अग्नि आलोक
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वैदिक दर्शन : स्त्री अग्नि, योनि ज्वाला, मैथुन अंगार का व्यापार

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डॉ. विकास मानव

सदा तीर्थ जल में स्नान करने वाले मुक्ति नहीं पाते। उपवास करने या मात्र साँस लेने से भी भगवत्प्राप्ति नहीं होती। वृक्ष के पत्ते खाने यानी शाकाहार से भी भगवान् नहीं मिलते। पर्वत की गुफा में रहने/एकान्तवास से भी ईश्वर नहीं मिलता। शरीर पर भस्म लगाने से भी आत्मलाभ नहीं होता। ध्यान करने से परमात्मा की प्राप्ति संभव नहीं। क्योंकि :
मीनः स्नानरतः फणीपवन भुक् मेषस्तु पर्णाशनो।
निराशी खलु चातक; प्रतिदिनं शेते बिले मूषकः।
भस्मोद्धूलन तत्परो मनु खरो, ध्यानाधिरूढो बकः।
सर्वे किन हि यान्ति, मोक्षपदवी भक्तिप्रधानं तपः॥
मछली पवित्र नदियों के जल का सेवन करती है। सर्प वायु का सेवन/प्राणयाम करता है। मेष शाकाहारी ही रहता है। चातक उपवास करता है। चूहा बिल में रहता है। गधा भस्म में लोटता है। बगुला ध्यान करता है। ये मोक्ष पद से वञ्चित रहते हैं।
फिर मोक्ष/परम-आनन्द मिलता है कैसे है? फल की कामना, अहंतुष्टि की भावना, दिखावे से रहित सेवा/परोपकार करने से. सम्भोग-साधना द्वारा अर्धनारीश्वर यानी अद्वैत का स्तर पाने से. आत्म-साधना द्वारा स्व-साक्षात्कार करने से.

वेद में शुक्र/वीर्य को अग्नि कहा गया है। अग्नि परमात्मा का वाचक है। अतः शुक्र ब्रह्म है।
शुक्रं हि ब्रह्म।
~शतपथ ब्रा. (८। २ । ३ । १३)
शुक्र धन है।
शुक्रं हिरण्यम्।
~तैत्तिरीयउपनिषद (१।७।६।६)

‘व एष सुप्तेषु जागर्ति कामं कामं पुरुषो निर्मिमाणः।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते।
तस्मिन् लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन। एतद् वै तत्।
~कठोपनिषद् (२ । २ । ८)

इन्द्रिय-समूह का नाम शुक्र/वीर्य/तेज/ओज है।
स्वप्नेन शारीरमभिहत्या सुप्तः सुप्तानभिचाकशीति।
शुक्रमादाय पुनरैति स्थान हिरण्यमयः पुरुष एक हंसः।।
~बृहदारण्यकोपनिषद् (४ । ३ । ११)

शुक्र (वीर्य) का पर्यायवाची है भृगु। भृगु, वरुण पुत्र है। वरुण यानी जलदेवता। इसलिये शुक्र जलीय/अशुष्क/लावण्मय है।
भृगुर्वैं वारुणिः। वरुणं पितरमुपससार अधीहि भगवो ब्रह्मेति।
~तैत्तिरीयोपनिषद् (भृगुवाली प्रथम अनुवाक।)
जल रसतन्मात्र से है। पुरुष का रस शुक्र (वीर्य) है।
एषां वै भूतानां पृथिवी रसः पृथिव्या आपोऽपामोषधयः ओषधीनां पुष्पाणि, पुष्पाणां फलानि फलाना पुरुषः, पुरुषस्य रेतः।
~ बृहदारण्यक उपनिषद (६ । ४ । १)
भूतों का रस पृथ्वी है। पृथिवी का रस जल है। जल का रस औषधियाँ हैं। औषधियों का रस पुष्प है। पुष्प का रस फल है। फल (अन्न) का रस पुरुष है। पुरुष का रस रेत (वीर्य) है।

शुक्र के दो रूप हैं :
१. रेत
२. रज
रेत पुरुष में होता है। रज स्त्री में होता है। रेत में तेज होता है। रज में ज्योति होती है।
रेत के कारण पुरुष तेजस्वी होता है। रज के कारण स्त्री ज्योतिर्मयी होती है। शुक्र (वीर्य) का रज (अण्ड) से मिलने पर प्रजा की उत्पत्ति होती है।
पुरुषो वा अग्नि अग्नी देवा अन्नं जुहुति तस्या आत सम्भवति।
~बृहदारण्यक उपनिषद (६ । २ । १२)
स्त्री अग्नि है। उपस्थ उसकी समिध् है। लोभ धूम है। योनि ज्वाला है. योनि के अंदर लिंग से जो किया जाता है वह मैथुन व्यापार अंगार है। आनन्दलेश स्फुलिंग हैं। उस अग्नि में देवगण वीर्य होमते हैं। उस आहुति से फल उत्पन्न होता है।
योषा वा अग्निः। तस्या उपस्थ एवं समिध्।
लोमानि धूमो, योनिरचिर्यदन्तः करोति ते ऽङ्गारा, अभिनन्दा विस्फुलिंगास्तस्मिन्।
एतस्मिन् अग्नौ देवा रेतो जुह्वति।
तस्या आहुत्यै पुरुषः सम्भवति।
स जीवति। यावज्जीवत्यथ यदा म्रियते।
~बृहदारण्यक उपनिषद (६ । २ । १३)

शिश्नस्थ वीर्य जल रूप ही होता है. यह अमृत है, अगर दोषमुक्त है.
आपो रेतो भूत्वा शिश्नं प्राविशन्.
‘आत्मना विन्दते वीर्यं, विद्यया विन्दतेऽमृतम्.
~केनोपनिषद् (खड २, मंत्र ४)

स्वयं के प्रयत्न से, यम नियमादि तथा आरोग्यवर्धक औषधियों से सामर्थ्य की प्राप्ति होती है। सामर्थ्यहीन व्यक्ति को कुछ भी लब्धि नहीं होती.
नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः।
~मुण्डकोपनिषद् (३ । २ । ४]

वीर्यवान् विद्या का, स्त्रीतुष्टि का, मोक्ष का अधिकारी होता है। इस से अमृत की, निरवच्छिन्न आनन्द की प्राप्ति होती है। समझशील व्यक्ति शुक्र का क्षयन रोकता है। ऊर्ध्वरेता बनता है।
शुक्र लोकश्रुत वीर्य है। वीर्य जलावयवी है। जल सदृश इसकी स्वाभाविक गति नीचे की ओर है। द्रवावस्था में वीर्य स्खलित होकर नीचे गिरता है। जब वीर्य का क्षरण नहीं होता, उसकी मात्रा अधिक होती है तो यह गाढ़ा होकर जमने लगता है। इस अवस्था में यह स्खलित होता ही नहीं। तप के प्रभाव से जब द्रवरूप वीर्य का वाष्पन होता है तो यह वायु रूप होकर ऊपर उठता है। ऊर्ध्वगामी वीर्य सूक्ष्म वात रूप से ब्रह्माण्ड (कपाल) में छा जाता है। शुक्र की इस अवस्था को प्राप्त हुआ पुरुष सत्यरूप होता है।
शुक्र का ऊर्ध्व गमन ब्रह्मचर्य है। ऊपर कपाल वा शिर है। शिर मेष है। कपाल अर्थात् मस्तिष्क विचार का उत्स है। इसलिये यह ब्राह्मण (ब्रह्म में विचरण करने वाला) है। शरीर के समस्त अंगों में सिर सबसे भारी होता है।
पानी में बहते हुए शव को देखें तो सिर डूबा रहता तथा अन्य अंग ऊपर तैरते हुए दिखायी देते हैं। भारी होने से सिर गुरु या ब्रह्म है। वातरूप होकर शुक्र का इसमें प्रवेश कराना या स्त्रीत्वयुक्त स्त्री को शिखर देने के लिए उसकी योनि में इसे प्रवाहित करना ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मे चरति इति ब्रह्मचर्य।
जिसका शुक्र ऊर्ध्व गमन करता है वह ब्रह्मचारी है। ब्रह्म में ब्रह्म का ही चारण होता है। अतएव शुक्र ब्रह्मरूप है।
ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाखा एषोऽश्वत्थः सनातनः। तदेवशुक्रं तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते। तस्मिल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन। एतद्वै तत्।’
~कठोपनिषद् (२।३।१)

शुक्र का मूल ऊपर है। ऊपर कपाल है। कपाल में मस्तिष्क है। मस्तिष्क में विचार है। विचार में स्मर (काम) है। काम (सम्भोग) से शरीर का मंथन होता है। इससे वीर्य उत्पन्न होता है। यह गाढ़ा द्रव बनकर नीचे आता है। शुक्र की शाखा नीचे है। नीचे शिश्न है। शाखा का पोषण मूल से होता है। शिश्न विचार से नियंत्रित होता है। इसलिये शिश्न का मूल शिर में तक है। यह नीचे की ओर लटकता रहता है। अतः यह अवाक्शाखा है। अतः जैसा शिर वैसा शिश्न। दोनों आमने-सामने हैं।
शिश्न उपस्थ है। शिश्न स्त्री-पुरुष दोनों में होता है। स्त्रियों में बाह्यतः दृश्य नहीं होता। फलतः स्त्री में पुरुष शिश्न के प्रति लोलुपता बढ़ती है। स्वस्थ शुक्र और रज सुख का जनक है।
तत उपरिष्टात् उशना द्विलक्षयोजनत उपलभ्यते।
पुरुतः पश्चात् सहैव वार्कस्य शैध्यमान्यसाम्याभिः
गतिभिः अर्कवच्चरति।
लोकानां नित्यदानुकूल एव प्रायेण वर्षयंश्चारेणानुमीयते स वृष्टिविष्टम्भग्रहोपशमनः।
~श्रीमद्भागवत महापुराण (५। २२ । १२)

स्वस्थ वीर्य/रज सौन्दर्यदाता भी है. अदूषित बलिष्ठ शुक्र पुरुष को रूपवान्- आजानु बाहु विशाल वक्ष, भव्य ललाट एवं दीर्घ नेत्र देता है। स्त्री को यह भी रूपवती बनाता है। शुक्र और रज दोनों का दीर्घकालिक मंथन युगल को आनंद का शिखर देता है.
दीर्घ, कृष्ण, घन, स्निग्ध कोमल केश; आयताकार प्रफुल्ल नयन, तुंग नासिका, प्रवाल ओष्ठ, चारु कपोल, मधुर कण्ठ, पीन उन्नत सघन वर्तुल श्रीफलवत् दुग्ध कलश (स्तन-कुच) देता है। इसी से नारी को दृढ़ लोच्य कृश मुष्टिकायत कटि {कमर) मिलती है। यही उसे बृहद् पृथुल ऊर्ध्वोद्धत पुष्ट गुरुतर मेरु (श्रोणि) प्रदान करता है। यही उसे रक्ताभ कमलवत् कोमल पाद देकर कमनीय बनाता है। नारी के ऐसे सौन्दर्य पर पुरुष शलभ मँडराता है, श्रेय से स्खलित होता है। सुन्दरी सब को श्रेय है। कोई-कोई ही इससे बच पाता है।
दीप सिखा सम जुवतितन, मन जसि होहु पतंग|
भजहु राम तजि काम मद, करहु सदा सतसंग॥
~रा.च.मा. (अरण्य काण्ड)
शुक्र कन्दर्प है, काम है। इसके वशीभूत भी है। यह सबको अपनी ओर खींचता है।
कामिहि नारि पियारि जिमि लोभिहि प्रिय जिमिदाम।
तिमि रघुनाथ निरन्तर प्रिय लागहुँ मोहि रामII
~ रा.च. मा. (उत्तर काण्ड)

विलासिता, सौन्दर्य प्रियता, लम्पटता, ठाटबाट प्रियता विषयमग्नता, कला कुशलता, काव्य कारिता, उच्चाभिलाषिता, ऐन्द्रियता शुक्र-रज जन्य है। रागात्मकता शुक्र का प्रधान गुण है यह रजोगुणी है। रजोगुण से व्यक्तिता है।
कृष्ण कहते हैं :
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासंगसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय, कर्म संगेन देहिनम्।
~भागवत गीता (१४।७)
शुक्र की दुस्थिति वा निर्बलता से देह कांतिरहित होता है. दुराचारी स्त्री के समागम से शोष, भोग में पीडा, शीघ्र पतन, यौन रोग, मूत्र कृच्छ्र होता है। इसकी मारक दशा में स्त्री से भय, योगिनी यक्षिणी एवं मातृकाओं से भय होता है। असुर भय, मैत्री भंग वायु कफ व्याधि, शोक-मोह इसके नेष्ट फल हैं। वीर्य जनित रोग जो स्त्री संबंध से हो, के द्वारा तीर्थ स्थान में यह मृत्यु देता है।
ऐसे ही फल दुराचारी, रोगी पुरुष से संसर्ग करने वाली स्त्री को भी मिलते हैं.

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