आज गांधी नहीं हैं, लेकिन अविनाश है. गांधी विचारों में जिन्दा हैं, अविनाश हमारे बीच मौजूद हैं. गांधी के इस देश में हम गांधी को नहीं बचा पाये, सवाल है क्या हम अविनाश और उनके 21 साथियों को बचा पायेंगें ? गांधी न केवल अंग्रेजों के खिलाफ लड़े थे बल्कि उसने मजदूरों के साथ मिलकर मिल मालिकों के अन्यायपूर्ण वेतन कटौती के सवाल पर भी लड़े थे और जीत हासिल की थी.
गांधी तब मिल मालिकों के खिलाफ लड़े थे, अविनाश आज आईजीआईएमएस में करोड़ों का लूट खसोट करने वाले मनीष मंडल और उसके माफिया गिरोह के खिलाफ लड़ रहे हैं. गांधी तब मजदूरों के हक के लिए लड़ रहे थे, अविनाश आज आऊटसोर्सिंग जैसी बंधुआ मजदूर के हक के लिए लड़ रहे हैं. गांधी तब गुजरात में लड़ रहे थे, अविनाश आज आईजीआईएमएस में लड़ रहे हैं.
इतिहास बताता है कि दक्षिण अफ्रीका से लौटे मोहनदास करमचंद गांधी ने गुजरात को अपना बेस बनाया. प्रमुखतः अहमदाबाद में रहे. शहर में 51 कपड़ा मिलें थी और इनके मालिक गांधी के मुरीद. आश्रम बनाने चलाने के लिए दिल खोलकर दान दिया.
और गांधी राजनीति के साथ सामाजिक परिवर्तन भी करने चले थे, तो एक दिन एक अछूत परिवार लाकर आश्रम में रख लिया. अब ये तो अच्छी बात नहीं थी. पैसे वाले दानदाता पीछे हटने लगे. आना जाना कम कर दिया. दान घट गया तो आश्रम चलाना कठिन होता गया.
ऐसे मुश्किल वक्त में एक दिन आश्रम के गेट में एक मोटर घुसी. अम्बालाल साराभाई, शहर की कई फैक्ट्रियों के मालिक, सधे कदमों से गांधी के कक्ष में आये. कुशलक्षेम पूछते हुए गांधी के करीब पहुंचे और 13 हजार रुपये नगद उनके हाथों में रख गए. यह 1916 था. तब सोने का भाव 20 रुपये तोले से कम हुआ करता था. रकम किसी को भी अनुग्रहित करती, गांधी भी अहसानमंद हुए, आभार दिखाया.
दो साल के भीतर अहमदाबाद में तबाही आयी. यह प्लेग था. लोग शहर छोड़ भागने लगे. मजदूर भी भाग जाएं तो अमीरों की फैक्ट्री कैसे चले ? लालच दिया कि रूक कर काम करने का ‘रिस्क बोनस’ मिलेगा तो मजदूरों को दोगुना पैसा मिलने लगा. प्लेग के दौर में भी मिलें बदस्तूर चलती रही.
कुछ माह में प्लेग का कहर कम हुआ. लोग अहमदाबाद वापस आने लगे. खतरा हटा तो रिस्क बोनस भी हटा लिया गया. मजदूरों की इनकम वापस घट गयी. पर इस दौर में आर्थिक हालात खराब थे. पहला विश्वयुद्ध, जरूरी सामान शॉर्टेज, मुद्रास्फीति ने गरीबों के हालात बिगाड़ रखे थे.
मांग हुई कि बोनस जारी रखा जाए, मिल मालिक तैयार न थे. नतीजा मांग करने वालों को नौकरी से निकाला जाने लगा. नये मजदूर भर्ती होने लगे. अब मजदूरों की बात गांधीजी तक गयी. सबको पता था कि गांधी की इज्जत तो मिल मालिक भी करते हैं. यह खबर मिल मालिकों तक पहुंची तो वे उल्टे निश्चिन्त हो गया. गांधी तो उनका अपना आदमी था.
इसी तरह अविनाश ने भी आईजीआईएमएस को बेस बनाया. कोरोना जैसी महामारी के दौर में आऊटसोर्सिंग बंधुआ मजदूरों को बोनस देने का लालच देकर काम करवाया, जिसे बाद में थोड़ी सी राशि देकर बांकी मनीष मंडल और उसके माफिया गिरोह ने हड़प लिया. अविनाश और उनके साथियों ने सवाल उठाया, माफिया गिरोह सरगना मनीष मंडल ने पहले अविनाश को फिर उसके 21 साथियों को नौकरी से निकाल देने का नोटिस थमा दिया. फर्जी मुकदमा दर्ज कर दिया.
इतना ही नहीं, जिस सीसीटीवी फुटेज के आधार पर मनीष मंडल माफिया गिरोह ने इन 21 आऊटसोर्सिंग कर्मचारियों को नौकरी से निकाल बाहर करने का नोटिस थमाया है, उसी सीसीटीवी फुटेज में इस माफिया गिरोह को यह नजर नहीं आया कि किस तरह इस माफिया गिरोह ने अविनाश और उनके साथियों पर जानलेवा हमला किया था.
बहरहाल, मनीष मंडल माफिया गिरोह सरगना ने सैकड़ों करोड़ की अवैध सम्पत्ति अर्जित की है. केवल पटना में ही तीन-तीन विशाल बंगला बनाया है, रांची में भी विशाल बंगला बनाया और उसका बेटा विदेश में पढ़ता है, और वह आईजीआईएमएस को नोंच कर खा रहा है. मजदूरों का खून पी रहा है और अविनाश और उनके साथियों पर फर्जी मुकदमा दर्ज करवा रहा है.
बहरहाल, जब मिल मालिकों के इस अन्याय की बात गांधी को पता चली तब गांधी ने मामले में दखल देना तय किया, और मजबूती से दिया भी, ठीक वैसे ही जैसे अविनाश ने मजबूती से दखल दिया.
गांधी की मिल मालिकों के साथ मीटिंग हुई, तो मिल मालिकों ने ज्यादा से ज्यादा 20% बोनस देना तय किया. उधर मजदूर पक्ष 50% से कम पर राजी नहीं था. अविनाश की माफिया सरगना मनीष मंडल के साथ बात हुई तो उसने एक वाक्य में जवाब दे दिया – ‘जब तक मैं जिन्दा हूं तुम लोगों का वेतन नहीं बढ़ने दूंगा. सुप्रीम कोर्ट और प्रधानमंत्री कार्यालय मेरे नाना का है.’
गांधीजी ने खुद केस स्टडी की. बाजार, मूल्य, मिलों की आर्थिकी, इन्फ्लेशन देखकर तय किया कि 35% बोनस देना होगा, नही तो मजदूर हड़ताल करेंगे. मालिकों ने प्रस्ताव खारिज किया. हड़ताल शुरू हुई. कुछ दिन उत्साह रहा, मगर मजदूर धीरे-धीरे अधीर होने लगे. उनकी जगह दूसरो की भर्ती का डर भी था तो बहुतेरे मजदूर, मालिकों से जो मिल रहा था उसी पर ड्यूटी जॉइन करने लगे. गांधी जिनके लिए लड़ने गए, वही साथ छोड़ कर भाग रहे थे.
अविनाश ने भी माफिया सरगना के खिलाफ हड़ताल और प्रदर्शन का तय किया. आऊटसोर्सिंग कर्मचारियों में शुरुआत में उत्साह रहा लेकिन माफिया सरगना मनीष मंडल के गुंडा गिरोह के हमलों के आतंक और नौकरी से निकाल कर दूसरों को भर्ती करने से डरे मजदूर माफिया सरगना से जो कुछ मिल रहा है, उसी पर ड्यूटी ज्वाईन करने लगे. यानी, अविनाश जिनके लिए लड़ने गये, वही साथ छोड़कर भाग रहे हैं.
देखा जाए तो किसी आम नेता के लिए यह खिसकने का माकूल वक्त था. मिल मालिक उन्हें दुआएं ही देते, पैसे भी पर यह बंदा तो गांधी था, बैठ गया अनशन पर. अब, जब तक सारे मजदूर काम छोड़कर हड़ताल पर नहीं लौटते, वह कुछ नहीं खाएंगे. अब अविनाश को तय करना है कि वह अनशन या धरना पर कब और कैसे बैठते हैं ?
यहां जरा मजा देखिये, गांधी ने हड़ताल मजदूरों के लिए की थी, पर उनका अनशन मिल मालिकों के खिलाफ नहीं था. ये तो मजदूरों के ही खिलाफ था. उनकी अवसरवादिता, कमजोरी और स्वार्थता के खिलाफ था. तो अपने समर्थकों के खिलाफ गांधी का अनशन तीन दिन चला. शर्मिंदा मजदूर हड़ताल पर लौट आये. मिलों की चिमनी से निकलता धुआं, एक बार फिर रुक गया. हड़ताल मजबूत हो गयी.
यह अनशन गांधी के दृढ़ निश्चय का परिचायक था. मिल मालिक भी समझ गए कि बन्दा डिगेगा नहीं. एक एक कर 35% बोनस पर सहमति देते गए. यह गांधी की प्रभावशाली जीत थी – सरकार पर नहीं, पूंजी पर.
साल भर पहले यह बन्दा चंपारण में सरकार से भी भिड़ गया था. वहां किसानों को उनका हक दिलवाया. इस बार वह मजदूरों के लिए लड़ा, मजदूरों से भी लड़ा, उद्योगपतियों से भी भिड़ा – निस्संकोच, निर्भीक. उन्हीं उद्योगपतियों से जिनके चंदे से उनका आश्रम चलता था.
अविनाश को भी गांधी की तरह आगे बढ़कर अपने मजदूर सहयोगियों को एकजुट कर हड़ताल कराने के लिए आगे बढ़ना होगा, माफिया गिरोह के खिलाफ नहीं, अपने ही साथियों के खिलाफ. उनकी अवसरवादिता, कमजोरी और स्वार्थता के खिलाफ था. यही गांधी के देश में गांधी का आदेश है.
माफिया सरगना मनीष मंडल और उसका गिरोह अपने अवैध तरीकों से अर्जित हजारों करोड़ की दौलत समेटे अंग्रेजों की तरह या तो विदेश भागेगा अथवा, तिलतिलकर मरते आऊटसोर्सिंग कर्मचारी माफिया गिरोह की भट्टी में अपनी धन-इज्जत होम करता रहेगा. क्योंकि मनीष मंडल और उसका माफिया गिरोह न केवल दोनों हाथों से दौलत ही बटोर रहा है बल्कि आईजीआईएमएस में काम कर रही महिलाओं का यौन शोषण भी कर रहा है. 2018 के आखिरी दिनों में खुशबू आत्महत्या प्रकरण इसका जीता जागता उदाहरण है.
सवाल है नक्सलबाड़ी विद्रोह का संचालन करने वाले बिहार का मजदूर इतना कायर कैसे ? यह कायर मजदूरों अपने ही 21 साथियों की बर्बादी पर जश्न कैसे मना सकता है ? खामोश कैसे रह सकता है ? उठो, आईजीआईएमएस के मजदूरों, भारत का तमाम आऊटसोर्सिंग कर्मचारी तुम्हारी ओर उम्मीद भरी नजरों से देखा रहा है, ठीक वैसे ही जैसे गांधी की ओर पूरा देश देख रहा था.
उठो, अपने खिलाफ उठे हर कदम के खिलाफ की तुम इतिहास बदल दो, उठो कि माफियाओं के आतंक तले तुम्हारी अगली पीढ़ी दम न तोड़ दे. अभी नहीं तो कभी नहीं. जिस प्रकार गांधी देश का उम्मीद थे, आज अविनाश ही तुम्हारी आखिरी उम्मीद है. एकजुट हो, संघर्ष करो, जीत तुम्हारी होगी …
‘प्रतिभा एक डायरी’ से साभार