अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

मूर्च्छा तोड़ो, जागो 

Share

      अनामिका, प्रयागराज 

आदमी मूर्च्छा में ‘जो नहीं है’ वैसा देखने लगता है। इसे उलटा करके समझो। इसको कसौटी समझो मूर्च्छित होने की: अगर तुम्हें जो नहीं है, वैसा दिखाई पड़ता हो तो समझो कि तुम मूर्च्छित हो। 

    रात तुम्हें सपना दिखाई पड़ता है, यह सबूत है कि तुम मूर्च्छित हो। बुद्धपुरुषों को सपना नहीं दिखाई पड़ता। जिसको रात सपना दिखाई पड़ता है, दिन में वह कोई दूसरा थोड़े ही हो जाएगा। है तो वही का वही। भीतर तो सपने बहते ही रहेंगे। दिन में भी तुम्हें कुछ का कुछ दिखाई पड़ता है।

    एक राह से तुम गुजरते हो, एक मकान तुम्हें दिखाई पड़ता है बहुत सुंदर, मन होता है खरीद लें, अपना हो। मगर यह मकान इतना सुंदर है, या कि तुम्हारी तृष्णा के कारण दिखाई पड़ रहा है? जिस दिन तुम्हारे भीतर तृष्णा न रहेगी, क्या उस दिन यह मकान इतना सुंदर दिखाई पड़ेगा?

    ऐसे मकान के पास से बुद्ध गुजरेंगे, उनकी नजर जाएगी इस मकान पर? यह मकान में सौंदर्य है, या तुम्हारी तृष्णा इस मकान को सुंदर बना रही है?

   एक स्त्री तुम्हें सुंदर दिखाई पड़ती है। इस स्त्री में सौंदर्य है, या तुम्हारी वासना तुम्हें सौंदर्य दिखा रही है? यही बात स्त्रियों पर भी लागू होती है पुरुषों के संबंध में. बुद्ध गुजरेंगे तो उन्हें तो सौंदर्य दिखाई नहीं पड़ेगा। 

     तुम्हें जब किसी आदमी में कुरूपता दिखाई पड़ती है, तो कुरूपता वहां है, या यह भी तुम्हारा प्रक्षेपण है? एक आदमी बैठा है राह के किनारे, कोढ़ी, शरीर गला हुआ, बदबू निकल रही है। तुम नाक बंद करके दूसरी तरफ मुंह फेर कर एकदम तेजी से निकल जाते हो–इतना कुरूप आदमी! लेकिन यह आदमी कुरूप है, या यह भी तुम्हारा प्रक्षेपण है? 

   यह तुम्हारा भय है। तुम डरते हो कि कहीं किसी दिन ऐसी मेरी हालत न हो जाए। उसी भय के कारण तुम भाग रहे हो।

    जो तुम चाहते हो मुझे मिले, वह सुंदर दिखाई पड़ता है। और जो तुम चाहते हो कभी मुझे न मिले, कभी ऐसा न हो मुझे, वह तुम्हें कुरूप दिखाई पड़ने लगता है।

     कुरूप और सौंदर्य वस्तुओं में नहीं होते–तुम्हारी तृष्णाओं में, तुम्हारी धारणाओं में, तुम्हारे भयों में, तुम्हारी कामनाओं में छिपे होते हैं।

     जिस दिन किसी व्यक्ति की मूर्च्छा टूट जाती है: न कुछ सुंदर है न कुछ असुंदर है। बस वैसा ही है जैसा है। कुछ कहने का अर्थ ही नहीं होता। ये वृक्ष वृक्ष हैं। आदमी आदमी हैं। स्त्रियां स्त्रियां हैं। पत्थर पत्थर हैं। नदियां नदियां हैं। जो जैसा है वैसा है। तुम्हारी कोई धारणा नहीं बनती।

       जागा हुआ आदमी गुजर जाता है, उसकी कोई धारणा नहीं होती। उसे सब जैसा होना चाहिए वैसा है। चूंकि उसके भीतर कोई आकांक्षा नहीं है कि यह मुझे मिले और ऐसी भी कोई आकांक्षा नहीं है कि मिल जाए तो मेरा दुर्भाग्य होगा, इसलिए कोई धारणा सिर नहीं उठाती। उसके भीतर कोई सपना नहीं पैदा होता। जिस दिन जो है वैसा ही तुम्हें दिखाई पड़ने लगे, उस दिन जानना कि जागरण हुआ है।

Recent posts

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें