अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

वैदिक दर्शन : अब सारे लंकाधिपति बने हैं धर्म के डंकाधिपति

Share

डॉ. विकास मानव

~ गायत्री में सिर्फ़ 03 शब्द, कीलित नहीं मंत्र
~ तुलसी विवाह ढोंग, दसरथपुत्र नहीं तुलसी के राम

~ हनुमान चालीसा के नाम पर ड्रामेबाजी

 जब भी कोई व्यक्ति अपने मुंह से कुछ बोलता  है तो उसके बोलने में आवाज का जो स्पंदन और कंपन होता है, वह 175 प्रकार  का होता है। जब कोई कोयल पंचम स्वर में गाती है तो उसकी आवाज में 500  प्रकार का प्रकंपन होता है।
 मैंने गायत्री मंत्र पर शोध किया. उसमे उत्तर भारत तथा दक्षिण  भारत के विद्वानों से जब विधिपूर्वक गायत्री मंत्र का पाठ कराया गया. यंत्रों  के माध्यम से यह ज्ञात हुआ कि गायत्री मंत्र का पाठ करने से संपूर्ण स्पंदन के जो अनुभव हुए, वे 900 प्रकार के थे। 
आधुनिक गुरु घंटाल कहते है कि गायत्री कीलित है। आप बताइए, परमात्मा कैसे कीलित हो सकता है ? 
   वशिष्ठ जी राम को योग वशिष्ठ सुना रहे थे। वो बता रहे थे की परमात्मा से मनुष्य और मनुष्य से परमात्मा होना क्या और कैसे है। वहीं एक हिरण चर रहा था।वशिष्ठ जी ने उस हिरण की ओर इशारा करते हुए राम से कहा मैं इसके गुरु का आवाहन करता हूँ। वशिष्ठ जी अग्नि देव का आवाहन किया।अग्नि देव उस हिरण के वास्तविक गुरु थे, वो प्रकट हुए, हिरण के सिर पर हाथ रखा वो मनुष्य हो गया, ये है गुरु जिसकी उपस्थिति मात्र से जीव मुक्त हो गया। 
  यहाँ कान फूंके जाते हैं। गायत्री के एक करोड़ जाप किये जाते है। फिर भी कुछ होता नहीं है।
  एक व्यक्ति धर्म के मार्ग पर जा रहा है, आप ये मत सोचना आपने गायत्री देकर उसका बड़ा भला किया है। राम की राज्य सभा में एक कुत्ता अपनी फरियाद लेकर पहुंचा था। उसने कहा था अपराधी को किसी आश्रम का महंत बना दो। आगे तुम खुद समझ जाओ। कुत्ता ने क्यों कहा होगा की इसे किसी आश्रम का महंत बना दो।
 गायत्री कीलित नहीं हो सकती है। मार्ग कीलित होते हैं। गुरु को मार्ग खोलना होता है, गायत्री तो पहले से ही मौजूद है।गायत्री तक पहुंचे कैसे ये व्यक्ति ?  इसे नौटंकी न कहे तो क्या कहे ? 

पूरी वैदिक परंपरा का तमाशा बनाकर रख दिया गया है। इन पाखंडियों ने कुछ ऐसा ही हाल विवाह पंचमी के उत्सव का भी करके रख दिया है। जब हम विवाह पंचमी की बात करते हैं तो एक सहज प्रश्न उठता है कि किसका विवाह है?
उत्तर मिलताहै – सीता और राम का विवाह।
फिर प्रश्न उठता है कि कौन सीता और कौन राम?
राम तो रोम रोम में रमण करने वाला आत्मा है और उसको जानना, समझना या दर्शन ही आत्म साक्षात्कार या आत्म दर्शन है। सनातन परंपरा में यही सभी आध्यात्मिक साधना का मूल है।
हर जन्म ही अवतार है लेकिन किसी भी विशेष अवतार को ईश्वर कहने या मानने की परम्परा यहां नहीं है। वास्तविक साधकों और मनीषियों ने आत्मा को ही विष्णु, शिव, राम, कृष्ण, काली, दुर्गा, लक्ष्मी आदि नामों से सम्मानित किया है।
अनेक कथाओं की तरह विवाह पंचमी भी ऋषीकुल की एक रहस्य कथा है। इसके मर्म को समझे बिना ही सब रामायन पढते और गाते रहते हैं तथा धर्म का डंका बजा बजा के खुश होते रहते हैं। सारे लंकाधिपति ही अब धर्म के डंकाधिपति बन गये हैँ।

ऋषिकुल में कथाओं के तीन पक्ष होते हैँ – सामाजिक, एतिहासिक और अध्यात्मिक। मतलब इसके तीन स्तर होते हैँ। हर जगह इसको स्पस्ट रुप से देखा जा सकता है। लेकिन कोई यह देखेगा क्यों? इससे धंधा चौपट हो सकता है। आत्मा तो रसो वै स; है। लोगों को मात्र रस चाहिये। निरस चीजें किसे अच्छी लगती?
इसी का फायदा तथाकथित मठ महंत और कथावाचकों ने रंग रसीली कहानी और प्रसंग बना के उठाया है।

रामायन की कथा भी तीन स्तर पर चलती – शिव और पार्वती का स्तर, यागवलक्य और भरद्वाज का स्तर, कागभूसुंडी और गरूड का स्तर। बाकी आप सभी जानते ही हैँ और मुझे फर्क बताने की जरूरत नही है।
यह कथा प्रयाग मे भी होती है ।

क्या है प्रयाग ?
प्र = अत्यंत बलशाली, झकझोर देने वाला.
याग = यग्य।
कौन सा यह यज्ञ है?
ग्यान य़ग्य।
कहाँ होता यह यज्ञ?
धर्मक्षेत्र मे?
कहाँ है धर्मक्षेत्र?
हमारे शरीर (कुम्भ) मे। फिर कुम्भ मेला मे क्या करने जाते हैं लोग यह आप सभी बहुत बेहतर तरीके से जानते हैं। यही सब तो इनका प्रपंच है।
सीता कौन है..?
प्रचलित कहावत है कि सारी रामायन पढ़ लिया लेकिन सीता कौन ये नही जान पाया। कुछ तो बात होगी इस कहावत के पीछे?
अगर आप राम सीता आदि की बातें करते हैँ तो पुनर्जन्म आपके लिये नयी वस्तु नही हो सकती है । कल्पना किजिये कि पिछले जन्म मे जब मै मरा था तो मेरा किया हुआ होगा?
जला दिया गया होगा, दफना दिया गया होगा या पानी मे बहा दिया गया होगा अथवा यूँ ही फेंक दिया गया होगा। माँ वशुंधरा ने मुझे स्वीकारा। य़ग्य हुआ। पितरों (पेड पौधे) ने मुझे धारण किया। फिर य़ग्य हुआ और मै ही पके फल, फूल,अनाज, सबजी आदि बन के शाखाओं, बेलों पर लहलहा उठा.
ऋग् वेद कहता :
पक्वाशाखा न दाशुखे.
शाखाओं पर दृश्यमान हुआ। किसी दम्पति ने फिर उन अनाजों फलों सब्जियों को ग्रहन किया। य़ग्य हुआ और मै माँ के गर्भ मे आ गया। अब मै मरूँगा तब फिर उसी मिट्टी में, अर्थात् जमीन मे चला जाऊँगा।

सीता जमीन से आती है और जमीन मे चली जाती है और राम कहाँ जाते हैं?
सरयू मे।
सरयू कहते हैं वायुमंडल को (देखें कौस्तुभ)। जीव का शरीर मिट्टी मे और प्रान (आत्मा ) वायुमंडल मे चला जाता है। यही सनातान सत्य है। जो सनातन सत्य है वही सनातान परंपरा है। उसे ही वेदों और उपनिषदों ने गाया है। मै (जीव) गया धरती मे और आत्मा राम वायुमंडल (सरयू) मे। तब जीव रूप में मै ही तो सीता हुआ। आया था आत्मा राम से विवाह (अद्वैत) करने। क्या हो सका मेरा विवाह?
नही, क्योंकि मैने पंचमी नही पूजा।
पाँच ग्यानेन्द्रियों और पाँच कर्मेन्द्रियों को नही जीत पाया।
दसों इन्द्रियों को रथ के दशरथ मार्ग का अनुशरण नहीं किया।
राम ने तो उसी क्षण धनुष भंग कर दिया जब नाल को काट के मुझे माँ से अलग किया गया और मै फिर भी जिन्दा रहा। तब आत्मा-राम ने ही तो मुझे संभाल लिया था। लेकिन राम (आत्मा) इन्तजार ही करते रहे और ता उम्र मै वरमाला न डाल सका, अद्वैत न हो सका, स्वम्यवर मे भटकता ही रहा। मेरा तत्सवितूर्वरेनियम का संकल्प पूरा नहीं हुआ।
विवाह पंचमी याद दिला रहा है हमारे जन्म के प्रयोजन को। सीता से कह रहा है कि डाल अपने राम के गले मे वरमाल, कर ले विवाह, हो जा अद्वैत, हो जा आत्मस्थ। काश इस जीवन में यह हो सके। प्रभु राम (आत्मा ) का साक्षात्कार हो सके। टूट के बाह्य से जुड़ सकूं अभ्यंतर से, अभ्यंतर मिल जाए मन से और मन अद्वैत हो जाए आत्मा से, तो हो सके मुझे आत्म (राम) दर्शन।
वानप्रस्थियों के इस महान संकल्प दिवस को कथावाचकों और गेरुआधारियों ने राम और सीता के इर्द गिर्द बांधकर सारा स्वरुप ही बिगाड़ दिया है। साधना करने की जगह भंडारा के लिए गांव गांव में गेरुआधारी प्रपंची दान मांगते घूम रहे हैं। उनके लिए विवाह पंचमी भी मनोरंजन और धन संग्रह का माध्यम बन गया है।

गायत्री सिर्फ तीन शब्द की :
“भू र्भुवः स्वः” गायत्री इतना ही मंत्र है।
“भू” आपका स्वयं का शरीर.
“र्भुवः’ ब्रह्मांड।
“स्वः’ स्वाहा।
अपने शरीर को इस ब्रह्मांड में स्वाहा करना। जाप का अर्थ है अपने एक-एक कर्म को इस ब्रह्मांड में स्वाहा कर दें। जब सभी कर्म स्वाहा हो गए, अंत में कुछ नहीं बचेगा। जब कुछ भी नहीं बचा है, ये जो कुछ भी नहीं है इसी को ब्रह्म कहते हैं।
अब आप इस तीन अक्षरों के मंत्र का जाप करके देखिए सही तरीके से।
सही तरीका क्या है?
यही बात भार्द्वाज पूछते हैँ याग्यवल्क से – राम अनेक हैँ, उनके अनेक स्वरूप हैँ जिसमे दसरथ पुत्र राम भी एक राम हैँ। इसलिए हे मुनी श्रेष्ठ, वास्तविक राम-तत्व क्या है?
साफ और स्पष्ट है कि वैदिक दर्शन में राम तत्व की बात है किसी व्यक्ति की नही।
योगिनोयं रमयंते.
जिस मे योगी रमण करते वह राम हैँ। योग तत्वग्यान के लिये ही होता है। योगी राम तत्व मे रमण करते हैं।
राम तत्व के लिये तुलसी कहते है :
“बिनु पग चलहिं सुनहि बिनु काना,
कर बिनु कर्म करहिं विधि नाना;
आनन रहित सकल रस भोगी,
बिनु वानी वक्ता बड़ योगी”।
यह दसरथ पुत्र सा कोई व्यक्ति या इतिहास पुरूष कैसे हो सकता? तुलसी ने राम कथा के विषय मे स्पष्ट किया है :
“रचि महेश निज मानस राखा,
पाय सुसमय ऊमा सन भाखा”।
जिस कथा की रचना मन मे हो वह इतिहास कैसे हो सकता है?
फिर उसके पात्र भी इतिहास पुरूष नही हो सकते?
शिव के मन मे इस कथा का निर्मान होता है । शिव ग्यानरूप (विशुद्ध ग्यान देहाय) परम कल्यानकारी हैँ। उनके द्वारा निर्मित कथा प्रानी मात्र के कल्यान के लिये है। इसको तथाकथित धर्म साम्प्रादाय आस्था जाति भाषा या क्षेत्र मे कभी भी, किसी प्रकार से भी, बांटा ही नही जा सकता है।

साफ है कि यह कथा राम तत्व की व्याख्या के लिये है। इस तत्व को बाली, जटायू सब के प्रार्थना मे साफ देखा जा सकता है तुलसी खुद ही स्पष्ट करते हैं :
“जे ब्रम्हअजमव्यकतमनुभवगम्य मन पर ध्यावहीं,
ते कहहुं जानहुं नाथ हम तव सगुन यश नित गावहीं”।।
उस अजन्मे, अव्यक्त, अनुभव से परे अगम्य का एक सगुन चरित्र बना के साधना का मार्ग प्रसस्त किया गया है, ऋषियों के इस रहस्य कथा मे। साथ ही गृहस्थ जीवन को एक सात्विक उदार रूप मे जीने का संदेश भी है। तुलसी के राम चरित मानस में समाज शास्त्र में योग शास्त्र समाहित है।
इसको और अधिक स्पष्ट करते हुए तुलसी प्रार्थना करते :-
“कामिह नारि पियारी जिमी लोभिह प्रिय जिमी दाम,
तिमी रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम”।
यहाँ राम और रघुनाथ अलग अलग हैँ। प्रार्थना रघुनाथ से की गयी है किन्तु फल के रूप मे राम की भक्ती मांगी गयी है। सगुन से निर्गुन तक पहूँचने का मार्ग है राम कथा।
इसलिये तुलसी लिखते हैँ :
“भय प्रगट कृपाला दिन दयाला कौशल्या हितकारी”
उनका जन्म नही होता, जन्म हो ही नही सकता , वे हमेशा प्रगट ही होते हैँ. और प्रगट भी अयोध्या मे ही होते हैं।
पृथ्वी पर वास्तविक अयोध्या हो ही नही सकती क्योंकि कोई ऐसी जगह नही जिसे युद्ध मे या युद्ध के द्वारा न जीता जा सके?
केबल मनुस्य के हृदय को किसी युद्ध से नही जीता जा सकता है। हृदय को ही अयोध्या कहते हैं। राम वहीं प्रगट होते हैं। इसी के नाम पर किसी जगह का नाम अयोध्या रखने से वह अयोध्या (हृदय) नही हो जायेगा, जैसे शान्तीनिकेतन कह देने से कोई घर या स्थान शान्ती का स्रोत नही बन जाता।
वह राम अयोध्या मे प्रगट होते हैँ किसी कौशल्या के हित के लिये (कौ = अनेक; शल्या = शूलों से विंधा हुआ)। जिसने धर्म के अनुपालन मे, सत्य के अनुसरन के मार्ग मे, दृढ साधना पथ मे अनेक शूल (कष्ट) सहें उसके कल्याण (हित) के लिये राम प्रगट होते – अग्निमीले पुरोहितं।
गायत्री चैतन्य मंत्र है । चेतना को हमेशा अपग्रेड करता है। गायत्री जाप जब सही तरीके से करोगे तभी समझ में आएगा कि दसरथ और दसानन तो जीवन जीने के दो मार्ग का नाम है. जिसने रथ लिया दसों इन्द्रियों को, इन्द्रिय निग्रह कर लिया वही दसरथ है। इन्द्रिय निग्रह कर के जीवन जीने का मार्ग है दसरथ। और दसों इन्द्रियों को भोग के लिये खुला छोरकर दशो दिशा मे भागते हुए जीनेवाला दसानन है। जो केबल इन्द्रिय सुख के लिए ही जीवन जी रहा है वह दसानन मार्गी है।

किसी के लिए एक कर्म धूप है, वही कर्म दूसरे के लिए छाँव का काम करता है। जीवन खट्टा और मीठा के मिलने से बनता है। सिर्फ पुण्य से मनुष्य नहीं बन सकता है। पाप और पुण्य के सही योग से मनुष्य बनता है।
देवताओं के पास सिर्फ पुण्य की बहुलता है, पूरे पुण्य नहीं हैं। उन्हें भोजन के लिए मनुष्यों पर निर्भर रहना पड़ता है। पुण्य की बहुलता का अर्थ है, वैभव पूर्ण जीवन, वैभव तो कोई खाता नहीं है। जब धरती पर मनुष्य ‘ॐ धोम स्वः” करता है तभी देवता तृप्त होते है, नहीं तो भूखे बैठे हैं।
अभी कुछ दिन पहले मैं एक आश्रम में गंगातट पर रुका था. वहाँ एक काफी उम्र के ब्राह्मण कुछ बना रहे थे। मुझे लगा कुछ मदद करूं, तो उससे कहा मेरे लिए एक गायत्री का पुरश्चरण कर दो। जो खर्चा होगा मैं दे दूंगा। ब्राह्मण है तो गायत्री स्वाभाविक उसके पास होगा ही। लेकिन वह कुछ अपने ही गुण गाने में लगा था। एक दिन हमारे पास वो एक नक्शा लाया, किसी महात्मा ने बनाकर दिया था।
एक पिरामिड बनाना है, उसके अंदर बैठकर साधना करनी है। मुझे बड़ा अजीब सा लगा, क्योंकि गंगा तट पर होना ही मनुष्य की तपस्या का प्रतिफल होता है, दूसरा उसका उम्र साठ साल से ज्यादा है | तो पचास साल से ज्यादा से तो गायत्री ही कर रहे होगे। इसका अर्थ हुआ, सब कुछ ढकोसला।
हमने उस ब्राह्मण से पूछा शब्द ब्रह्म है, वो कौन सा शब्द है जो ब्रह्म है?
उसका कोई जवाब नहीं |
जब आप गंगा तट पर खड़े है, तो पिरामिड बनाने का क्या मतलब। इसका अर्थ हुआ गंगा कुछ है ही नहीं। गंगा खुद तारिणी है, जिसके दर्शन मात्र से सभी कर्म कट जाते हैं। यहाँ तो कुछ भी करने की जरूरत नहीं है।
हम बहुत ही चालबाज लोग हैं, हमें सभी कर्म नहीं काटने हैं, हमें सिर्फ पाप काटना है। हम गंगा नहायें या नर्मदा, कावेरी या फिर गोदावरी। हमारी सोच नहीं बदलती है। हमारी दिक्कत है, न हमें कुछ ठीक से पता है, न हम कुछ ठीक से देखते हैं, न हम कुछ ठीक से सुनते हैं, न ही हम ठीक से कुछ समझते हैं।एक बात को लेकर पक्की धारणा बन जाती है, दो दिन बाद लगता ये तो ऐसा नहीं है।
कई चीजें आज ठीक से समझ ली जाती हैं, कल कोई आता है सब कुछ उलटा हो जाता है। ये बदलाओ जिंदगी नहीं है, जिंदगी है स्थिरता। स्थिरता तब तक जीवन में आ ही नहीं सकती है, जब तक अंदर की आँख पूरे तौर से न खुल जाए। दो घंटे के सत्संग के बाद पंडित ने पिरामिड का नक्शा फाड़कर चूल्हे में डाल दिया। हमने उनसे कहा तुम चेतना मंत्र कर लो। उसने पूछा ये क्या होता है ?
ये अंधेरे में टॉर्च का काम करता है। चेतना मंत्र इंद्रियों को पूर्ण चैतन्य करने का मंत्र है। जब तक इंद्रियाँ चैतन्य नहीं होती हैं तब तक किसी मंत्र या जाप करने का कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि मंत्र जाप भी तो इंद्रियों से ही होना है।

कुल्हाड़ी में यदि धार ही नहीं है तो काटोगे क्या और कैसे ?
मंत्र जाप होंठ, जिह्वा, कंठ और हृदय का समन्वय है। गायत्री चैतन्य मंत्र भी है और चेतना मंत्र भी। हालांकि चेतना मंत्र अलग होता है। लेकिन तुमसे कुछ न हो पाएगा। अब पंडित जी पीछे पड़े हैं चेतना मंत्र दे दो।
मतलब हर जगह नौटंकी का काम चल रहा है।
एक लड़का है। आजकल बहुत बड़ा बाबा हो गया है। उसका एक टीवी इंटरव्यू दिख गया। उसमें बन्दे ने दावा किया कि उसके तथाकथित सिद्धि उसके दादागुरू के कारण है। उसका कहना था कि उसके दादा गुरू ने सवा करोड़ हनुमान चालीसा जाप करके हनुमान जी को प्रगट कर लिया।
मेरा माथा इस बात पर ठनका। हनुमान चालीसा कोई कितना भी तेज पाठ करे कम से कम ढाई मिनट लगेगा। आप खुद ट्राय करके देख लीजिए।मतलब सवा करोड़ हनुमान चालीसा पाठ करने में समय लगेगा.
12500000 X 2.5 = 31258000 मिनट
= 520833.3333 घंटे
= 21701.388888 दिन
= 59.4558599 वर्ष
मान लीजिए साठ वर्ष।
एक गृहस्थ आदमी अधिक से अधिक आठ घंटे जाप कर सकता है।
इस प्रकार उसको सवा करोड़ हनुमान चालीसा पाठ करने में लगभग 178.4558599 वर्ष की उम्र चाहिए।
मतलब लगभग 178 वर्ष 6 महीना। अब इस नौटंकी मास्टर को आप क्या कहेंगे?

Add comment

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें