शेखर गुप्ता
हर समुदाय ने उन्हें प्यार दिया और उन पर भरोसा किया. वह हमारे एक लंबे-चौड़े इतिहास में मुगल सम्राट अकबर के बाद संभवत: पहले ऐसे मुस्लिम बन गए जिसे भारत के बहुसंख्यक हिंदुओं का सबसे अधिक प्यार मिला.
आइए वो फेहरिस्त उठाकर देखें कि पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम आखिर क्या नहीं थे.
अगर शाब्दिक अर्थों के लिहाज से बात करें तो वह सही मायने में वैज्ञानिक नहीं थे. उनके पास कई पीर-रिव्यू वाले पब्लिकेशन नहीं थे. न ही वे भारतीय परमाणु बम के जनक थे. यह परमाणु ऊर्जा विभाग (डीएई) के वैज्ञानिकों की दो पीढ़ियों की कोशिशों का नतीजा था.
उन्हें नैसर्गिक तौर पर वक्तृत्व क्षमता का तोहफा भी नहीं मिला था और वे ज्यादातर अपनी बातें दोहराते रहते थे. रायसीना हिल्स में उनके पहले पहुंची हस्तियां पत्र लिखने में माहिर हुआ करती थीं, वे उस तरह के लेखक भी नहीं थे. उन्होंने कभी शादी नहीं की और इस तरह कोई पारिवारिक व्यक्ति नहीं थे. उनका पालन-पोषण या प्रशिक्षण भी राजनेता या सार्वजनिक हस्ती के तौर पर नहीं हुआ था. उनका अधिकांश जीवन हथियारों की डिजाइनिंग की गोपनीय दुनिया में बीता. उन्हें संस्कृत के श्लोकों का पाठ करना और रुद्र वीणा बजाना जितना पसंद था, वह उतने ही सरल इंसान और गॉड-लविंग मुसलमान भी थे.
फिर देखिए आखिर में वह क्या बने.
उन्हें हमारे अब तक के सबसे महान वैज्ञानिकों में एक माना जाता है, जिन्हें सी.वी. रमन और जगदीश चंद्र बोस जैसा सम्मानित दर्जा हासिल है. वे अपनी मेंटर्स जेनरेशन वाले होमी भाभा और विक्रम साराभाई या फिर डीएई, इसरो और डीआरडीओ में अपने साथियों से काफी ऊपर स्थान रखते हैं. वह हमारी पूरी स्मृति में उस व्यक्ति के तौर पर अंकित हैं जिनकी वजह से हमें परमाणु प्रतिरोधक क्षमता हासिल हुई. भारत की किसी भी पीढ़ी और भौगोलिक स्थिति और जनसांख्यिकी के बीच वह हमारे सबसे लोकप्रिय सार्वजनिक वक्ता माने जाते हैं और उन्होंने कभी भी ऐसे किसी हॉल में खड़े होकर संबोधित नहीं किया होगा जो खचाखच भरा न हो.
उन्होंने जो किताबें लिखीं, बतौर उदाहरण इंडिया 2020, वो धर्मनिष्ठा के साथ डीआईवाई (खुद आजमाएं) प्रकृति की थीं लेकिन बिक्री के मामले में सबसे बड़ी नॉन-फिक्शन बन गईं और लंबे समय तक बनी भी रहेंगी. वह एक उदार नाना कलाम के तौर पर चाचा नेहरू के बाद हमारे बच्चों के सबसे प्रिय नेता बन गए. उनका कद असाधारण रूप से इतना बढ़ गया कि वे हमारे सबसे बड़े राजनीतिक राष्ट्रपति बन गए और वह भी पूरी तरह बिना किसी असहमति के साथ.
हर समुदाय ने उन्हें प्यार दिया और उन पर भरोसा किया. वह हमारे एक लंबे-चौड़े इतिहास में मुगल सम्राट अकबर के बाद संभवत: पहले ऐसे मुस्लिम बन गए जिसे भारत के बहुसंख्यक हिंदुओं का सबसे अधिक प्यार मिला. मौलाना आजाद या किसी और से कहीं ज्यादा. वह जिन्ना की एकदम सही काट थे.
अंतत: एक तथ्य जो अपनी मोटी चमड़ी के बावजूद मैं इस फेहरिस्त में डालने से बहुत डर रहा था, वो ये कि उनके पास वास्तविक तौर पर कोई डॉक्टरेट, पीएचडी डिग्री नहीं थी. उन्हें डॉक्टरेट तमाम मानद उपाधियों के तौर पर मिली, लेकिन ‘डॉ.’ का दर्जा उन पर एकदम सटीक बैठता था, और उनके सबसे कट्टर आलोचकों ने भी कभी इस तथ्य को लेकर सवाल उठाने की हिम्मत नहीं की.
तो फिर उनके पास आखिर ऐसा क्या था जिसने उन्हें इतना प्यार और सम्मान दिलाया?
उन्होंने ऐसा नैतिक अधिकार हासिल कर लिया था जो आजादी के बाद कुछ ही भारतीयों को मिला है. उनकी खूबियों की शुरुआत इस बात से कर सकते हैं कि यह सब उनकी विनम्रता का नतीजा था. आपने उन्हें कभी इसरो-डीआरडीओ की किसी उपलब्धि का श्रेय लेते नहीं देखा होगा, घमंड तो उन्हें छूकर भी नहीं गुजरा था, वह कभी किसी से या किसी चीज के बारे में शिकायत करते नजर नहीं आते थे. निश्चित तौर पर सारा जीवन नौकरशाही की मजबूत दीवारों के पीछे एक गोपनीय तकनीकी प्रतिष्ठान में काम करने वाले किसी व्यक्ति के पास शिकायतों का लंबा-चौड़ा पिटारा होना चाहिए था. न उन्होंने इसे लेकर कोई दिखावा करने की कोशिश की और न ही असफलता के बहाने के तौर पर ही इस्तेमाल किया.
अप्रैल 2001 में, मैंने अपने ऐसे दो नेशनल इंट्रेस्ट में से पहला वाला (कलाम का बनाना रिपब्लिक) लिखा, जिसमें उनकी और उनके नेतृत्व वाले डीआरडीओ की विफलताओं की गहरी आलोचना की गई थी और अगली बार जब मैंने उन्हें दक्षिणी दिल्ली के सीरी फोर्ट स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स में विपरीत दिशा में जॉगिंग करते देखा तो वास्तव में बचकर भागने की कोशिश करने लगे. वह शाम को सिरी फोर्ट स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स में टहलते थे (वह नजदीक ही बने एशियाई खेल गांव स्थित डीआरडीओ गेस्टहाउस में रहते थे) और जब उन्होंने देखा कि मैं उनसे आंखें मिलाने से कतरा रहा हूं तो एक बड़ी-सी मुस्कान के साथ वहीं रुक गए. उन्होंने कहा कि वह मुझे बताना चाहते हैं कि उन्होंने उस लेख को कितने आनंद के साथ पढ़ा था और कैसे वह इससे पूरी तरह सहमत हैं.
उन्होंने कहा, ‘मुझे उम्मीद है कि अधिकारी भी इसे पढ़ेंगे. डीआरडीओ में तमाम गंभीर चुनौतियां और खामियां हैं. हमें कुछ करने की ज़रूरत है.’ जब वो यह बात कह रहे थे तब मैं उनके चेहरे के भाव पढ़ने की कोशिश कर रहा था कि कहीं यह सब व्यंग्य में तो नहीं कह रहे. लेकिन समय के साथ उन्हें अच्छी तरह जानने वालों को पता है कि वह कभी बिटवीन द लाइंस नहीं बोलते थे.
राष्ट्रपति के तौर पर उनके नाम का प्रस्ताव वाजपेयी-आडवाणी का मास्टरस्ट्रोक था. उनके नेतृत्व में भाजपा ने पहली बार केंद्र में सरकार बनाई थी और वे अपना समावेशी दृष्टिकोण सामने लाने के प्रति काफी सचेत थे. राष्ट्रीय स्तर पर नायक जैसी छवि रखने वाला कोई मुस्लिम अब एक अमूल्य संपत्ति बनने जा रहा था. लेकिन कलाम ने इस पद पर रहकर जिस तरह काम किया वो उन्हें भी हैरत में डालने वाला था.
पाकिस्तान के साथ गतिरोध (ऑपरेशन पराक्रम) के दौरान उनकी मौजूदगी सबसे ज्यादा आश्वस्ति देने वाली थी. जब कम से कम एक साल तक हम युद्ध के मुहाने पर खड़े रहे थे. उनका होना वो हीलिंग टच था जिसकी भारत को गुजरात दंगों के बाद बहुत ज्यादा जरूरत थी. उन्होंने बड़ी सावधानी और परिपक्वता के साथ हस्तक्षेप किया, जो किसी भी मायने में पक्षपातपूर्ण नहीं था. उन्होंने अपने दिमाग का लोहा मनवा दिया. उनका दखल ही सबसे प्रभावी था और उसे इस कदर अंजाम दिया गया कि हिंदुओं के बीच उनका सम्मान और भी बढ़ गया.
हालांकि, कलाम की विरासत इससे कहीं अधिक समृद्ध है. कितनी समृद्ध? इस बात को पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इंडिया टुडे ग्रुप के लिए करण थापर के फाइन इंटरव्यू में ज्यादा बेहतर ढंग से रेखांकित किया था.
उन्होंने हमें याद दिलाया कि कलाम के दखल के बिना अमेरिका के साथ कोई परमाणु करार नहीं हो पाता. जैसे ही 2008 में संसद का मानसून सत्र शुरू हुआ, प्रकाश करात ने घोषणा कर दी कि वह यूपीए से समर्थन वापस ले रहे हैं और परमाणु समझौते के खिलाफ सरकार गिराने के लिए भाजपा के साथ वोट भी करेंगे. इसके साथ ही सदन में आंकड़ों के लिहाज से मनमोहन सिंह सरकार लड़खड़ा गई. फिर मुलायम सिंह यादव के रुख बदलकर समर्थन करने के साथ उसने अपनी सबसे जोखिमपूर्ण राजनीतिक लड़ाई जीती.
मूलत: और खासकर अपने मुस्लिम वोट बैंक के मद्देनजर मुलायम परमाणु समझौते का कड़ा विरोध कर रहे थे. कांग्रेस ने बैकरूम सौदेबाजी के लिए उनसे संपर्क साधा लेकिन मुलायम की जरूरत कुछ और ही थी. इस जरूरत की पूर्ति की कलाम ने, जब वे पूरी दृढ़ता के साथ समझौते के समर्थन में आगे आए. उसके बाद तो मुलायम और अमर सिंह केवल उनकी बातों को ही दोहराते, अगर डॉ. कलाम कहते हैं कि यह ठीक है तो बस ऐसा ही होना चाहिए. यही नहीं, अगर आप उस विश्वास प्रस्ताव पर संसदीय बहस को देखें तो पता चलेगा कि असदुद्दीन ओवैसी ने कितनी शिद्दत के साथ परमाणु समझौते का बचाव किया था, अपनी पूरी राजनीति को परे रखकर. देशभक्त कलाम ने उनके लिए भी एक आवरण की तरह थे.
हैरानी की बात है कि उनके इस दखल को अभी भी अपेक्षाकृत कम याद किया जाता है और उन पर लिखी गई अनगिनत श्रद्धांजलियों में इसका प्रमुखता से उल्लेख नहीं मिलता है. लेकिन तथ्य यह भी है कि उस समय तक, सौदे को लेकर न केवल ‘धर्मनिरपेक्ष’ दलों को बल्कि परमाणु-वैज्ञानिक प्रतिष्ठान को भी गंभीर संदेह था कि यह करार सैन्य और असैन्य का अंतर मिटा देगा और दोनों ही तरह के कार्यक्रम सार्वजनिक हो जाएगा. कलाम ने इसका समाधान निकाला.
वह ऐसा सिर्फ इसलिए कर पाए क्योंकि उन्होंने हमेशा देश को सर्वोपरि रखा. ठीक एक साल पहले कांग्रेस ने उन्हें दूसरा कार्यकाल देने से इनकार करके उन्हें अपमानित किया था, जिसे वे सर्वसम्मति होने पर स्वीकार करने को तैयार हो गए थे. कांग्रेस ने इसे वीटो कर दिया. कलाम के लिए यही वो उपयुक्त क्षण था कि वो खुद को मिले सम्मान के बदले भाजपा की तरफ रुख करें, जिसने उन्हें राष्ट्रपति पद के अलावा भारत रत्न से भी पुरस्कृत किया.
कुछ और ऐसी चीजें भी हैं जो कलाम कतई नहीं थे, वह क्षुद्र मानसिकता वाले, निंदक, स्वार्थी, प्रतिशोधी, सिद्धांतहीन, अहंकारी नहीं थे. यही वजह है कि एक अरब से अधिक लोग दशकों से उन्हें अपने सबसे प्रिय नेता के तौर पर याद करते हैं.
पोस्टस्क्रिप्ट: कलाम पर मेरी पसंदीदा स्टोरी मेरे शुरुआती दिनों की है. 1994 में भारत कथित इसरो जासूसी घोटाले की चपेट में आ गया था. आरोप लगाया गया था—और व्यापक तौर पर ऐसा माना भी जा रहा था—कि पाकिस्तानी खुफिया विभाग ने मालदीव की दो महिलाओं का इस्तेमाल करते हुए इसरो के दो प्रख्यात वैज्ञानिकों को हनी ट्रैप में फंसा लिया है और रणनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण रॉकेट से जुड़ी जानकारियां हासिल कर ली हैं. इंडिया टुडे के लिए इस पूरे घटनाक्रम की पड़ताल करते हुए मुझे सारी कहानी गड़बड़ और काल्पनिक लगी. मैगजीन में छपी स्टोरी ने इस मामले में केरल पुलिस और खुफिया ब्यूरो के दावों को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया. वैज्ञानिकों को पूरे सम्मान के साथ बरी कर दिया गया, केस वापस हुए और अंततः सुप्रीम कोर्ट ने उन लोगों को नकद मुआवजा देने का आदेश दिया.
इन वैज्ञानिकों में से एक नंबीनारायणन ने अपनी हालिया आत्मकथात्मक किताब में भी इस बात का जिक्र किया है. लेकिन उस समय अगर कोई धारणा बन जाती थी तो उसके विरुद्ध खड़े होना काफी मुश्किल और तनावपूर्ण होता था. यहां तक कि इंटरनेट आने से पहले के दिनों में किसी मिथ को तोड़ने का प्रयास करने वाले हम जैसे लोगों को काफी दुर्व्यवहार सहना पड़ता था.
इसके बाद, सेना दिवस (15 जनवरी) के स्वागत समारोह में डीआरडीओ के तत्कालीन प्रमुख कलाम ने मुझसे कुछ मिनट बातचीत की. इस दौरान उन्होंने धीरे से मेरे सीने पर बाईं ओर थपथपाया और कहा—तुमने जो किया है वह हमारे दिल के घावों पर मरहम लगाने जैसा है. मैंने उनसे पूछा कि आखिर बात क्या है, तो उन्होंने कहा—इसरो स्टोरी. उन्होंने आगे कहा—वे वैज्ञानिक शानदार लोग हैं और पूरी तरह निर्दोष हैं, इस झूठे मामले ने मेरे इसरो (जहां उन्होंने मूल रूप से काम किया था) को बर्बाद कर दिया होता.
शेखर गुप्ता ‘दिप्रिंट’के एडिटर-इन-चीफ तथा चेयरमैन हैं