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*नेता नहीं नागरिक चाहिए*

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शशिकांत गुप्ते

आज बहुत दिनों बाद मैं सीतारामजी से मिलने गया।
जब मै सीतारामजी से मिलने गया,तब वे प्रसिद्ध साहित्यकार,रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित पुस्तक रेती के फूल में लिखा निबंध पढ़ रहे थे। कहानी का शीर्षक है,
नेता नहीं नागरिक चाहिए
सीतारामजी ने मुझे उक्त निबंध के कुछ अंश पढ़ कर सुनाएं।
दिनकरजी ने लिखा है,आजादी के बाद जब देश के सारे काम नेताओं के हाथ में आ गए, तब उन्हें पता चला कि अभी तक इस देश ने नेता ही पैदा किए हैं, नागरिक नहीं
ये लोग कर्म को कम, वाणी को अधिक महत्त्व देते हैं। हर किसी की यही अभिलाषा है कि वह दूसरों को कुछ उपदेश दे, मगर खुद किसी भी उपदेश पर अमल करने को वह तैयार नहीं है। यों देश के नवनिर्माण के ज्यादा काम ठप पड़े हुए हैं; क्योंकि जो सचमुच देश के नेता हैं, वे काम करना नहीं जानते और जो काम करना जानते हैं, उन्हें हाथ-पाँव हिलाने की अपेक्षा जीभ की कैंची चलाने में ही अधिक आनन्द आता है। नेता बनने की धुन का यह पहला असर है जिसे हिन्दुस्तान आज बुरी तरह भोग रहा है।
जिसमें छल, छद्म और साजिश का बोलबाला है
उपर्युक्त निबंध दिनकर जी मार्च 1961 में लिखा है।
वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था पर उक्त निबंध एकदम प्रासंगिक है।
नेता देश का आम नागरिक ही बनता है,लेकिन दुर्भाग्य नेता बनने के बाद नेता देश के नागरिक से स्वयं को श्रेष्ठ समझने लगता है।
सीतारामजी ने दिनकरजी द्वारा रचित निबंध कुछ विश्व की मानवता का कल्याण किसमें है? उस तस्वीर में, जिसमें छल, छद्म और साजिश का बोलबाला है
सीतारामजी उक्त निबंध के कुछ Paragraph पढ़कर सुनाए।
मैने Paragraph सुनने के बाद कहा दिनकरजी की दूरदर्शिता का सलाम (Hats off)
ज्यादा कुछ लिखने की आवश्यकता ही नहीं।
मैने सीतारामजी को उपर्युक्त निबंध सुनाने के लिए धन्यवाद दिया।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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