ? ऐसी क्या चीज है जो हमें कर्म करने के लिए प्रेरित करती है ? तो हम देखते हैं कि कई बार आसक्ति हमें कर्म करने के लिए प्रेरित करती है।

    आसक्ति के दो रूप होते हैं : आसक्ति का मतलब ये नहीं कि हम किसी से प्रेम करते हैं, तो आसक्ति है। आसक्ति का मतलब है कि हम वहां खडे़ हैं, चिपके हुए हैं। हम जड़ हो गए हैं, वहीं पर ठहर गए हैं। हमारा ठहरना, हमारा ठहराव आसक्ति है और आसक्ति के दो रूप होते हैं, उसका विधेयात्मक रूप है, उसका सकारात्मक पक्ष है – राग और नकारात्मक पक्ष है – द्वेष। 

     सकारात्मक और नकारात्मक इसलिए कहा गया क्योंकि राग होता है तो हम थोड़ा-सा क्षण मात्र के लिए ही सही थोड़ा-सा सुख और सुकुन अनुभव कर लेते हैं। द्वेष होता है तो हम कुढ़ते-जलते रहते हैं, परेशान रहते हैं। लेकिन राग हो या द्वेष हो, ठहरते तो हैं हम, रमते हैं। वहां टिक जाते हैं, रुक जाते हैं। हम यात्री हैं, एक यात्रा हमारी बाह्य जगत में चल रही है और एक यात्रा हमारी अन्तर्जगत में चल रही है, जो आसक्ति के वश में हो जाते हैं, मतलब राग और जो द्वेष के वश में हो जाते हैं, वो बाह्य जगत में तो गतिशील रहते हैं, लेकिन अन्तर्जगत में ठहर जाते हैं। वहीं विरम जाते हैं, वहीं रुक जाते हैं, गति उनकी स्थिर हो जाती है, गति होती ही नहीं। कब तक ? जब तक उस आसक्ति की डोर से वो बंधे हुए हैं, तब तक। कब तक ? मुश्किल है थोड़ी-सी, कठिन है बात। आसक्ति की डोर ऐसी ही है।

    कई बार तो जन्मों-जन्मों तक, कई बार तो हजारों- हजारों साल तक वहीं रहते हैं, शरीर बदलते हैं, परिस्थितियां बदलती हैं, घटनाक्रम बदलते हैं, मन नहीं बदलता है, वहीं ठहरा रहता है। कोई आदमी हमारे बीच से चला जाता है यानि उसका शरीर छूट गया, लेकिन शरीर तो यहीं छूटा, पर जो भाव वो अपने साथ लेकर जाता है, जो मनोभूमि लेकर जाता है, जो मानसिकता लेकर जाता है, जो संस्कार की डोर लेकर जाता है, जो कर्मसमूह व कर्म का परिपाक लेकर जाता है, वो उसे खींचता रहता है बार-बार। 

     संस्कारों की अनजानी डोर खींचती रहती है उसे बार-बार। एक-दूसरे से उसे बांधती रहती है, इसीलिए मरने के बाद फिर वही अपना परिवार या जहां उसकी आसक्ति है, वहीं वो भ्रमण करता है, वहीं आसपास वो उत्पन्न हो जाता है। उसको ढूंढ़ता रहता है, खोजता रहता है, आसक्ति। उसके अन्दर आसक्ति स्थिरता पैदा होने नहीं देती। आसक्ति उसके मन को शान्त नहीं होने देती। आसक्ति उसे विवश करती रहती है, कर्म करने के लिए।

     हम कर्म अच्छे करें या बुरे करें, शुभ करें या अशुभ करें, पुण्य करें या पाप करें, राग और द्वेष के अनुसार करते हैं।

    ऐसा नहीं है कि राग होता है तो हम पुण्य करेंगे, राग होता है तो भी पाप कर सकते हैं। जिसके लिए हम आसक्त हैं, उसके लिए हम लीक से हट करके, नियम से हट करके, नीति से हट करके, विवेक से हट करके कर्म करते हैं। उसको खुश रखने के लिए उसके लिए अच्छा करने के लिए, आदमी रिश्वत लेता है, घोटाले करता है, बडी़-बडी़ मात्रा में पैसा जोड़ता है, क्यों जोड़ता है ?  

     सारे अपने लिए थोडे़ जोड़ता है, अपनों के लिए जोड़ता है। द्वेष होता है ये द्वेष भी चैन नहीं लेने देता। उसने हमको ऐसा कहा, तो हम ऐसा करेंगे, बदला लेंगे जरूर। बदला लेने के कई बार भिन्न-भिन्न तरीके होते हैं। कई बार आदमी लाठी-डण्डे से बदला लेता है, कई बार अकल से बदला लेता है।

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