शशिकान्त गुप्ते
2 वर्ष पूर्व लिखी रचना आज एकदम प्रासंगिक है।
उसका अस्तित्व दिखाना
अर्थात,
दिखाना मानव को उसकी औकात
करने के बजाय संतुलित दोहन
मानव ने किया
प्रकृति का बेतहाशा शोषण
सिद्ध कर दिया
इस कथन को
दूसरा नहीं है स्वार्थी कोई
अलावा, मानव के,
समूचे प्राणिमात्र में।
स्वार्थपूर्ति की प्रवृत्ति,
होती है घातक,
दिखाती है जब,
रंग अपना प्रकृति।
होती है चरितार्थ यह कहावत
“आ बैल मुझे मार”
ढाने के पूर्व कहर
नहीं पूछती प्रकृति
है कोई तीर्थस्थल ?
या की कोई आराधनालय?
किस धर्म,मज़हब अथवा रिलीजन का?
हर एक प्राकृतिक आपदा
देती है हर बार संदेश
करती है आगाह भी
अप्रत्यक्ष रुप से
अपनी आदत से बाज आओ मानव।
लेकिन संभलने के बजाय मानव,
बन रहा है दानव,
लगाने के पूर्व आरोप प्रकृति पर
ध्यान दे मानव,
अपनी स्वार्थ पूर्ति की प्रवृत्ति पर,
प्रकृति का न हो सिर्फ शोषण
करना होगा प्रकृति का समुचित पोषण।
नहीं तो होगा वही
जो यह कहावत कहती है,
“अब पछताय क्या होत जब चिड़िया चुग गई खेत”।
शशिकान्त गुप्ते इंदौर