डॉ. विकास मानव
क इदं कस्मा अदात्।
कामः कामाय अदात्।
कामोदाता कामः प्रतिगृहीता।
कामः समुद्रमा विवेश।
कामेन त्वा प्रतिगृह्णामि कामैतत् ते॥
~अथर्ववेद (३ । २९ । ७)
कः इदम् (कामम्) अदात् ? कस्मा (कस्मै) अदात् ?
कामः कामाय अदात्। कामः दाता। कामः प्रतिगृहीता। कामः समुद्रम् आ-विवेश। कामेन त्वा (म्) प्रतिगृह्णामि काम। एतत् ते।
●अदात् = दा धातु, लुङ् लकार, प्रथम पुरुष, एक वचन दिया है।
●आविवेश = आ + विश् धातु लिट् लकार, प्रथम पुरुष, एक व. । प्रविष्ट हुई है।
● प्रतिगृणामि = प्रति + मह (क्र्यादि उभय) लट् लकार प्र.पु, एक वचन स्वीकार करता हूँ, पाणिग्रहण करता हूँ, आश्रय लेता हूँ, समनुरूप होता हूँ, अवलम्बित होता हूँ, लेता हूँ, थामता हूँ, पकड़ता हूँ, सामना करता हूँ।
मन्त्रार्थ :
किसने इस (काम) को दिया है?
किसके लिये (इसको दिया है?
काम ने काम के लिये दिया है। काम दाता (देने वाला) है। काम प्रतिगृहीता (दिये हुए को स्वीकार करने वाला) है. काम समुद्र (हृदय) में प्रविष्ट हुआ (घुसा है। काम के द्वारा / काम के वशीभूत होकर (मैं) तुझे स्वीकार करता हूँ। हे काम यह (सब) तेरा/तेरे लिये है।
इस मन्त्र में समुद्र शब्द विशेष उल्लेखनीय है। यह मुद् धातुज है।
(i) मुद् चुरादि उभय मोदयति-ते मिलाना, घोलना, स्वच्छ करना, निर्मल करना।
(ii) मुद् भ्वादि आत्मने मोदते हर्ष मनाना प्रसन्न होना आनन्दित होना मुद् + रक् = मुद्र। मिला हुआ/ घुला हुआ/स्वच्छ/ निर्मल/प्रसन्न को मुद्र कहते हैं। स(सह) + मुद्र= समुद्र। जिसमें अनेक नदियों का जल मिला हो, नमक घुला हो, जो स्वच्छ हो, मलहीन हो, सतत प्रसन्न हँसता हुआ, अट्टहास करता हुआ (ज्वार रूप में) हो, वह समुद्र है। हृदय में अनेकों भाव होते हैं। इन भावों में प्रेम तत्व घुला होता है। हृदय कपटहीन (स्वच्छ) हो तथा ईर्ष्याहीन (निर्मल) हो साथ ही साथ प्रसन्न शान्त प्रगल्भ हो तो वह हृदय समुद्रवत् होने से समुद्र ही है। अतएव मन्त्र में समुद्रम्= हृदयम् समझना चाहिये।
इस मंत्र में काम शब्द बार-बार आया है। काम = क (रस/जल) + अम (गति)। [ अम् गतौ अमति + घञ]। अतः काम का अर्थ हुआ रस प्रवाह रसका न रुकना अर्थात् बहते रहना काम है। रस नाम ब्रह्म का ‘रसो वै सः।’
अतः काम = ब्रह्मगति = आनन्दप्राप्ति वीर्य का बहना, लिंग से बाहर निकलना आनन्द है। रज का बहना, स्खलित होना आनन्द है। यही काम है।
जब यह कहा जाता है-कः इदं अदात्? तो इसका दो अर्थ हुआ :
१- किसने इसको दिया ?
२- ब्रह्म ने इसको दिया।
जब यह कहा जाता है- कस्मा अदात् ? तो इसका भी दो अर्थ है।
किसको दिया ?
कस्मा = ब्रह्म।
ब्रह्म को दिया।
जब यह कहा जाता है-कामः कामाय अदात्, तो इसका सीधा अर्थ है- ब्रह्म ने ब्रह्म को दिया।
कामः दाता = देने वाला ब्रह्म है।
कामः प्रतिगृहीता = लेने वाला ब्रह्म है।
पुनः जब यह कहा गया कि कामः समुद्रम् आविवेश तो इसका तात्पर्य हुआ ब्रह्म ने हृदय में प्रवेश किया। समुद्र हृदय है, हृदय ब्रह्म का वासस्थान वा स्वयं ब्रह्मरूप है। अतः कामः समुद्रम् आविवेश = ब्रह्म को ब्रह्म की प्राप्ति हुई।
स्त्री-पुरुष दोनों एक दूसरे से कहते हैं कि कामेन त्वा प्रतिगृह्णामि। इसका अर्थ है- ब्रह्म के द्वारा तुझ (ब्रह्म) को प्राप्त करता होता हूँ।
मंत्र का अन्तिम वाक्य है-काम एतत् ते। हे ब्रह्म ! यह सब तेरा है =यह सब ब्रह्म है।
मंत्र का सार है :
सृष्टि काममय है। स्त्री काम है। पुरुष काम है। लेने वाला काम है। देने वाला काम है। लेने-देने का माध्यम भी काम है। सब कुछ काम है।
टिप्पणी :
हृदय का अर्थ समुद्र है, इसके लिये वेद प्रमाण है।
१-एता अर्षन्ति हृद्यात् समुद्रात् शतवजारिपुणा नावचक्षे.
~यजुर्वेद (अध्याय १७, मंत्र९३).
ये सैकड़ों गतिवाली धाराएँ हृदयरूपी समुद्र से निकलती हैं.
२- असंताप में हृदयमुर्वी गव्यूतिः समुद्रो अस्मि विधर्मणा.
~अथर्ववेद (काण्ड १६, सूक्त ३ मन्त्र ६).
मे हृदयम् = मेरा हृदय, असन्तापम् सन्तापरहित हो गया है, गव्यूतिः = (मेरी) गति, उर्वी= विस्तृत हो गई है, विधर्मणा = विभिन्न गुणधर्मो से युक्त मैं, समुद्रः समुद्र सदृश, अस्मि = हो गया हूँ।
३- समुद्र इव हि कामः नैव हि कामस्यान्तोऽस्ति न समुद्रस्य।
~तैत्तिरीय उपनिषद (२।२।५)
समुद्र के समान काम होता है। न काम का अन्त है और न समुद्र का.
काम के विषय में याज्ञवल्क्य के विचार :
याज्ञवल्क्य की दो पलियाँ थीं- मैत्रेयी और कात्यायनी इन में से मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी थी तथा कात्यायनी साधारण स्त्रीप्रज्ञा वाली। एक बार याज्ञवल्य ने मैत्रेयी से कहा कि, हे मैत्रेयी।
मैं संन्यास लेने जा रहा हूँ। इसलिये मैं तेरे और कात्यायनी के बीच सम्पत्ति का बंटवारा करना चाहता हूँ मैत्रेयी ने उनसे सम्पत्ति (धन) के बदले अमृतत्व की जिज्ञासा की। इससे याज्ञवल्य बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने काम के द्वारा परमतत्व का संकेतन किया।
स होवाच न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो, भवत्यात्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति।
न वा अरे जायायै कामाय जाया प्रिया भवत्यात्मनस्तु, कामाय जाया प्रिया भवति।
न वा अरे पुत्राणां कामाय पुत्राः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय पुत्राः प्रिया
भवन्ति।
न वा अरे वित्तस्य कामाय वित्तं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय वित्तं प्रियं भवति।
न वा अरे पशूनां कामाय पशवः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय पशवः प्रिया भवन्ति।
न वा अरे ब्राह्मणः कामाय ब्रह्म प्रियं भवन्त्यात्मनस्तु कामाय ब्रह्म प्रियं भवति।
न वा अरे क्षत्रस्य कामाय क्षत्रं प्रियं भवन्त्यात्मनस्तु कामाय क्षेत्रं प्रियं भवति।
न वा अरे लोकानां कामाय लोका: प्रिया भवत्यात्मनस्तु कामाय लोका: प्रिया भवन्ति।
न वा अरे देवानां कामाय देवा: प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय देवाः प्रिया भवन्ति।
न वा अरे वेदानां कामाय वेदाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामायवेदा: प्रिया भवन्ति।
न वा अरे भूतानां कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्त्यात्मनस्तु कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्ति।
न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्व प्रियं भवन्त्यात्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति।
आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो।
मैत्रेय्यात्मनि खल्वरे दृष्टे श्रुते मते विज्ञात इदं सर्व विदितम्।
~ बृहदारण्यक उपनिषद् (४ । ५ । ६).
१- स उवाच ह वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियः न भवति, आत्मनः तु कामाय पतिः प्रियः भवति।
उन्होंने कहा- अरी मैत्रेयि । यह निश्चय है कि पति के काम के लिये पति प्रिय नहीं होता, अपने ही काम के लिये पतिप्रिय होता है।
२- अरेवा, जायायै कामाय जाया प्रिया न भवति, आत्मनः तु कामाय जाया प्रिया भवति।
रे मैत्रेयि । भार्या के काम के लिये भार्या प्रिया नहीं होती, अपने ही काम के लिये भार्या प्रिया होती है।
३- अरे वा, पुत्राणां कामाय पुत्राः प्रियाः न भवन्ति, आत्मनः तु कामाय पुत्राः प्रियाः भवन्ति।
हे मैत्रेयि । पुत्रों के काम के लिये पुत्रप्रिय नहीं होते, अपने ही काम के लिये पुत्र प्रिय होते हैं।
४- अरे वा, वित्तस्य कामाय वित्तं प्रियं न भवति, आत्मनः तु कामाय वित्तं प्रियं भवति।
अरी मैत्रेयि ! वित्त (धन) के काम के लिये वित्त प्रिय नहीं होता, अपने ही काम के लिये वित्त प्रिय होता है।
५- अरे वा, पशूनां कामाय पशवः प्रियाः न भवन्ति, आत्मनः तु कामाय पशवः प्रियाः भवन्ति।
रे मैत्रेयि ! पशुओं के काम के लिये पशु प्रिय नहीं होते, अपने ही काम के लिये पशु प्रिय होते हैं।
६- अरे वा, ब्रह्मणः कामाय ब्रह्म प्रियं न भवति, आत्मनः तु कामाय ब्रह्म प्रियं भवति।
हे मैत्रेयि, ब्रह्म के काम के लिये ब्रह्म प्रिय नहीं होता, अपने ही काम के लिये ब्रह्म प्रिय होता है।
७- अरे वा, क्षत्रस्य कामाय क्षत्रं प्रियं न भवति, आत्मनः तु कामाय क्षत्रं प्रियं भवति।
अरी मैत्रेयि! क्षेत्र के काम के लिये क्षत्र प्रिय नहीं होता, अपने ही काम के लिये क्षेत्र प्रिय होता है।
८- अरे वा, लोकानां कामाय लोकाः प्रियाः न भवन्ति, आत्मनः तु कामाय लोकाः प्रियाः भवन्ति।
रे मैत्रेयि! लोकों के काम के लिये लोकप्रिय नहीं होते, अपने ही काम के लिये ‘लोक’ प्रिय होते हैं।
९- अरे वा, देवानां कामाय देवाः प्रियाः न भवन्ति, आत्मनः तु कामाय देवाः प्रियाः भवन्ति।
हे मैत्रेयी! देवों के काम के लिये देव प्रिय नहीं होते, अपने काम के लिये ही देव प्रिय होते हैं।
१०- अरे वा, वेदानां कामाय वेदाः प्रिया न भवन्ति, आत्मनः तु कामाय वेदाः प्रियाः भवन्ति।
अरी मैत्रेयी! वेदों के काम के लिये वेद प्रिय नहीं होते, अपने ही काम के लिये वेद प्रिय होते हैं।
११- अरे वा, भूतानां कामाय भूतानि प्रियाणि न भवन्ति, आत्मनः तु कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्ति।
हे मैत्रेयी! भूतों के काम के लिये भूत प्रिय नहीं होते, अपने ही काम के लिये भूतप्रिय होते हैं।
१२- अरे वा, सर्वस्य कामाय सर्व प्रियं न भवन्ति, आत्मनः तु कामाय सर्वं प्रियं भवति।
रे मैत्रेयी! सबके काम के लिये सब प्रिय नहीं होता अपने काम के लिये सब प्रिय होता है।
१३- अरे वा, आत्मा द्रष्टव्यः श्रोतव्यः मन्तव्यः निदिध्यासितव्यः।
हे मैत्रेयी! आत्मा दर्शनीय है, श्रवणीय है, मननीय है, निदिध्यासनीय है। आत्मा को देखना चाहिये। आत्मा संबंधी वार्ता सुनना चाहिये। आत्म तत्व का चिन्तन करना चाहिये। आत्मा का ध्यान करना चाहिये।
१४- अरे मैत्रेयि, आत्मनि खलु दृष्टे श्रुते मते विज्ञातः, इदं सर्वं विदितम्।
हे मैत्रेयी! आत्मा में दृष्टि डालने से, श्रुति करने से मन लगाने से, निश्चय ही उसका ज्ञान होता है, जिससे इन सब (सांसारिक पदार्थों) का ज्ञान होता है।
याज्ञवल्क्य का यह कथन बड़ा सारगर्भित है। इसकी व्याख्या जितनी ही की जाय, उतनी कम है। इसलिये इसमें उलझना ठीक नहीं।
काम के विषय में व्यास क्या मत :
१. नास्ति नासीत् न भविष्यद् भूतं कामात्मकात् परम्।
~महाभारत (शान्तिपर्व १६७।३४)
ऐसा कोई प्राणी न है, न था, न होगा, जो काम से परे हो।
२. नवनीतं यथा दध्नः तथा कामोऽर्थधर्मतः।
(महाभारत शान्तिपर्व १६७ । ३६)
:जैसे दही का सार नवनीत (मक्खन) है, वैसे ही अर्थ एवं धर्म का सार काम है।
३. कामो हि विविधाकारः सर्वं कामेन सन्ततम्।
(महाभारत शान्तिपर्व १६७ । ३३)
काम के विविध आकार हैं, सब कुछ काम से व्याप्त हैं।
४. कामो बन्धनमेव एकं नान्यदस्तीह बन्धनम्।
(महाभारत शान्तिपर्व २५१ । ७)
काम ही संसार में मनुष्य का एकमात्र बन्धन है, अन्य कोई बन्धन नहीं है।
५. कामबन्धनमुक्तो हि ब्रह्मभूयाय कल्पते।
(महाभारत शान्तिपर्व २५०।७)
जो काम के बन्धन से मुक्त है, वह ब्रह्मरूप है।
६. सम्प्रमोदमलः कामः।
(महा. शान्तिपर्व १२३।१०)
सम्प्रमोद (हास्य-विनोद / आमोद-प्रमोद) काम का मल (निष्ट रूप है।
७.कामे प्रसक्तः पुरुषः किमकार्य विवर्जयेत्।
(शान्तिपर्व ८८ । ११)
काम में अति आसक्त पुरुष कौन सा बुरा काम छोड़ता है ? अर्थात् हर अकार्य करता है।
८. न स्वल्प्यरसज्ञस्य कामः क्वचन जायते।
(शांति १८०।३०)
जो मनुष्य रसज्ञ नहीं होता, उसमें कभी भी काम उत्पन्न नहीं होता।
९. कामप्राहगृहीतस्य ज्ञानमप्यस्य न प्लवः।
(शान्तिपर्व २३४।३०)
जिस व्यक्ति को कामरूपी ग्राह ने प्रस लिया है, उसके लिये उसका ज्ञान भी पार करने वाला प्लव (नौका) नहीं होता।
१०. सनातनो हि संकल्प काम इत्यभिधीयते।
(अनुशासन पर्व १३४।३९)
प्राणियों में जो सनातन संकल्प है, वह काम कहलाता है।
११. उद्यतस्य हि कामस्य प्रतिवादी न विद्यते।
(महा. उद्योग. ३९ । ४४)
जब काम प्रबल हो जाता है तो उसका प्रतिवाद नहीं किया जा सकता।
१२. कामा मनुष्यं प्रसजन्त एते।
(उद्योग पर्व २७।४)
ये काम मनुष्य को आसक्त बना देता है।
१३. कामानुसारी पुरुषः कामाननु विनश्यति।
(उद्योगपर्व ४२।१३)
काम के पीछे दौड़ने वाला मनुष्य कामों के कारण ही विनष्ट हो जाता है।
१४. कामः संसारहेतुश्च।
(महा. वनपर्व ३१३।९८)
काम संसार का हेतु है।
१५.उद्यतस्य हि कामस्य प्रतिवादो न शस्यते।
~श्रीमद् भागवत पुराण (३।२२।१२)
प्रबल रूप से उपस्थित काम का प्रतिवाद अच्छा नहीं माना जाता.
१६. धर्माविरुद्ध भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।
~ गीता (७। ११)
अर्जुन, मैं प्राणियों में धर्म का अविरोधी काम हूँ।
काम की उत्पत्ति के विषय में वैदिक दर्शन :
●कामस्तदमे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
~ऋग्वेद (माण्डल १०, सूक्त १२९, मंत्र ४)
कामः तद्-अपे, सम्-अवर्तत्-अधि मनसः रेतः प्रथमम् यत् आसीत्॥
परमेश्वर के मन से जो रेत (वीर्य) सर्वप्रथम निकला / वहा, वही मुख्यतः काम हुआ। इससे स्पष्ट है- वीर्य की उत्पत्ति मन से होती है तथा यही वीर्य काम है। इसलिये काम को मनोभव, मनोजव, मनोज कहते हैं। यह मनोभव ज्ञान एवं वैराग्य का अवरोधक है।
● क्व ज्ञानं क्व च वैराग्यं वर्तमाने मनोभवे।
~देवीभागवत पुराण (५। २७ । ६१)
सृष्टि के लिये काम आवश्यक है। बिना काम के कोई क्रिया हो ही नहीं सकती।
●अकामस्य क्रिया काचित् दृश्यते नेह कर्हिचित्।
~मनुस्मृति (२।४)
कामात्मा होना प्रशंसा की बात नहीं है, परन्तु इस संसार में काम रहित होना असंभव है।
● कामात्मता न प्रशस्ता न चैवेहास्ति अकामता।
( मनुस्मृति २।२)
काम के अतिरिक्त इस संसार में कुछ भी नहीं है।
●न वै कामानामतिरिक्तमस्ति।
~शतपथ ब्राह्मण (८ ७। २।१९)
आचार्यगण ऐसा कहते हैं कि वह पुरुष काममय है।
● अथो खल्वाहुः काममय एवायं पुरुष इति।
~बृहदारण्यक उपनिषद् (४।४।५)
काम का कोई अन्त नहीं है। यह समुद्र के समान अथाह एवं अगाध होता है।
●”समुद्र इव हि कामः नैव हि कामस्यान्तोऽस्ति न समुद्रस्य।”
~तैत्तिरीय उपनिषद (२।२।५)
समुद्र को तैर कर कोई अपने आप पार नहीं कर सकता, चाहे जितना शक्तिशाली वा सामर्थ्यवान् हो। दृढ़ पोत / नौका हो और उसको चलाने वाला कुशल मल्लाह / नाविक हो तो व्यक्ति निश्चय ही इस कामार्णव को पार करता है।
अब हमें क्या करना चाहिये ?
सरल उपाय है :
काम के हाथ का उपकरण नहीं बनना चाहिए. कठपुतली बनकर भवसागर से पार नहीं उतरा जा सकता. काम हमारा उपयोग करते रहकर हमारा ही काम तमाम नहीं कर दे, इसलिए काम का उपयोगकर्ता बनना चाहिए. उसे मुक्ति का मार्ग बनाना चाहिए, उसको साधकर.
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष. यानी धर्म के पथ से अर्थ का अर्जन और काम यानी संभोग को साधकर मोक्ष.