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अदब और तहजीब सिखाते ‘ मुजरों ‘ से आपने क्या सीखा है?

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विवेक रंजन सिंह 

रियासतो की विरासत हो या राजनीति की सियासत, हमें हमेशा ही कुछ न कुछ सीखने को मिला ही है। अब रियासतें तो रहीं नहीं, जो हैं भी वो भी राजनीति की शिकार हो चुकी हैं ऐसे में हमें पुरानी विरासतों में झांककर देखना पड़ेगा कि वहां से हम क्या सीख सकते हैं जिसकी आज की राजनीति में सबसे ज्यादा जरूरत है। हमें राजनीति को कुछ दिनों के लिए अतीत की दुनिया में ले जाकर उन्हें उनकी ही समृद्ध विरासत के दीदार कराने की जरूरत है। तो मैं इसकी उंगली पकड़ता हूं और ले चलता हूं भारत की संगीत और नृत्य परंपरा को समृद्ध करने वाले उन भवनों में जिन्हें आप ‘ कोठों ‘ के नाम से जानते हैं। आश्चर्य न करिए, हम उन्हें नृत्य और गाना बजाना सिखाने नहीं ले जा रहे हैं, हम उन्हें बस इतना दिखाने ले जा रहे हैं कि अदब और तहजीब कैसे सीखी जाती है। बोलने चालने की तहजीब और भाषा की अदब। 

देखिए हमें लगता है कि इस समय भाषा का पतन जिस वेग से बढ़ता जा रहा है उसमे बहुत जरूरी है कि इन राजनेताओं को समय यंत्र के जरिए उस दौर में ले जाया जाए,जहां से ये कुछ तो सीख पाएं। मगर इससे पहले इनको कुछ दिन तक इस बात का प्रशिक्षण देना होगा कि ये महफिलों में जाने के बाद अपना कार्य व्यवहार कैसा रखें। क्योंकि इस समय इनका आचार विचार इतना दूषित हो चुका है कि एकाएक महफिल में जाने पर ये उसे भी दूषित कर देंगे। तो हम इनको कुछ दिन बिठाकर महफिलों और कोठों का इतिहास पढ़ाएंगे। इनको बताएंगे कि कैसे बड़े बड़े संगीत घराने इन्हीं कोठों की गलियों से निकलें और बड़े बड़े रियासतदार और राजा अपने राजकुमारों को इन कोठों पर अदब और तहजीब सीखने के लिए भेजा करते थे। लेकिन हमें सतर्क रहना होगा, जब हम इनको ये पाठ पढ़ा रहे हों तो इनकी आंखों पर पट्टी बंधी हो। जिससे ये सिर्फ सुनकर उसे महसूस कर पाएं। इनकी पट्टियां सीधे उन्हीं महफिलों में खोली जाएंगी। इनमें से हो सकता है कुछ वहां के दृश्यों को देखकर विचलित हो जाएं और चरित्र से ढीले कुछ लोग किसी खुराफात पर उतर आएं। इसलिए आंखों पर लगी पट्टियों को धीरे धीरे खोला जाएगा। 

लय, सुर और ताल का महत्व सिर्फ गीत संगीत में ही नही है बल्कि जीवन में भी इसका बड़ा महत्व है। हमें अपने जीवन को भी इन्हीं लय और ताल के साथ जीना आना चाहिए। संगीत के जैसे ही हमारे आचार विचार व्यवहार का भी एक विधान होना चाहिए। ऐसे ही थोड़े न कबीर ने कह दिया है कि ‘ हिये तराजू तौलि के तब मुख बाहर आनि ‘। साहित्य जगत के निबंधकार प्रतापनरायण मिश्र ने भी कहा है कि बात की बात बड़ी करामात है। बातहि हाथी पाइए, बातहि हाथी पांव। मगर अब जब बोली और बात को लोग बिना सोचे समझे मुंह से फेंक रहे हैं तो उनको भाषा की तालीम लेनी जरूरी है। और अदब सीखने की इससे अच्छी जगह क्या हो सकती है,तो चलिए एक एक करके इन्हें महफिल में बिठाया जाए।

सारंगी,तबला और घुंघरू की मद्धम मद्धम आवाज के साथ सभी का स्वागत किया जाए। नर्तकियां परिचय संगीत के साथ महफिल में आएं और एक एक करके अपना परिचय दें। फिर सुरीली राग में इन्हें कुछ ऐसे नगमे सुनाएं जाएं जिनसे इनके अंतर्मन में संगीत का रस पूरी तरह घुल जाए। जब लगे कि ये सहज हो रहे हैं तो धीरे धीरे इनकी आंखों से पट्टियां हटाई जाएं। रागों का परिचय दिया जाए। उसके विषय में बताया जाए। बैठने का सलीका सिखाया जाए और ये भी बताया जाए कि तारीफ में दाद कैसे देनी हैं। ये नहीं कि जब मन आया ‘ वाह वाह ‘ कर दिए। पट्टियां हटाते समय हमें यह भी जान लेना होगा कि इनकी आंखों पर कोठा, तवायफ आदि के नाम पर जो पट्टियां आंखों पर पहले से ही पड़ी हैं,वो खुली कि नहीं। फिर शुरू किया जाए ‘ मुजरा ‘।

मुझे लगता है कि कोठों पर बैठे बैठे ही इन्हें पौराणिक काल की कथाओं में भी ले जाना जरूरी है क्योंकि कुछ तो इतिहास को भी मानने में कंजूसी करते हैं। कंजूसी नहीं बल्कि उनसे उन्हे चिढ़ जैसी है। वो कहते हैं कि ये कोठे और मुजरे मुगलों की चाल है। उन्होंने उनकी संस्कृति का नाश करने के लिए ऐसे माहौल समाज में बनाए। तो इसके लिए जरूरी है कि उन्हें किसी विशेष माध्यम या यान से स्वर्ग लोक ले जाया जाए जहां इंद्र की सभा में देवताओं के सामने अप्सराएं नृत्य कर रहीं हों या वहां जहां रामायण और महाभारत काल में गणिका या किन्नरों के नृत्य गान चल रहे हों। सुरापान करते देव और दनुज अप्सराओं के नृत्य पर झूम रहे हों और भोग विलास में मग्न हो। इन्हें आदि और अनादि संस्कृति का भी दर्शन करना आवश्यक है वरना ये ठीक से ‘ मुजरों ‘ का इतिहास नहीं समझ पायेंगे। इन्हें यह समझना होगा कि मुजरा करना शीलता की निशानी है या फिर अश्लीलता की। मुजरों की महफिल में क्या सिखाया जाता है या फिर मुजरों से क्या चीजें सीखी जा सकती हैं।

जब हम मुजरा पर सवाल उठाते हैं तो हम सवाल उस समाज पर भी उठाते हैं जिन्होंने इन मुजरा और मुजरा करने वाली नृत्यांगनाओं को मजबूर किया। और फिर मुजरे को हम इतना हीन भावना से देखे ही क्यों? कोठों का अपना समृद्ध इतिहास रहा है। बड़ी बड़ी गायिकाएं कोठों की पृष्ठभूमि से निकली हैं। संगीत के बड़े बड़े घराने भी यहीं से निकले हैं तो फिर हमें भी तालीम लेनी चाहिए इस पवित्र स्थान से।

अब जब ये बेसुरे, बेढंगे और बेसहूर लोग भाषा की थोड़ी बहुत मर्यादा सीख जाएं तो इन्हें वापस इनकी दुनिया में लाया जाए और इनकी परीक्षा कराई जाए। मगर यहां तो परीक्षा भी पारदर्शी नहीं रह गई है ऐसे में ये सिद्धांत भले ही सीख जाएं मगर उसे व्यवहार में ला पाएंगे कि नहीं, यह आशंका बनी रहेगी। गणिका,तवायफ,बाई से लेकर आज प्रयुक्त होने वाले अश्लील शब्द तक पहुंचने में यह साफ साफ झलकता है कि हमने कैसे अपनी संस्कृति को खुद मैला किया। 

ये महफिलें आज के तथाकथित सभ्य समाज से कहीं ज्यादा ही तहजीबदार रही हैं, जिन्हें बोलने और कहने का सलीका पता था। जिन्हें ये अच्छी तरह पता था कि कब कैसे क्या बोला जाना है। हमनें अदब का माने सिर्फ साहित्य का ज्ञान समझा है, जबकि समझना पड़ेगा कि अदब का दायरा बहुत विस्तृत है। अदब हमें सिखाता है कि शब्द को सिर्फ शब्द नहीं मानना है बल्कि उनसे अंदर के निहित भाव की जांच परख करना जरूरी है। हमें यह भी सीखना होगा कि इंसान की बोल चाल और उसकी चाल चलन उसके व्यक्तित्व को समझने के लिए काफी है। ऐसे में यह तहजीब तो सिर्फ कोठों से हो सीखी जा सकती है और उसके लिए हमें इन लोगों को  ‘ मुजरे ‘ से सजी महफिल में ले जाना जरूरी है। और अगर फिर भी न समझ आए तो इन्हे सिनेमा हाल ले जाकर संजय लीला भंसाली की सीरीज ‘ हीरामंडी ‘ ही दिखा दी जाए, बताइए सही कहा ना मैंने?

विवेक रंजन सिंह 

( छात्र, पत्रकारिता विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा महाराष्ट्र)

नंबर 9140586154

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