अग्नि आलोक
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*खरपतवार?

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शशिकांत गुप्ते

सीतारामजी आज गीतकारों पर चर्चा करते हुए कह रहे थे,ये गीतकार ऐसे कल्पनातीत गीत क्यों लिखतें हैं।
फिल्मी गीतों में आसमां से चांद तारे तोड़ने की कल्पना आदिकाल से चल रही है। जैसे चांद तारे अंतरिक्ष में उगने वाले फल-फूल हैं। जिन्हें तोड़ कर लाना आसान है।
मैने कहा सभवतः गीतकार यह मान कर लिखतें होंगे की आंतरिक्ष में चांद तारों की फसलों के बीच कोई खरपतवार नहीं होंगे। इसलिए अंतरिक्ष में चांद के साथ तारों की फसल लहलहाती होगी।
यह तो हुई अंतरिक्ष में चमकते चांद और सितारों की कल्पना।
गीतकार इस धरा के निवासी, मानवों की तुलना भी रंग-बिरंगी फूलों से करतें हैं।
सन 1969 में प्रदर्शित फ़िल्म जिगरी दोस्त का यह गीत मशहूर हुआ था। इस गीत की निम्न पंक्तियों में मानव की तुलना रंग-बिरंगी फूलों से ही की गई है।
फ़िल्म का नाम ही महत्वपूर्ण है।
जिगरी दोस्त
प्रस्तुत है गीत की पंक्तियां,
जीवन अपना सुन्दर सपना
कौन पराया कौन है अपना
प्यार सभी का अपने दिल में हो
हर एक रंग के फूल है खिलते
हर मजहब के लोग है मिलते
इस बगिया में इस महफ़िल में हो
हे हम सारे है भारत वासी
सब है भाई भाई
मेरे देश में हो
मेरे देश में
पवन चले पुरवाई
हो मेरे देश में
मेरे देश में पवन भी पुरवाई ही चलती है।

गीतकार ने जब देश को एक बगिया की उपमा दी होगी तब गीतकार ने उदारमना से यह गीत लिखा होगा। यह भूल कर की बगिया में खरपतवार भी उगतें हैं।
खरपतवार (weed) वे अवांछित पौधे हैं,जो किसी स्थान पर बिना बोए उगते हैं और जिनकी उपस्थित खेत,और बगिया को लाभ की तुलना में हानिकारक अधिक होती है।
बहुत से विघ्नसंतोषी इन्ही खरपतवारों को ही पनपाते हैं।
विघ्नसंतोषी का ही पर्यायवाची शब्द है अवांछिनीय।
गीतकारों को मानवों की तुलना एक गुलदस्ते से करनी होगी तब गीतकारों को खरपतवारों के लिए रसायनों रूपी शब्दों का प्रहार भी करना होगा।
शब्दों के रसायनों के प्रहार के लिए किसी स्प्रे पंप की आवश्यकता नहीं है। इसके लिए व्यापक रूप से उलझे विचारों की आवश्यकता है।
इस संदर्भ में प्रख्यात गीतकार स्व. गोपालदास नीरज जी की यह रचना एकदम प्रासंगिक है।
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए,
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए
जिसकी ख़ुशबू से महक जाय पड़ोसी का भी घर,
फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए
आग बहती है यहाँ गंगा में झेलम में भी,
कोई बतलाए कहाँ जाके नहाया जाए
प्यार का ख़ून हुआ क्यों यह समझने के लिए
हर अंधेरे को उजाले में बुलाया जाए
मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा,
*मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी न खाया जाए *
जिस्म दो होके भी दिल एक हों अपने ऐसे,
मेरा आँसू तेरी पलकों से उठाया जाए
गीत उन्मन है, ग़ज़ल चुप है, रूबाई है दुखी,
ऐसे माहौल में “नीरज” को बुलाया जाए

मानवी बाग में अवांछित खरपतवारों के लिए उक्त गज़ल ही शब्दों का रासायनिल स्प्रे करेगी।
यह सुन सीतारामजी ने कहा जय जय सियाराम।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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