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अमानुष मानुष : मुर्गे-मुर्गियों को कटते हुए देखें

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       पुष्पा गुप्ता 

    गाँव देहात के मुर्गी फार्म में बाहर के फर्म से चूजे मंगाए जाते हैं। ये चूजे बन्द कार्टन में भर कर आते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे फल, मिठाई, कपड़े आदि एक जगह से दूसरे जगह ले जाये जाते हैं। अंतर बस इतना है इस कार्टन में जीवित बच्चे पैक किये जाते हैं।

     मुर्गी फर्म में डालने के पहले इन चूजों की चोंच काट दी जाती है। जानते हैं क्यों? मुर्गियों की चोंच नुकीली होती है। फर्म में थोड़ी सी जगह में ही ढेरों मुर्गियों को रहना होता है।

     जगह इतनी कम होती है कि एक पर एक चढ़ी हुई मुर्गियां अपना मुंह हिलाएं तो भी एक दूसरे को नोच देंगी। तो इससे बचने के लिए उनकी चोंच की नोक ही काट दो… कितना सुंदर तरीका है न?

     फार्म वाले का लक्ष्य होता है कि पाँच छह सप्ताह में मुर्गी डेढ़ किलो की हो जाय। यह प्राकृतिक रूप से सम्भव नहीं होता। डेढ़ किलो का होने में देशी मुर्गी को लगभग दो वर्ष लगते हैं। पर मुर्गी फार्म वाले के पास इतना समय नहीं होता न… तो वह ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करता है कि मुर्गियां लगातार खाती रहें।

     अगर आप कभी रात के समय मुर्गीफार्म के आसपास से गुजरे तो देखेंगे, वहाँ लाल रंग की तेज रौशनी चमक रही होती है। यह तेज रौशनी फर्म की मुर्गियों को सोने नहीं देती… वे लगातार दाना चुगती रहती हैं। आप सोच कर देखिये, किसी जीवित प्राणी से उसकी नींद छीन लेना कितना पीड़ादायक होगा! अधिकांश मुर्गियों की आंखें इसी दौरान पूरी तरह खराब हो जाती हैं।

     चार से पाँच सप्ताह की होते होते मुर्गियों का वजन एक किलो के आसपास हो जाता है। अब फर्म में इतनी भी जगह नहीं होती कि मुर्गियां उछल भी सकें। एक दूसरे पर चढ़ी हुई, दबी हुई मुर्गियों का जीवन नर्क से भी बदतर होता है।

     ठसाठस भर चुके फर्म की अब सफाई भी सम्भव नहीं होती, सो मुर्गियां अपने ही मलमूत्र पर बैठती हैं और धीरे धीरे मल को भी खाने लगती हैं। आप यदि फर्म की मुर्गियों को देख लें तो शायद ही अपनी उल्टी रोक सकें.

      इसी समय मुर्गीफार्म में बीमारी फैलती है। सामान्यतः लोग समझते हैं कि मुर्गियों में वायरल बीमारियां फैलती हैं, पर सच अलग है। अधिकांश मुर्गियां गंदगी के कारण, अपना ही मलमूत्र खाने के बीमार होती हैं।

      खैर! धीरे धीरे छह सप्ताह बीतते हैं और उनकी मुक्ति का दिन आ जाता है। एक दिन उन्हें फर्म से निकाल कर एक दूसरे दबड़े में भरा जाता है और कसाई की दुकान पर पहुँचा दिया जाता है।

    यह पहला मौका होता है जब मुर्गी अपने फर्म की के बदबूदार माहौल से बाहर खुली हवा में सांस ले पाती है। पर यह मृत्यु से ठीक पहले की स्थिति है साहब.

       गाँव देहात के फर्म से कसाई खुद मुर्गियों को ले आता है। जानते हैं कैसे? मोटरसाइकिल के पीछे एक लाठी बांध दी जाती है और उस लाठी में मुर्गियों के पैर बांध कर उन्हें उल्टा लटका दिया जाता है।

    कसाई उसी तरह उल्टा लटका कर उन्हें दस बीस किलोमीटर दूर अपने दुकान तक ले आता है। दुकान तक पहुँचते पहुँचते उल्टा लटकी मुर्गियों के मुँह से खून टपकने लगता है। कुछ मुर्गियां मर भी जाती हैं। जो मर जाती हैं उन्हें पहले काट दिया जाता है और दस बीस रुपये सस्ते में बिक जाता है मांस!

     हमारे आपके जैसे सामान्य लोग जो मुर्गियों को कटते देख कर द्रवित हो जाते हैं न! यकीन कीजिये, उनका जीवन उनकी मृत्यु से हजार गुना अधिक कष्टप्रद होता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक हर क्षण मर्मान्तक पीड़ा से भरा होता है। जीवन के संघर्ष और स्वाद के लोभ में मनुष्य पहले भी क्रूर था, पर इतना नहीं.

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