दीपक असीम
जैसा फार्मूला हिंदी फिल्मों में होता है, वैसे ही मुशायरों का भी एक फार्मूला है। एक दो बड़े नाम भीड़ खींचने के लिए। एक दो सुंदर चेहरे उनके लिए, जो मुशायरा सुनने नहीं देखने आते हैं। फिर एक-दो तरन्नुमबाज शायर उनके लिए जो समझते हैं कि शायरी तरन्नुम से ही सुनने की चीज़ होती है। फिर हिंदी फिल्मों के कॉमेडी ट्रेक जैसा कोई मज़ाहिया शायर, जो हंसाए…। मगर इस बार 25 जनवरी की रात कृष्णपुरा छतरी का मुशायरा ऐसा नहीं था। इसमें कोई फार्मूला नहीं था। एक भी महिला नहीं, एक भी तरन्नुमबाज नहीं, एक भी हंसोड़ नहीं…। बस शुरू से अंत तक शायरी और यह हिम्मत भी कामयाब रही।

पहली बार इंदौर आए शायर नौजवान शायर आशु मिश्रा की शायरी में वो पुख्तगी है, जो पुराने ज़माने में दशकों शायरी करने वाले उस्तादों के यहां मिला करती थी। फिर इस नई पीढ़ी के पास पुराने शब्दों के साथ साथ नई भाषा भी है, नया लहजा भी है। इस नई पीढ़ी ने नए पुराने शायरों को इतना पढ़ा-सुना है कि अपनी उम्र में ये उनसे मीलों आगे हैं – सुर आपके बिल्कुल मेरी लय से नहीं मिलते बस इसलिए हम मिलने के जैसे नहीं मिलते। अलगाव का दुख दाइमी दुख है तो मेरी जान, लेकिन ये मज़े दूसरी शै से नहीं मिलते। होंटों पे रखा रह गया इंकारे मुलाकात जब उसने कहा देखूंगी कैसे नहीं मिलते। अव्वल तो मुहब्बत में मेरा जी नहीं लगता, और दूसरा इस काम के पैसे नहीं मिलते।
चिराग़ शर्मा आने वाले वक्तो में बड़ा नाम करने वाले हैं। छोटी सी उम्र में वे अपनी शायरी लेकर कई देशों में जा चुके हैं। भाषा से वो ऐसे खेलते हैं जैसे कोई जादूगर जादू दिखा रहा हो। आप सोचते ही रह जाते हैं कि अब क्या होने वाला है, कैसे होने वाला है – उदास झील की तस्वीर में वो नाव बनाओ, जो देखने पे कहे आंख में बहाव बनाओ। ये रात सिर्फ अंधेरी नहीं है सर्द भी है, दिया बना लिया शाबाश, अब अलाव बनाओ। बनाना जानते हो तुम तो सबके दिल में जगह, हमारे दिल में बनाकर दिखाओ, आओ बनाओ। ये संगेमरमरी नाखुन ये कत्थई पॉलिश, के कोई देखे तो कह दे हमारे घाव बनाओ। मुश्ताक अहमद मुश्ताक अपने रंग में नहीं थे कुछ बीमार भी थे। संपत सरल को यहां बहुत अच्छी तरह सुना गया। सत्यनारायण सत्तन का धन्यवाद करते हुए उन्होंने पिछले दिनों का एक वाकया बताया कि एक प्रोग्राम में कुछ भक्त उन्हें हूट करने के लिए ही आए थे। वे लगातार बदतमीजी कर रहे थे, तब सत्तन जी ने खड़े होकर उन्हें लताड़ा था और कहा था मैं बचपन से संघ की शाखा में गया हूं और पूरी ज़िंदगी भाजपा की राजनीति की है। ज़िंदगी भर कांग्रेस की आलोचना की है और आज भी करूंगा। मगर कांग्रेस के राज में कभी मेरी राजनीति के कारण मुझे साहित्य के मंच पर हूट नहीं किया गया। इसलिए संपत सरल को भी पढ़ने का हक है। अनेक व्यंग्य रचनाएं संपत सरल ने सुनाईं और तालियां पाईं। अपने जाने माने और लोकप्रिय अंदाज़ में सत्तन ने भी कविता पढ़ी जो कौमी एकता की हिमायत में थी।
मुशायरे का आगाज़ मंजूर देपालपुरी से हुआ और पहले ही शायर ने दूसरे शायरों के लिए एक लकीर खींच दी कि अब इससे बढ़ कर दिखाओ – तुम जज़ीरे हो किनारे जैसे, खूब देखे हैं तुम्हारे जैसे। ऐसे लहजे में बात करते हो, कोई कुर्सी से उतारे जैसे। आपका जुल्म नहीं चलने का, लोग बाकी हैं हमारे जैसे। घुमाया वक्त ने कुछ इस अदा से शंहशाहों को चक्कर आ गए हैं। मुहब्बत में सिलेक्शन हो हमारा, हमें इतने तो नंबर आ गए हैं। अशफाक देपालपुरी नई रदीफ और नए शब्द इस्तेमाल करने में बहुत साहस दिखाते हैं – इश्क की हद से गुजर जाए तो पैसे वापस, वो तेरे सोग में मर जाए तो पैसे वापस, ये जो खाते हैं कसम साथ जीने मरने की, एक भी साथ में मर जाए तो पैसे वापस। सिर्फ एक बार तू मकतल से लगाना आवाज़, एक बच्चा भी मुकर जाए तो पैसे वापस। उनका ये रूमानी अंदाज़ तो जैसे दिलों में उतर गया – रंग ऐसे तेरी साड़ी की तरफ देखते हैं, जैसे मज़दूर दिहाड़ी की तरफ देखते हैं। वो अगर देख लें हमको तो इनायत उनकी, वर्ना दर्शक को खिलाड़ी की तरफ देखते हैं। पढ़ रहे हैं तेरी बदली हुई नज़रें हम यूं, जिस तरह पेड़ कुल्हाड़ी की तरफ देखते हैंष
एस कमाल ने कमाल किया और चार मिसरे पढ़े जिसकी आखरी दो लाइने थीं – बाप से शायद आपको नफरत है राना, जब देखो तब मां पर शेर सुनाते हो…। सुनने वालों गुदगुदाकर फौरन रवानगी डाल ली। क़मर साकी ने पढ़ा – रिश्तों में कुछ भेद नहीं कर पाता हूं, मैं उजलत में अंगारे खा जाता हूं। उसकी काली आंखें मुझ पर पड़ती हैं फिर मैं पूरा रंगीला हो जाता हूं। गोविंद गीते की शायरी में रहस्यवाद और आध्यत्मिकता थी – पता करना है ये जाने से पहले, कहां था मैं यहां आने से पहले। यकीनन थी मेरी पहचान कोई, ये मिट्टी का बदन पाने से पहले। फिर समाधि तोड़ कर वे दुनिया में आए और ये शेर भी पढ़े – किसी के वास्ते सीने में हमदर्दी नहीं होती, अगर ये दिल नहीं होता तो चाहत भी नहीं होती, निकाला घर से जब बेटे ने तो मां-बाप ये बोले, कहां जाते बुढ़ापे में अगर बेटी नहीं होती। सतलज राहत ने सुनाया – चाहे किस्मत में दाल रोटी हो, मेरे अल्ला हलाल रोटी हो, धर्म का जिक्र बाद में करना, सबसे पहला सवाल रोटी हो, सारी दुनिया में सबकी थाली में, है दुआ पूरे साल रोटी हो।
रईस अनवर ने कई गज़लें पढ़ीं और मुशायरे की रात वो पूरे रंग में थे। उनके इन अशआर पर खूब दाद मिली – मैंने सहरा में गुजारे हैं वो दिन, जिन में पत्थर भी पसीना छोड़ दे। मैं तो अब तूफान से टकराउंगा, जिसको डर हो, वो सफीना छोड़ दे। हिंदू और मुस्लिम को बाटा जा सकता है, क्या पत्थर कैंची से काटा जा सकता है। सूख के लकड़ी सीधी थोड़ी होती, बच्चों को बचपन में डाटा जा सकता है।
मरहूम साकी इंदौरी के पोते तजदीद साकी शहर के उभरते हुए शायर हैं – फकत तनहाई को अपना सहारा कर लिया मैंने, तुम्हारे बाद में सबसे किनारा कर लिया मैंने। उसे जाने से पहले ही मनाकर रोक लेना था, अना की बात में आकर खसारा कर लिया मैंने।
बहुत मेहनत के साथ निज़ामत कर रहे अखिल राज ने अपने फर्ज अदा करते हुए कुछ शेर सुनाए – खफा जिस दिन हुईं तो ये कनीजे मार डालेंगी, तुझे तेरी ये शोहरत की मशीनें मार डालेंगी। मसीहा गर तेरी सच्चाई बतला दूं इन्हें जाकर तो कब्रों से निकलकर तुझको लाशें मार डालेंगी। मंच पर जवाहर चौधरी और रईस अनवर का सम्मान होना था। जवाहर चौधरी की तबीयत ठीक नहीं थी, सो केवल रईस अनवर का सम्मान हुआ। अखिल राज की किताब लावा का विमोचन संपत सरल, सत्यनारायण सत्तन, पूर्वविधायक अश्विन जोशी, संजय वर्मा और पार्षद अंसाफ अंसारी ने किया।