*-अन्ना दुराई*
ये क्या हो गया है मेरे शहर को। एक अजीब सी खामोशी है। संवेदनाएँ खत्म सी हो गई है। कोई मरता हो तो मरे, कल मरता हो तो आज मरे। हालात ऐसे हो गए हैं कि अपना अच्छा बुरा समझने की शक्ति भी मानों शरीर से छिन गई है। चाहे कितने से कितना भी गलत हो जाए, आदमी बस इतने से में खुश है कि वह जिंदा है। जीते जी वह पल पल मर रहा है, इससे कोई लेना देना नहीं। क्या हो रहा है, कैसे हो रहा है, क्यों हो रहा है। क्या सही, क्या गलत, वाकई आजकल कुछ फर्क नहीं पड़ता। कभी कभी मन कसमसाता है, उद्वेलित होता है तो वह भय और आतंक के कारण अपनी अभिव्यक्ति तक नहीं कर पाता। जिन नेताओं का फैसला वह करता है, उन नेताओं के फैसले को पलटने का साहस तक नहीं जुटा पाता। हम अपना नेता चुनते हैं। उन्हें अपने सर आँखों पर बिठाते हैं। अपनी आँखों का तारा बनाते हैं। अंगरक्षकों के बीच से हमें झांक भर ले तो मारे खुशी के झूम उठते हैं। वही नेता चुन चुनकर हमें हर मोड़ पर परेशानी देते हैं, लेकिन हम कुछ नहीं कर पाते।
बात यूनियन कार्बाइड के जहरीले कचरे की हो या रोज़मर्रा के जीवन में आने वाली अन्य समस्याओं की। हम हर मोड़ पर जानते बिनते भी मनमानी और भ्रष्टाचार को सहन करते हैं। नेता हमें जहर को अमृत बता दे, हम मान लेते हैं। रिश्वत देकर काम कराते हैं और खुश हो लेते हैं। एक दूसरे को गाली देकर मन हल्का कर लेते हैं लेकिन नेताओं को उनकी गलतियों पर रोकना तो दूर कोस तक नहीं पाते। कोई बड़ा गेम है, यह जानते हुए भी शेम नहीं करते। सही को सही और गलत को गलत कहने की ताकत जुटाना होगी। नेताओं के पैदा किए गए भय से आशंकित होने की बजाय नेताओं में भय पैदा करना होगा कि वे कुछ भी गलत करने से डरें। काम ऐसे हों जो जनता के हितों से जुड़े हों। रही बात प्रशासन की तो वे भी आजकल जन सामान्य के मंगल, चैन और सुकून के लिए भगवान भरोसे ही है। इंतजार है, जब जनता अपने हक के लिए आवाज बुलंद करते हुए लोकतंत्र के असली माई बाप के कथन को चरितार्थ करेगी। यह पंक्तियाँ यहाँ लाज़मी है….
कुछ न कहने से भी
छिन जाता है एजाज़-ए-सुख़न,
जुल्म सहने से भी
जालिम की मदद होती है….
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