अनिल सिन्हा
लंदन से अफ्रीका जाते समय गांधी जी ने किलडोनान कैसल नामक स्टीमर पर सिर्फ उन्नीस दिनों में अपनी मशहूर पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ लिख ली थी। किताब पूरी करने के दो दिन बाद यानि चौबीस नवंबर 1909 में उन्होंने अपने भतीजे मगनलाल गांधी को लिखे खत में कहा था, ‘‘मैं चाहता हूं कि मेरा नाम भुला दिए जाए, लेकिन मेरे कार्यो को याद रखा जाए। कार्य तभी याद रखे जा सकते हैं जब नाम भुला दिए जाए।’’
गांधी जी के साथ ठीक इसका उलटा हुआ। उनका नाम तो लोगों को याद रहा और ऐसा लगता है कि सदियों तक याद रहेगा, लेकिन उनके काम और विचार पूरी तरह भुला दिए गए हैं। लोग ज्यादातर महान हस्तियों के साथ ऐसा ही करते हैं। हम भारतीय तो इसमें बाकी दुनिया से बहुत आगे हैं। मूर्तियां और मंदिर बनाने में हमसे कोई मुकाबला नहीं कर सकता है। विचार को दफनाने का इससे बेहतर और कोई तरीका नहीं है।
पिछले सप्ताह की बात है। मुंबई के एक उपनगरीय स्कूल में छोटी बच्चियों के साथ यौन अत्याचार के आरोपी अक्षय शिंदे को कोर्ट ले जाते समय पुलिस वैन में मार दिया गया। पुलिस ने पुरानी घिसी-पिटी कहानी दोहरा दी कि उसने पुलिस वालों की रिवाल्वर छीन ली थी और उन्हें मारने की कोशिश करने लगा था। बस आत्मरक्षा में पुलिस ने उसे वहीं ढेर कर दिया। इस मुठभेड़ पर मुंबई हाईकोर्ट ने ऐसे सवाल उठाए हैं कि इसे फर्जी मानने के अलावा कोई रास्ता नहीं है।
यह शक तब और भी गहरा हो गया जब लोगों ने दूसरे दिन ही मुठभेड़ का श्रेय महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री और भाजपा नेता देवेंद्र फडणवीस को देने वाले पोस्टर लगाए गए। ये पोस्टर अश्लील ही कहे जा सकते हैं। इनमें देवेंद्र फडणवीस के हाथ में पिस्तौल है और राइफल से निशाना साधने जैसी तस्वीरें हैं। यह समझना मुश्किल नहीं है कि राज्य में चुनाव आने वाले हैं और इस घटना का राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश की जा रही है।
लेकिन बात सत्ताधारी पार्टी की मानसिकता और अवसरवाद तक सीमित नहीं है। यह निश्चित तौर पर गहरी चिंता की बात है कि सत्ताधारी पार्टी कानून को ताक पर रख कर न्यायिक हिरासत में रखे व्यक्ति की हत्या की तरफदारी कर रहा है। लेकिन इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि अक्षय शिंदे को तुरत फांसी देने की मांग स्थानीय जनता ने की थी। अबोध बच्चियों के साथ हुई घटना को लेकर लोगों का गुस्सा होना पूरी तरह वाजिब है, लेकिन फांसी की मांग समाज में हिंसा को मिलते समर्थन को दिखाता है।
हमने देखा था कि दिल्ली में हुए निर्भया कांड के समय भी ऐसी ही मांगें हो रही थीं। लेकिन मनमोहन सिंह सरकार ने संवेदनशीलता दिखाई और कानून के राज को बहाल रखा। उसने भीड़ को जज बनने से रोका। बड़ी बहस और विचार-मंथन के बाद कानून में कई जरूरी बदलाव किए। मौजूदा सरकार से ऐसी संवेदनशीलता की कोई उम्मीद नही की जा सकती है।
बिना अदालती प्रकिया के सजा देने की मांग संविधान के खिलाफ तो है ही, यह नैसर्गिक न्याय के भी खिलाफ है। पुलिसिया जांच में तेजी तथा न्याय प्रक्रिया जल्द पूरी करने की मांग बिलकुल जायज है, लेकिन कानूनी प्रकिया के बगैर ही सजा देने का अर्थ यही है कि लोकतंत्र को पूरी तरह से बीमार बना दिया गया है। यह कानून के राज के खत्म होने के संकेत हैं। लोगों का गुस्सा स्कूल के व्यवस्थापकों, पुलिस की ढिलाई और राज्य सरकार के खिलाफ ज्यादा होना चाहिए। इसके बजाय उनका सारा गुस्सा आरोपी पर ही टिक गया। इससे मामले से जुड़े सारे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोषियों से लोगों की नजर हट गई।
सच्चे लोकतंत्र में अपराधी के मानवीय अधिकारों के साथ खिलवाड़ नहीं होता है। आरोपी को फांसी लटकाए जाने की मांग फासीवाद का लक्षण है। यह नही भूलना चाहिए कि फासीवाद सिर्फ सत्ताधारी की इच्छा से नहीं आता है, जनता के बीच इसकी स्वीकार्यता भी जरूरी है। इन मांगों से इसके प्रति सहमति जाहिर होती है। उत्तर प्रदेश में तो बुलडोजर का न्याय और फर्जी मुठभेड़ को लोगों ने करीब करीब स्वीकार कर लिया है। हद तो तब हो गई जब अतीक अहमद और अशरफ को पुलिस की हिरासत में गोली से उड़ा दिया गया और पूरे मीडिया ने इस जघन्य अपराध को उचित ठहराने की कोशिश की।
फर्जी मुठभेड़ न्याय की सारी प्रक्रियाओं को खत्म करने और मध्ययुगीन न्याय को स्थापित करने वाली कार्रवाई है। इसमें अपराधियों के आत्मसमर्पण, उसके सुधरने आदि की सारी संभावनाओं पर विराम लगा दिया जाता है। देश के मध्य वर्ग का बड़ा हिस्सा और मीडिया ऐसी मुठभेड़ों का पक्षधर बन गया है।
बुलडोजर न्याय भी फर्जी मुठभेड़ से ही मिलती-जुलती चीज है। इसमें भी अपराध सिद्ध होने के पहले ही घर-मकान गिरा दिए जाते हैं। कई मायनों में यह फर्जी मुठभेड़ से भी ज्यादा वहशियाना है। अपराधी को दंड देने के बदले उसके मां-बाप, रिश्तेदार सभी को सजा दी जाती है। इस सजा के बाद न्याय की प्रक्रिया का क्या अर्थ रह जाता है? अपराधी बरी हो या नहीं, उसे सजा मिल चुकी होती है।
फर्जी मुठभेड़ और बुलडोजर न्याय नफरत के राज के लक्षण हैं। इसे संघ परिवार की उसी राजनीति के हिस्से के रूप में ही देखना चाहिए जिसके जरिए मॉब लिंचिंग और धर्म स्थलों पर हमले का माहौल तैयार किया जाता है। हर धार्मिक उत्सव को नफरती शक्ल दी जाती है और हर धार्मिक जुलूस को हमलावर जत्थे में बदलने की कोशिश की जाती है।
लेकिन क्या यह स्थिति गांधी के देश में कानून के राज और लोकतंत्र के भविष्य को लेकर आम बुद्धिजीवी को चिंतित करता है? इसका उत्तर नकारात्मक ही है। यही नहीं, हमने दुनिया में गांधी के वारिस की अपनी छवि बनाए रखने की कोशिश भी छोड़ दी है। इजरायल ने गाजा पट्टी में वीभत्स नरसंहार किए। इजरायली सेना ने बूढे, बीमार, औरतों और बच्चों को भी नहीं छोड़ा और हमास को खत्म करने के नाम पर पूरे मध्यपूर्व में कहर ढा रखा है।
इजरायल के लोग इसका विरोध कर रहे हैं। लेकिन भारत सरकार और भारतीय मीडिया का रवैया इजरायली सरकार और सेना के प्रति नरमी का है। एक तरह के समर्थन का ही है। रूस-यूक्रेन युद्ध में भी हमारा ढुलमुल रवैया ही सामने आया है। हमारे इस व्यवहार के पीछे का कारण विचारों के स्तर पर हमारा पतन है। गांधी के हत्यारे गोडसे और उनकी हत्या की साजिश के आरोपी विनायक दामोदर सावरकर के पक्ष में बयानबाजी और बहस इस पतन के सबूत हैं।
सत्य, अहिंसा, लोकतंत्र और सहिष्णुता के नए आयामों, और समाज तथा राजनीति में इनके उपयोग पर बहस के बदले हम इसकी चर्चा में उलझे हैं कि गोडसे ने गांधी को क्यों मारा। पत्रकारिता, साहित्य या अकादमिक जगत में इस पतन के खिलाफ उठने वाले स्वर अत्यंत कमजोर हैं। सच पूछिए तो गांधी का बस नाम भर रह गया है। उनके विचारें को किसी धूल में लिपटी थैली के भीतर बंद कर दिया गया है।