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सर्वोच्च संवैधानिक पद को राजनीति के दलदल में लाकर सरकार भला क्या साबित करना चाहती है? 

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महेंद्र मिश्र

केंद्र की मोदी सरकार लोकतंत्र, उसकी तमाम संस्थाओं और उसके ढांचे को कैसे कमजोर किया जाए हर समय इसी की जुगत में लगी रहती है। इस कड़ी में उसने ‘एक देश, एक चुनाव’ के मसले पर पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद के नेतृत्व में एक कमेटी के गठन के जरिये इस काम को आगे बढ़ाया है। एक पूर्व राष्ट्रपति ने जो दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद को संभाल चुका है। उसे राजनीति के दलदल में लाकर सरकार भला क्या साबित करना चाहती है? ऐसा होने पर राष्ट्रपति की पद, प्रतिष्ठा और उसकी जो गरिमा है क्या वह बरकरार रह सकेगी? पूर्व राष्ट्रपति रहते भी वह प्रोटोकॉल में ऊपर के हिस्से में अपना स्थान रखते हैं। लेकिन जब इस तरह से कोई शख्स इस तरह की किसी राजनीति का हिस्सा बनेगा तो क्या उसका उसी तरह से मान-सम्मान बना रहेगा? 

इस देश में यह पहला अवसर है जब इस तरह से किसी पूर्व राष्ट्रपति को किसी राजनीतिक मामले में खींचा जा रहा है। अवलन तो राम नाथ कोविंद को यह प्रस्ताव स्वीकार ही नहीं करना चाहिए था। और शायद उन्होंने यह कोशिश भी की होगी। क्योंकि जो रिपोर्ट आ रही हैं उनके मुताबिक तीन दिन पहले आरएसएस चीफ मोहन भागवत ने उनसे मुलाकात की थी। और फिर घोषणा के दिन बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा उनके घर गए थे। और इन मुलाकातों के बाद ही इस मसले पर बनी कमेटी के मुखिया के लिए उनका नाम घोषित किया गया। लेकिन न चाहते हुए भी अगर कोविंद को यह प्रस्ताव स्वीकार करना पड़ा है। तो इसके पीछे के कारण को समझना किसी के लिए मुश्किल नहीं है। जो पीएम मोदी की बात नहीं मानता है या फिर जो विरोध करता है उसका सरकार क्या हश्र करती है यह बात किसी से छुपी नहीं है। 

जम्मू-कश्मीर के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर सत्यपाल मलिक ने जैसे ही इनके खिलाफ जाने की कोशिश की उनके साथ सत्ता ने क्या व्यवहार किया वह पूरा देश देख रहा है। जम्मू-कश्मीर का गवर्नर रहने के बाद वैसे भी आतंकियों की सूची में उनका नाम सबसे ऊपर हो गया होगा। ऐसे में उन्हें सबसे मजबूत सुरक्षा व्यवस्था की जरूरत थी। लेकिन सुरक्षा के नाम पर उन्हें महज एक कांस्टेबल दिया गया है। और वह किसी सरकारी बंगले में नहीं बल्कि दो कमरे के एक रेंटेड फ्लैट में रहने को मजबूर हैं।

दरअसल इसके जरिये बीजेपी कई निशाने साधना चाह रही है। कमेटी के मुखिया के तौर पर एक पूर्व राष्ट्रपति को पेश कर वह संदेश देना चाह रही है कि इसके पीछे कोई राजनीतिक उद्देश्य नहीं है। और एक राष्ट्रपति के जरिये उसका समर्थन किए जाने से जनमत के एक बड़े हिस्से को स्वाभाविक तौर पर अपने पक्ष में करना आसान हो जाएगा। इसके साथ ही खड़गे के कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद सबसे बड़े विपक्षी दल के पास एक दलित चेहरा आ गया है। ऐसे में चूंकि कोविंद दलित समुदाय से आते हैं लिहाजा उसको भी काउंटर करने में उसको मदद मिलेगी। लेकिन यह सिलसिला अगर आगे बढ़ा तो पता चला कि पूर्व राष्ट्रपति कहीं लोकसभा चुनाव न लड़ रहे हों या फिर किसी निगम पार्षद के लिए चुनाव मैदान में उतार दिए गए हों। इसके साथ ही संविधान में किसी तरह की छेड़छाड़ को संविधान निर्माता भीम राव अंबेडकर पर हमले के तौर पर देखा जाता है। और इससे सबसे ज्यादा भावनात्मक तौर पर अगर कोई प्रभावित होता है तो वह दलित समुदाय है। लिहाजा इस तरह के किसी बड़े बदलाव से एक बार फिर ऐसी स्थिति खड़ी होने की आशंका है। उससे बचने और उसे दीवार बनकर रोकने के लिए भी कोविंद जैसे शख्स की जरूरत पड़ सकती है। 

यह कोई पहली घटना नहीं है जब इस तरह के संवैधानिक पद पर बैठे शख्स का इतना बेजा इस्तेमाल किया गया हो। इसके पहले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई का भी इसी तरह से इस्तेमाल किया गया था। हमें नहीं भूलना चाहिए कि रंजन गोगोई उन चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस का हिस्सा थे जिन्होंने न्यायपालिका की स्वतंत्रता का सवाल उठाया था। लेकिन उन्हें सुप्रीम कोर्ट के एक अंदरूनी सेक्स से जुड़े मामले में फंसाकर घेर लिया गया। और उसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट के न केवल फैसले अजब-गजब आने लगे बल्कि उनके रिटायर होने के बाद मनोनीत कर उन्हें राज्य सभा में भेज दिया गया। और उन्होंने बीजेपी को वहां रहकर वह फायदा पहुंचाया है जो शायद ही आज तक कोई मनोनीत सदस्य कर सका हो। एक दौर में संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर के कट्टर समर्थक रहे गोगोई को अचानक यह बुनियादी ढांचा खटकने लगा और सदन में उन्होंने सत्ता के पक्ष में जबर्दस्त बैटिंग की और सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच द्वारा पास किए गए संविधान के बुनियादी ढांचे की प्रस्थापना को तार-तार करने की हरचंद कोशिश की।

दरअसल बीजेपी संविधान को लुगदी बनाकर डस्टबिन में फेंक देना चाहती है। लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है। उसके लिए उसको सबसे पहले उससे जुड़ी और उस पर निर्भर तमाम संस्थाओं को कमजोर करना होगा। बीजेपी उसी काम में लगी हुई है। वह न्यायपालिका से लेकर संसद तक और राष्ट्रपति पद से लेकर चुनाव आयोग तक बारी-बारी से सब पर कु्ल्हाड़ी और गिनती लेकर जुट गयी है। और कदम दर कदम उन्हें कमजोर करने की कोशिश कर रही है। और इनके कमजोर होने के साथ ही उसके लिए संविधान को बदलना और फिर उसे अप्रासंगिक बना देना आसान हो जाएगा।

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