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विकास के नाम पर ये कैसा मजाक

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अशोक पाण्डे

कोई दो साल पहले नवंबर में मैंने हल्द्वानी से पिथौरागढ़ की यात्रा की थी। उत्तराखंड के कुमाऊं में स्थित इन दो जगहों के बीच की दूरी तकरीबन दो सौ किलोमीटर है। हल्द्वानी तेजी से महानगर बनता हुआ एक आधुनिक शहर है, जबकि पिथौरागढ़ एक सीमांत जिला मुख्यालय है, जिसकी सरहदें नेपाल और तिब्बत से लगती हैं। कुछ वर्षों से इन दो जगहों, खासतौर पर घाट से पिथौरागढ़ तक पहुंचने के आखिरी तीस-चालीस किलोमीटर की सड़क लगातार चौड़ी की जा रही है। सैकड़ों जेसीबी और पोकलैंड मशीनें यहां लगी रहती हैं। इस महत्वाकांक्षी प्रॉजेक्ट को सरकार ने ऑल-वेदर रोड का नाम दिया है। यही हाल गढ़वाल में भी है।

अरबों की लागत से पूरा किए जा रहे इस प्रॉजेक्ट में लाखों पेड़ों को अपनी आहुति देनी पड़ी है। सड़क के किनारे पड़ने वाले सैकड़ों-हजारों घरों को ढहा कर, मुआवजा देकर कहीं और बसने भेज दिया गया है। घाट पहुंचने के बाद चढ़ाई की शुरुआत होते ही मुझे पहली बार उस निर्माणाधीन ऑल-वेदर रोड के दर्शन हुए। कुछ ही दूर चलने पर हमारी गाड़ी को रुकना पड़ा क्योंकि आगे कहीं पहाड़ी काटी जा रही थी। हमसे आगे ऊपर की तरफ जाने वाली सैकड़ों गाड़ियां पहले से खड़ी थीं।

इंतजार काफी लंबा होने जा रहा था, सो मैं गाड़ी से उतर गया। आसपास निगाह डाली तो पाया कि रास्ते के साथ-साथ समूचा लैंडस्केप बदला जा चुका था। ठीक सड़क से सटी पहाड़ियों को बुरी-तरह नोच खसोट दिया गया था। उनके नंगे चेहरों से मिट्टी-रोड़ी-पत्थर-चट्टान और धूल गोया रिसते हुए नजर आ रहे थे। उदास कर देने वाला यह मंजर पिथौरागढ़ तक चलता रहा।

लौटते हुए बेमौसम मूसलाधार बारिश शुरू हो गई। पिथौरागढ़ से चलते समय हमें आगाह कर दिया गया कि आगे खतरा हो सकता है। घाट पहुंचने तक की उस यात्रा के दौरान कम से कम चार बार ऐसा हुआ कि हमारी गाड़ी पहाड़ों से गिर रहे मलबे की चपेट में आते-आते बची। उस खौफनाक अनुभव के विवरण तो यहां नहीं दूंगा, लेकिन फिर मैंने तय किया कि चाहे जो हो, मैं अगले पांच-दस बरस तक घाट के रास्ते पिथौरागढ़ तो कभी नहीं जाऊंगा।

हाल में आई आपदा के संदर्भ में आगे बताने से पहले इतनी बड़ी प्रस्तावना बांधना मुझे इसलिए जरूरी लगा कि बीते दो वर्षों में हालात तेजी के साथ बिगड़े हैं। कुमाऊं-गढ़वाल के पर्वतीय इलाकों की तकरीबन हर सड़क का हाल घाट-पिथौरागढ़ मार्ग जैसा बन गया है। पिछले दो वर्षों के स्थानीय अखबारों को उठा कर देख लीजिए। हर दिन सड़क निर्माण के कारण पहाड़ों से मलबे और चट्टानों के गिरने की खबर मिलेगी। भूस्खलन के ये मामले कई बार लोगों की मृत्यु के समाचारों के साथ छपते हैं। लगातार बनाई जा रही कुमाऊं-गढ़वाल की इन सड़कों पर सफर करना हालिया समय का सबसे बड़ा एडवेंचर बन गया है। हैरत होने लगती है कि इन सड़कों को आखिरकार किसके लिए ऐसा बनाया जा रहा है।

विकास की दौड़ में हिमालय की पारिस्थितिकी के साथ जैसी क्रूरता सिस्टम ने पिछले दस-बारह सालों में बरती है, उसकी इतिहास में कोई मिसाल नहीं मिलती। इसका सबूत उन दो दुर्भाग्यपूर्ण दिनों में देखने को मिला, जब घाट-पिथौरागढ़ ऑल वेदर रोड में दसियों जगहों पर टनों मलबा आया और कई जगहों पर कई-कई मीटर सड़क पूरी तरह बह गई। सोशल मीडिया पर इस मार्ग की दुर्दशा के अनेक फोटो और विडियो वायरल हुए, जिन्हें देख कर आज भी सिहरन हो रही है।

इस विकास ने पहाड़ी नगरों की कैसी हालत बना दी है, इस बारिश में इसका नजारा नैनीताल शहर में देखने को मिला। 1841 में अंग्रेजों की बसाई इस पर्यटन नगरी में पिछले तीस सालों में जितना निर्माण कार्य हुआ है, उसका एक तिहाई भी शहर बनने के शुरुआती डेढ़ सौ सालों में नहीं हुआ था। यह तब है जब इन तीस सालों में निचली से लेकर सर्वोच्च तक तमाम अदालतों ने इस तथ्य को लेकर लगातार चिंता जताई है।

नैनीताल की पहाड़ियों से पानी की निकासी के लिए अंग्रेजों ने नालों का जबरदस्त सिस्टम बनाया था, जो विकराल से विकराल बारिशों भी सुचारु रहता था। आदमी के लालच ने उन तमाम नालों के ऊपर घर और होटल बना डाले। यह सब सत्ता और प्रशासन की नाक के नीचे हुआ। मैंने अपने जीवन का बड़ा समय नैनीताल में बिताया है। बरसातों के मौसम में सात से नौ दिन तक लगातार बारिशें होती देखी हैं। इन अनवरत बारिशों को पहाड़ों में झड़ कहा जाता है। उतनी बारिश के बावजूद माल रोड पर कभी पानी नहीं भरता था।

18 अक्टूबर को नैनीताल की माल रोड पर घंटों तक इतना पानी इकठ्ठा रहा कि उसमें नावें चलाई जा सकती थीं। शहर की ढलवां सड़कों पर पानी की ऐसी रफ्तार थी कि मोटरसाइकिलें बह जा रही थीं। इन सड़कों से लगे रिहाइशी मकानों और दुकानों में पानी घुस गया। कितने ही लोग रात भर फंसे रहे, बचाने के लिए फौज बुलानी पड़ी। तीन दिन तक बिजली पानी नहीं आया। इंटरनेट-टेलिफोन सब कुछ घुस गया।

1992 में ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में हुई संयुक्त राष्ट्र की अर्थ समिट में संसार के अस्तित्व पर मंडराते भविष्य को लेकर आगाह करते हुए पर्यावरण के संरक्षण को सबसे बड़ी जरूरत बताया गया था। इत्तफाक है कि उत्तराखंड में अंधाधुंध, अनियोजित निर्माण की शुरुआत भी इसी के आसपास शुरू हुई। निस्संकोच कहा जा सकता है कि इन तीस सालों में जितनी भी आपदाएं उत्तराखंड में आई हैं उन सब के लिए प्रकृति नहीं आदमी जिम्मेदार रहा है।

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