अग्नि आलोक
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वैदिक दर्शन : स्त्री-मैथुन और गर्भाधान प्रक्रिया 

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          डॉ. विकास मानव 

मनुष्य का पहला संस्कार गर्भाधान है। जो क्रिया अच्छी तरह व्यापक उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए शुभ प्रभाव हेतु की जाती है, उसका नाम संस्कार है। यह संस्कार स्त्री में पुरुष द्वारा पूरी तैयारी के साथ किया जाता है। इस संस्कार से भावी जातक के शरीर की नींव पड़ती (डाली जाती हैं। 

     मैथुन और गर्भाधान में सूक्षम अन्तर है। मैथुन, जब मन्त्र के साथ में उचित देश काल पात्र के प्राप्त होने पर यथाविधि ऋषि प्रतिपादित ढंग से किया जाता है तो वह गर्भाधान संस्कार कहलाता है। कोई भी संस्कार बिना मंत्र के नहीं होता। 

     अतः बिना मन्त्र के गर्भाधान संस्कार की प्रक्रिया कैसे पूरी हो सकती है ? सामान्यतः तीन दिन तक आर्तव रहता है। स्त्री चौथे दिन श्रमपूर्वक पकाये गये अभिमंत्रित चरु (खीर) का भक्षण अपने पति के साथ चौथी रात्रि की प्रतीक्षा करती है इष्ट रात्रि में शायिका पर स्थित हो अपने पति का प्रेम एवं सहानुभूति अर्जित कर मंत्रोच्चार के साथ अपनी यज्ञस्थली का समर्पण उसके प्रति करती है। अनन्तर प्रारंभ होता है-मैथुन.

  अथास्या ऊरू विहापयति विजिहीथां द्यावापृथिवी इति।

 तस्यामर्थं निष्ठाय मुखेन मुखं संधाय जिरेनामनुलोमामनुमार्ष्टि विष्णुयोनि कल्पयतु त्वष्टरूपाणि पिंशतु।

 आसितु प्रजापतिधता गर्भ दधातु ते गर्भ हि सिनीवालि गर्भ धेहि पृथुष्टुके।

 गर्भते अश्विनी देवावाधतां पुष्करसजी।

~बृहदारण्यक उपनिषद् (६।४।२१)

अथ = तब।

अस्याः = इसकी (स्त्री की)।

ऊरू = दोनों जंघाओं को।

विहापयति= पृथक् (अलग-थलग करता है, फैलता है। 

   अथ अस्याः ऊरू विहापयति =  जब स्त्री सम्भोग के लिये पूरा मन बना लेती है तो पुरुष उससे उसकी दोनों जंघाओं को अलग-थलग करने के लिये कहता है। वह उससे सटी हुई जाँघों को अलग कराता है। यहाँ प्रेरणार्थक क्रिया होने से पुरुष उसी से पृथक्करण करवाता है, स्वयं उसकी जाँघों को नहीं हटाता। इससे प्रकट है-पुरुष स्त्री की इच्छा के विरुद्ध उससे मैथुन न करे।

     जब स्त्री स्वतः अपनी जाँघों को फैलाती है तो इसका अर्थ हुआ वह पुरुष को मैथुन का आमन्त्रण दे रही है। प्रायः स्त्रियाँ संकोचशील होती हैं। अतः उनकी मौन सहमति पाकर पुरुष को स्वयं अपने हाथ के मधुर स्पर्श से फैलाना चाहिये। 

    इससे उपस्थ स्थान का सम्यक् दर्शन होता है। यह यज्ञस्थान है। इसे बिना अच्छी तरह देखे जाने यज्ञ कैसे किया जा सकता है ? इसलिये हवन से पूर्व यज्ञस्थली की स्पष्टता एवं विस्तृता के लिये दोनों उरुओं का परस्पर संघट्ट या सदा रहना ठीक नहीं है। यदि ये सटे रहेंगे तो आगे की क्रिया हो नहीं पायेगी। 

विजिहीयाम् = अलग होंवे[ वि + हा + आत्मनेपद विधिलिङ् म.पु., द्विवचन ।]

द्यावापृथिवी = द्युलोक और भूलोक। इति = ऐसे

विजीहीथाम् द्यावापृथिवी इति =जैसे आकाश और पृथिवी एक दूसरे अलग हैं, वैसे हे प्रिये! तुम्हारी दोनों जो परस्पर पृथक् (दूर) हो। ऐसा पति, अपनी पत्नी से कहता है। आकाश और पृथिवी क्षितिज में मिले हुए होते हैं। परन्तु, क्षितिज से दूर हट कर ये परस्पर अलग होते हैं। ऐसे ही दोनों जाँघे उपस्थ स्थान / कटि प्रदेश में जुड़ी होती हैं, किन्तु आगे घुटने की ओर फैली (विलग) होती हैं।

     तस्याम् अर्थम् निष्ठाय = उसमें अपने अभिप्राय को स्थापित कर उस अपनी पत्नी में अपने कार्य को प्रकट कर। 

   मुखेन मुखम् संधाय = मुख से मुख को मिलाकर मुख से मुख को चूमकर – योनिमुख से लिंगमुख मिलाकर। 

त्रिः = तीन बार। एनाम् = इसको (इस पर)।

अनुलोमाम् = अनुलोम दिशा की ओर बालों से / केशों से ऊपर से नीचे की ओर/स्वाभाविक क्रमानुसार।

  अनुमार्ष्टि = हाथ से स्पर्श करता है, पकड़ता है, मलता है, मसलता है,गुदगुदाता है।

    त्रि एनाम् अनुलोमाम् अनुमार्ष्टि = तीन बार अपनी प्रिया को स्वाभाविक क्रमानुसार (केशादि में पादान्त तक) सम्पूर्ण शरीराग का स्पर्श करता है। पहले ललाट पर हाथ रखकर सिर के केशों को छूते हुए ग्रीवा, पीठ, नितम्ब, जांघ, टांग, चरणतल तक तीन बार स्पर्श करने से स्त्री को कामाग्नि भड़कती है, साथ हो साथ पुरुष भी उस आग से तपने लगता है।

     यह क्रिया यज्ञ को अग्नि को तीन बार फूंक मार कर प्रज्जवलित करने के समान है। जब तक आग से लपटे न निकले तब तक आहुति नहीं डाली जाती। इसलिये वीर्य होम करने से पूर्व आग धधकायी जाती है।

विष्णुः= पालनकर्ता।

 योनिम् =स्त्री की योनि को।

 कल्पयतु = (वीर्य धारण में) समर्थ करें [ गर्भ धारण के योग्य करें] 

वष्टा= निर्माणकर्ता भगवान्।

रूपाणि =रूपों को, भूण के अंगप्रत्यंग को।

पिंशतु =रचे, संघटित करे, प्रकाशित करे। 

प्रजापति = प्रजा रक्षक । आरिचतु रस रक्तादि धातुओं से सीधे परिवर्धित करे, पुष्ट करे।

आरिच्ञतु =रस रक्तादि धातुओं से सीधे परिवर्धित करे, पुष्ट करे।

धाता = सबका धारणकर्ता भगवान् गर्भम् गर्भ को ते तेरे दधातु धारण करे, च्युत न होने दे।

      विष्णुःते योनिम् कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिशतु प्रजापति आसितु धाता गर्भं दधातु= विष्णु तेरी योनि को गर्भधारण के योग्य करें। त्वष्टा गर्भस्थ शिशु के अवयवों को यथायोग्य रचे। प्रजापति गर्भ को अच्छी तरह साँचे। धाता गर्भ को स्थिर रखें समय से पूर्व च्युत न होने दें।

    सिनीवालि = चन्द्रदर्शन से पूर्ववर्ती दिन प्रतिपदायुक्त अमावस्या का नाम सिनीवालि है।

या पूर्वाभावस्था सा सिनीवाली, योत्तरा सा कुछ।

     ~ऐतरेय उपनिषद.

सा दृष्टेन्दुः सिनीवाली, सा नष्टेन्दुकला कुहूःI

    ~अमरकोषः

अभावस्यायुक्त प्रतिपदा में जब चन्द्रमा दिखायी दे जाता है तो उस अमावस्या का नाम सिनीवालि। सिनीं श्वेता चन्द्रकला वलति धारयति, सिनोवल + अण् + डीप। गौरवर्ण की स्त्री को सिनी कहते हैं। सि (स्वादि क्रूयादि, उभ सिनोति, सिनुते सिनाति सिनीते, बाँधना, कसना, जकड़ना, जाल में फँसाना) + नक्= सिन् + ङीष् = सिनी। 

     निष्कलंक चरित्र शुद्ध आचार वाली स्त्री को सिनीवाली कहते हैं। ऐसी स्त्रियों कम होती हैं। चन्द्र की प्रथम कला भी कम दिखायी पड़ती है। अतः सिनीवाली का अर्थ हुआ शुद्धाचारिणी। 

     पृथुष्टुके = बहुप्रशंसित । स्तु (अदादि उभ स्तौति स्तवति, स्तुते स्तुवीते प्रशंसायाम्) + कन्+टाप् = स्तुका। संस्कृत कोश में इसका अर्थ कूल्हा वा जंघा (ऊरुद्वय) है। पृथू अर्थात् विस्तीर्ण फैला हुआ प्रशस्त यथेष्ठ मोटा चौड़ा जंपा है जिसका वह पृथुष्टका है【त्◆ट्] तथा[स्◆ष्] । अतः पृथुनितम्बिनी = पृथुष्टुका। जिस स्त्री के कूल्हे वा नितम्ब बड़े चौड़े विशाल फैले हुए होते हैं, सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार वह भाग्यवती यशस्वी तथा पुत्रों वाली होती है। ऐसी स्त्री सबके द्वारा प्रशंसनीय होती है। यहाँ पृथुष्टुके पद पृथुटुका शब्द का सम्बोधन एक वचन रूप है। अतएव, पृथुष्टुके= हे सूरुके सुनितम्बिके!

      गर्भम् धेहि सिनीवाल, गर्भम् धेहि पृथष्टुके= हे गौरवर्णे चन्द्रवदने सुशीले प्रिये,  गर्भ को धारण कर. हे सुनितम्बिनि सुभगे भामिनि, गर्भ को धारण कर अश्विनौ देवों = नासत्य और दस्र नाम के सूर्य के दो पुत्र हैं। 

    ये दोनों साथ-साथ रहते हैं और देवताओं के चिकित्सक कहलाते हैं। ये अपने गले में कमल की माला धारण करते हैं। ये दोनों एक साथ अश्वी के गर्भ से सूर्य द्वारा उत्पन्न किये गये हैं। यह · अश्वी सूर्य की पत्नी है। यह कथन गूढ़ है। अश्विनी कुमार हैं क्या ?

     अश् (स्वादि आत्मने अश्नुते व्याप्त होना, पूरी तरह से भरना, प्रविष्ट होना, पहुँचना, जाना या आना, उपस्थित होना) + वन = अश्व +ङीप् = अश्वी = प्राणशक्ति। यह सर्वत्र व्याप्त है। यह शक्ति प्राणरूप से भीतर प्रवेश करती है तथा अपान रूप से बाहर निकलती रहती है। 

    अदम्य गति वाली होने से इस शक्ति को स्वर (सु + अर) कहते हैं। स्वर दो हैं- इडा और पिंगला इडा वाम स्वर है। इसे चन्द्र स्वर कहा जाता है। पिंगला दक्षिण स्वर है। इसे सूर्य स्वर नाम दिया गया है। दो नासा छिद्र होते हैं। ये ही इनके आने जाने के दो मार्ग हैं। ये दोनों स्वर युगल रूप में होते हैं तथा अपने प्रवाह (आने-जाने) से जीवों को जीवन देते हैं। इसलिये ये अश्विनौ देवी हैं।

पुष्करस्रजौ = कमल की माला धारण किये हुए। नील कमल को पुष्कर कहते हैं। स्रक् (ग) =माला। दोनों अश्विनी कुमार एक-एक कमल की माला पहने रहते हैं। इसलिये इन्हें पुष्कर-सजौ नाम प्राप्त है। पुष् (ध्वादि दिवादि क्रयादि परस्मै पोषति पुष्यति पुष्णाति पालना पोसना) + कृ (तनादि उभयकरोति कुरूते करना) + अप् = पुष्करः पुष्टिं करोति इति । वा, पुष्कं पुष्टि राति रा + क इति पुष्करः। वायु, आकाश, जल, भूमि, सूर्य (अग्नि) का नाम पुष्कर है। ये सब पुष्टि देने वाले हैं। नासिका में खोखलापन होने से आकाश विद्यमान है। इसमें वायु का प्रवाह होता रहता है।

     नासिका में आर्दता रहती ही है। इसलिये। इसमें जल के होने का प्रमाण है। नासिका से बहने वाली वायु गर्म होती है। साँसें गर्म होने से नाक में अग्नि भी है। नाक का आकार ही ठोस पृथ्वी तत्व के कारण है। नासिका में सूंघने की शक्ति होती है। प्राण पृथ्वी का तन्मात्र है। अतः दोनों नासा छिद्र पृथ्वी तत्व से युक्त हैं। एक सूत्र में एक ही प्रकार की या कई प्रकार की अनेक वस्तुओं को गूंधने से सवा माला बनती है। 

     दोनों नासा छिद्रों में साँसों की माला सतत विद्यमान रहती है। यह कभी मुर्झाती नहीं। इससे जीव को जीवन मिलता है, पुष्टि मिलती है। अतएव इडा-पिंगला ही पुष्कर स्रजौ हुए।

     आधत्ताम् = आधान करें। आ + धा आत्मनेपद रखना, धरना, जमाना, प्रयोग करना, लेना, अधिकार में करना, पैदा करना, उत्पादन करना, उत्तेजित करना, देना, समर्पित करना, स्थिर करना, नियुक्त करना, संस्कृत करना, अनुष्ठान करना, अर्थ में लोट् लकार प्र.पु. एक वचन का रूप है आ-धत्ताम्। 

    पुष्करस्रजौ अश्विनौ देवौ गर्भम् ते आधत्ताम् =  पुश्कर स्रज दोनों अश्विनी कुमार तेरे गर्भ को स्थिर करें।

 स्त्री-पुरुष परस्पर परिरम्भ मुद्रा धारण करते हैं तो उनकी साँसें नाक के सटने से एक दूसरे में प्रवाहित होती हैं। यदि किसी स्त्री को गर्भ न ठहर रहा हो अथवा ठहर कर गिर जा रहा हो अथवा पैदा होकर नष्ट हो जा रहा हो तो पुरुष को चाहिये कि वह उस स्त्री की योनि में स्व वीर्य की आहुति पुष्कराज अवस्था में दे। 

     पुष्कराज अवस्था क्या है ? जब दोनों नासिका रंध्रों से इडा-पिंगला समान रूप से एक साथ चलें तो दोनों एक दूसरे की साँसों का प्रत्यावर्तन करते हुए एक दूसरे के भीतर अपनी साँसों को प्रवाहित करते हुए रेतस् त्याग करें। स्वरशास्त्र गर्भस्थापन के लिये इसे अमोद्य उपाय बताता है।

गर्भाधान संस्कार जीवन का आधाभियान है। इस मंत्र संस्कार में आधान की प्रक्रिया का क्रमबद्ध वर्णन हुआ है। सर्वप्रथम पुरुष अपनी पत्नी के ऊरुद्वय को विलग करे। विलगीकरण के समय उसे यह मन्त्र पढ़ना चाहिये- “विजिहीथां द्यावापृथिवी।”

     इसके बाद पत्नी की योनि में अपने लिंग को सुस्थापित कर तथा मुख से मुख मिलाकर गाढ़ आलिंगन की स्थिति में अपने अंक में लेते हुए बायें हाथ से उसके शरीर को आवृत कर सम्हालते हुए दाहिने हाथ से शिर से प्रारंभ कर केश, गीवा, पृष्ठ भाग, नितम्बक्षेत्र, जाँघ, टांग, पादपृष्ठ का दबावयुक्त स्पर्श करे।

     ऐसा तीन बार करे। यह मार्जन क्रिया है। मार्जन काल में पुरुष ये मन्त्र पढ़े- “विष्णुः योनिं कल्पयतु । १। त्वष्टा रूपाणि पिशतु । २। आसिञ्चतु प्रजापतिः । ३ । धाता गर्भ दधातु ते । ४ । ये मन्त्र मन ही मन पढ़ना चाहिये। क्योंकि मुँह से मुंह लिप्त होने से मन्त्रोच्चार सम्भव नहीं है। इन मन्त्रों के अर्थ बिनान के साथ पुरुष स्वपनी के अग्निकुण्ड में वीर्य की आहुति दे.

    इसके बाद वह उसी तरह परिरम्भ कुम्भ की मदिरा का पान करते हुए निःश्वास मलय के झोकों की स्पर्शानुभूति करते हुए, मुख चन्द्रकी चन्द्रिका में आह्लाद की अनुभूति करते हुए इस मन्त्र का अस्फुट पाठ करे :

   गर्भं धेहि सिनीवालि गर्भ धेहि पृथुष्टुके। 

गर्भं ते अश्विनौ देवावाधत्तां पुष्करस्रजौ॥

   आगे और मंत्र दिया गया है। इसे भी आधानकाल में जपना चाहिये। ऋषि कहता है :

    हिरण्यमयी अरणी आभ्यां निर्मन्धतामश्विनी यथाऽग्निगर्भा पृथिवी यथा धीरिन्द्रेण गर्भिणी। तं ते गर्भ हवामहे, दशमे मासि सूतये॥ वायुर्दिशों तथा गर्भ एवं गर्भं दधामि तेऽसाविति॥

  ~वृहदारण्यक उप. (६ । ४ । २२ १)

 हिरण्यमयी= प्रकाशमयी/चमकीली/स्वर्णमयी/पापताप हारी/ क्लेशहारी/ ज्योतिर्मयी/ आनन्ददायी/ सुखमयी / आह्लादकारी/ उपमालु / रमणीय।

    अरणी-दो अरणियाँ, काष्ठद्वय (एक चौरस काष्ठ + एक लम्ब काष्ठ) चौरस काष्ठ पर लम्ब काष्ठ को रगड़ कर अग्नि पैदा की जाती है। इस अग्नि में घृतादि का हवन किया जाता है। शीघ्र प्रज्जवलित होने वाली शमी आदि वृक्षों की सूखी लकड़ी जिनके घर्षण से यज्ञ के अवसर पर अग्नि जलाई जाती वा उत्पन्न की जाती है, अरणी कहलाती है।

     स्त्री की योनि तथा पुरुष का लिंग दोनों अरणि तुल्य हैं। इनके परस्पर के रगड़ से कामाग्नि उत्पन्न हो कर धधकती है, जिसमें पुरुष अपने वीर्य तथा स्त्री अपने रज की आहुति देती है। दो संघर्षशील काष्ठ खण्डों में से एक स्थिर तथा दूसरा चल होता है। ऐसे ही स्त्री की योनि स्थिर अरणि तथा पुरुष का शिश्न चल अरणि है। ऐसा समझना चाहिये। 

   याभ्याम् = जिन दोनों (अरणियों) से यद् शब्द पञ्चमी द्विववचन, सर्वलिंग। 

     निर्मन्यताम् = निर् + मन्थ विलोडने मथना बिलोना पीड़ा देना हिलाना घुमाना आत्मनेपद लट् प्रथम पुरुष एक वचन। मथते हैं, भीतर से बाहर ऊपर से नीचे तक लिंग द्वारा योनि को पीड़ित करते हैं। 

    अश्विनौ = दोनों अश्विनी कुमार, दोनों इडा (चन्द्र) पिंगला (सूर्य) स्वर, चन्द्ररूप स्त्री तथा सूर्यरूप पुरुष। आकाश में सूर्य ऊपर है, चन्द्रमा इससे नीचे है। मैथुन कक्ष में पुरुष ऊपर होता है, स्त्री उसके नीचे होती है। सूर्य अपनी किरणों को चन्द्रमा पर डालता रहता है, पुरुष अपनी वीर्य रश्मि से स्त्री को तृप्त करता है। ये पुरुष और स्त्री का जोड़ा ही अश्विनी है। ऐसा जाना जाता है।

   तम् ते गर्भम् = उस तेरे गर्भ को।

 हवामहे = स्थापित करता हूँ, (हवनकुण्ड में आहुति के रूप में) प्रस्तुत करता हूँ, (योनि विवर में वीर्य रूप में) हवन करता हूँ, (पत्नी के सम्मान में रत्न हवि रूप में) भेंट करता हूँ, (आनन्द प्राप्ति हेतु सन्तान हेतु स्त्री-क्षेत्र में) बीज बोता हूँ। हु धातु (दाने, प्रक्षेपे, वैधे, आधारे) कर्मवाच्य लट् उ.पु. बहुवचन।

   . दशमे मासि सूतवे = दसवें महीने में उत्पन्न होने के लिये दसवें मास में जन्म लेने के लिये।

    यथा अग्निगर्भा पृथिवी = जैसे अग्नि को अपने गर्भ में (अपने भीतर) धारण करने वाली पृथिवी  है।

वाणी जैसे लोक इन्द्र के द्वारा गर्भयुक्त होता है।  यथा वायुः दिशाम् गर्भः= जैसे वायु दिशाओं के गर्भ में रहता है। 

   एवम् गर्भम् दधामि ते = इसी प्रकार (मैं) तेरे गर्भ को स्थापित करता हूँ। 

   असौ = अमुक नाम वाला वह यह पुरुष असौ के स्थान पर पति अपने नाम का उच्चार करे।

  इति= ऐसा यह मन्त्र बोले।

   इस मन्त्र संस्थान का पूरा अर्थ यह है- स्त्री और पुरुष के उपस्थ (जननेन्द्रियाँ) दो अरणियों (काष्ठ खण्डों) के समान हैं जिसे सूर्य-चन्द्र रूप स्त्रीपुरुष (अश्विनौ) आपस में जम कर रगड़ते हैं। उन दोनों (शिश्न + योनि) के सन्निकर्ष से मैं, हे प्रिये !!!! तेरे गर्भ को स्थापित करता हूँ, जिससे दसवें मास में प्रसाव हो- जातक जन्मे, आविर्भूत होवे। जैसे पृथ्वी अपने गर्भ में अग्नि को धारण करती है, जैसे द्युलोक / आकाश अपने गर्भ में इन्द्र (सूर्य) को धारण करता है, जैसे दिशाएँ अपने गर्भ में वायु को धारण करती हैं, ऐसे ही मैं अमुक नाम वाला, तुझमें गर्भ का आधान करता हूँ।

     वीर्यपात करते समय ऐसा संकथन पुरुष द्वारा किया जाता है। ऐसा करने से गर्भ का ठहरना निश्चितप्राय है।

     पुरुष-स्त्री ही अश्विनी कुमार हैं। शिश्न-योनि ही अरणियाँ हैं। ये दोनों अपनी-अपनी अरणियों को एक दूसरे से रगड़ते हैं। यह घर्षण क्रिया ही मैथुनकर्म है। इस घर्षण से अग्नि का आविर्भाव होता है। यह अग्नि आनन्द वा सुख है। इस कामग्नि में पुरुष अपने वीर्य की हवि डालता है तथा स्त्री अपने रज को आहुति डालती है। इस यज्ञ कर्म का फल दसवें मास में मिलता है।

      १ की संख्या १० को उत्पन्न करती है। १ + १ = १० इस सूत्र से दसवें मास में स्वी का प्रसाव होता है। ९ महीने पहिले जो गर्भ स्थापित किया, वह दसवें महीने में उसी मार्ग से बाहर आता है, निकलता है, पैदा होता है। योनिमार्ग से बीज गर्भाशय में पहुंचता है। वहीं परिवर्धित एवं परिपक्व होकर पुनः योनि-मार्ग से बाहर आता है। यह एकपथी जातक धन्य है।

     विश्व में जहाँ कहीं भी पृथ्वी की सतह पर ज्वालामुखी फूटता है, वहाँ आग के गोले, जलते हुए पत्थर, लावे, वाष्प, धुआं निकलता है। इससे सिद्ध होता है-पृथ्वी अपने गर्भ में अग्नि छिपाये रहती है। समय आने पर यह, इस अग्नि का प्रसवन जब करती होती है तो भूकम्प आता है।

    इन्द्र नाम है सूर्य का । द्युलोक कहते हैं आकाश को द्यौ अर्थात् आकश में सूर्य नित्य रहता है। इसी को कहा गया है कि यह आकाश अपने गर्भ में सूर्य को रखे हुए है वा यह द्युलोक सूर्य से गर्भयुक्त है। यह प्रत्यक्ष है। इसमें प्रमाण की क्या आवश्यकता ?

     दिशा-विदिशाओं- दसों दिशाओं में वायु को विद्यमानता है। सभी दिशाओं में वायु की उपस्थिति का अर्थ है, दिशाएँ वायु को अपने गर्भ में धारण करती हैं। ऊपर-नीचे, दायें-बायें, आगे-पीछे मध्य में, कोणों में सर्वत्र वायु ही वायु है। इसलिये कहते हैं कि दिशाएँ वायु से गर्भ धारण करती हैं। यह सुस्पष्ट तथ्य है।

     इसलिये मन्त्र में कहा गया है कि जैसे अग्नि से पृथ्वी गर्भवती है, सूर्य से आकाश गर्भवान् है तथा वायु से दिशाएँ गर्भसम्पन्ना हैं, वैसे ही मैं अपने वीर्य से, हे पत्नी, तुझे गर्भवती करता हूँ।

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