दिलीप कुमार
गुरुदत्त साहब का नाम जेहन में आते ही आता है, एक अधूरापन, कुछ टूटा बिखरा हुआ… सिनेमा का वो स्वर्णिम दौर जिसमें गुरुदत्त साहब का अविस्मरणीय योगदान हमेशा याद रहेगा.. कहते हैं प्रतिभा उम्र की पाबंद नहीं होती… गुरुदत्त साहब के लिए यह बात उस दौर में सटीक बैठती थी. फिर चाहे महबूब खान, विमल रॉय, बलराज साहनी, सोहराब मोदी, सत्यजीत रे, देव साहब हो, या दिलीप साहब, या राज कपूर साहब ही क्यों न हों… गुरुदत्त साहब लगभग सभी से उम्र में छोटे ही थे, लेकिन इन सभी बड़े – बड़े धूमकेतुओ के बीच गुरुदत्त साहब सूर्य की भांति चमकते थे. सभी गुरुदत्त साहब की पर्सनैलिटी… उनकी दार्शनिकता के कायल थे… सिनेमा समाज का दर्पण होता है,जब तक समाज है, तब तक सिनेमा रहेगा.. गुरुदत्त साहब सिनेमा की आत्मा थे.. अनन्त काल तक जिवित रहेगें..
गुरुदत्त साहब के बिना समस्त विश्व सिनेमा का इतिहास अधूरा है. पूरे जहाँ में लगभग हर फ़िल्म एवं पत्रकारिता संस्थान में जहाँ सिनेमा की तकनीकी शिक्षा दी जाती है. वहाँ गुरुदत्त साहब की तीन क्लासिक कल्ट फ़िल्मों को टेक्स्ट बुक का मुकाम हासिल है. गुरुदत्त साहब की प्रसिद्धि का स्रोत बारीकी से गढ़ी गई, उदास व चिंतन भरी उनकी तीन बेहतरीन फ़िल्में हैं उन फ़िल्मों का ज़िक्र किया जाए तो वो है ‘प्यासा’ ‘कागज़ के फ़ूल’ और ‘साहिब, बीबी और गुलाम’… वैसे हमारे जैसे न जाने कितने लोगों से गुरुदत्त साहब अपनी रचनात्मक यात्रा के ज़रिए जुड़ते चले गए. वो यात्रा आज भी चल रही है.. बचपन से ही गुरुदत्त साहब हमारे दिलो दिमाग में घर बना चुके थे… हम वीसीआर, दूरदर्शन देखकर बड़े हुए हैं.. प्यासा, काग़ज के फूल, जैसी कल्ट फ़िल्में इतनी बार देखा है, कि मुँह जुबानी याद हैं.. उनके गाने गुनगुनाते हुए, बड़े हुए.. यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता की पढ़ाई करने पहुंचे.. जैसे ही फिल्म जर्नलिज्म का लेक्चर शुरू होता, सत्यजीत रे, विमल रॉय, ऋषिकेश मुखर्जी, आदि से भी ज्यादा गुरुदत्त साहब का ज़िक्र होता… गुरुदत्त साहब हमारे पसंदीदा होते गए. ख़ासकर जो बचपन से ही देखा, सुना था, वही हमारा सिलेबस था. एक से बढ़कर एक फ़िल्में देखने को मिलती थीं, फिर हमें समीक्षा भी कारवाई जाती. बहुत आनन्द आता था.. कभी – कभार सोचता हूं, गुरुदत्त साहब न होते तो सिनेमा साहित्य की दुनिया में एक अधूरापन ज़रूर होता. बचपन से लेकर यूनिवर्सिटी के दौर में और अब तक गुरुदत्त साहब हमारे लिए सबसे बड़े हीरो हैं… और कयामत तक हमारे नायक रहेगें.
गुरुदत्त साहब की अज़ीम शख्सियत जेहन में आती है, तो हमेशा दुःख होता है. सब कुछ जानते हुए भी कि गुरुदत्त साहब को गुरुदत्त साहब ने मारा… फिर भी एक सवाल मन में कौंध उठता है ‘ऐसे सृजनात्मक संस्थानों का शटर इतनी जल्दी क्यों गिर जाता है? गुरुदत्त साहब की रची गई दुनिया में उनके अलावा कोई दिखता ही नहीं है. फिर दिमाग में एक सुकून की लहर उठती है. कि गुरुदत्त साहब मरे ही कब थे. हमेशा अपनी कलात्मक, फिल्मी के लिए अमर रहेंगे… गुरुदत्त अन्तर्मुखी व्यक्तित्व थे. कोई सृजनशील व्यक्ति जब अपने आप में डूबा होता है, तो वो हमेशा ख्वाबों की वादियों में भटकता रहता है.. डूबे व्यक्ति अपने आप में बहुत जिद्दी होते हैं. गुरुदत्त साहब एक जुनून, जिद का भी नाम है..
गुरुदत्त के मुकुट में एक से बढ़कर एक नगीने चमकते थे.. जो उनकी करिश्माई यात्रा के गवाह हैं. जिनमें चौदहवीं का चांद वहीदा रहमान, का फिल्म सीआईडी से परिचय कराया. अबरार अल्वी, जॉनी वॉकर, राज खोसला, एवं हिन्दी सिनेमा की आँखे वीके मूर्ति जैसे दिग्गजों को गुरुदत्त साहब ने हिन्दी सिनेमा की गली दिखाई थी… अपनी इसी टीम के साथ. मिलकर ‘प्यासा’ ‘काग़ज़ के फूल’ साहिब बीवी और गुलाम, आर – पार, जैसी फ़िल्मों से गुरुदत्त साहब ने अपनी सिनेमा, साहित्य की दुनिया खड़ी कर दी थी… गुरुदत्त साहब की फ़िल्मों में उनका फिल्मांकन, संगीत, ख़ासकर कैमरा एंगिल के डीटेल्स के साथ ब्लैक एंड व्हाइट छाया, एवं लाइट का अद्भुत सफल प्रयोग एवं नृत्य का अहम स्थान, बहुत कम ही लोगों को पता होगा गुरुदत्त साहब एक क्लासिकल नर्तक भी थे. उनकी सिनेमाई समझ रोमांचित कर देती है.
सिनेमैटोग्राफी वाली फिल्में सभी की पसन्दीदा होती हैं.. लाइट और छाया में कल्पनाशीलता का प्रयोग, जो दर्शकों को आकर्षित करते, हुए यथार्थ से जोड़ दे.. कहानी में कथानक से जोड़े रहने की कला फ़िल्मों में कालजयी संगीत के साथ मंत्रमुग्धकारी सिनेमाई समझ विकसित करने के लिए गुरुदत्त साहब को हिन्दी सिनेमा के सबसे महान, दार्शनिक फ़िल्मकारों में शुमार करा दिया… बचपन से एक सवाल उठता था कि इन फ़िल्मों में ऐसा क्या है ! कि आज भी दीवानगी सिर चढ़कर बोल रही है? वैसे भी कई क्लासिक फ़िल्में थोड़ा बोरिंग भी लगती हैं, लेकिन उनका प्रभाव धीरे-धीरे होता है.. फ़िल्मों के ज़रिए गुरुदत्त साहब ने सिनेमा के जरिए लगभग सभी को एक आईना ज़रूर दिया है, जिसमें हर कोई अपना-अपना चेहरा देख सकता है.. गुरुदत्त साहब ने कमाल का सिनेमा रचा. जो लोगों को उनसे जोड़ता है…
गुरुदत्त साहब ने एक से बढ़कर एक क्लासिक कल्ट फिल्मों से हमें रूबरू कराया. उनकी सभी विश्वस्तरीय मास्टरपीस फ़िल्में हैं. फ़िल्मों में कर्णप्रिय संगीत के साथ ही.. आम ज़िन्दगी पर फ़िल्मों का निर्माण किया था… आम दर्शक उनके सिनेमा में डूबते चले गए. गुरुदत्त साहब अपने आप में सिनेमा का एक संस्थान थे. अभिनय /निर्देशन /कोरियोग्राफी, एडिटिंग, लेखन, नृत्य वहीँ संगीत के प्रति कमाल की समझ थी… हालाँकि अभिनय में उनकी ज्यादा रुचि नहीं थी.. हालाँकि उनकी जितनी भी कल्ट फ़िल्में हैं लगभग सभी फ़िल्मों में उन्होंने कालजयी अभिनय किया है.. बड़े से बड़े अदाकार उनकी अदाकारी के कायल थे.. गुरुदत्त साहब ने प्यासा फिल्म में दिलीप साहब को साइन कर लिया था, लेकिन दिलीप साहब ने फिल्म के मुहूर्त में आने में देर कर दी. गुरुदत्त साहब ने उन्हें फिल्म से अलग करते हुए खुद अभिनय किया… फिर जो कुछ हुआ इतिहास है.. इसी फिल्म में अभिनय करते हुए उन्हें लगा कि वो अभिनय भी कर सकते हैं..
उन्होंने अपनी कल्ट फ़िल्मों के ज़रिए कई नए तकनीकी प्रयोग भी किए. प्रयोगवादी गुरुदत्त साहब ने फ़िल्म बाज़ी में दो नए प्रयोग किए जो आज भी पाठ्यक्रम हैं… एमएम के लेंस का क्लोज़ अप के लिए इस्तेमाल पहली बार किया – करीब चौदह बार इससे पहले कैमरा इतने पास कभी नही आया.. उन दिनों कलाकारों को बड़ी असहजता के अनुभव से गुज़रना पडा. कैमरे के स्टाईल का नाम ही गुरुदत्त शॉट पड़ गया था.. किसी भी फ़िल्म्स में पहली बार गानों का उपयोग कहानी कोई आगे बढ़ाने के लिए किया गया.. वैसे ही फ़िल्म ‘काग़ज़ के फूल’ हिन्दुस्तान में सिनेमा स्कोप में बनी पहली फ़िल्म थी! दरअसल, इस फ़िल्म के लिए गुरुदत्त कुछ अनोखा, कुछ हटके करना चाहते थे, जो आज तक भारतीय फ़िल्म के इतिहास में कभी नही हुआ. संयोग से तभी एक हालीवुड की फ़िल्म कंपनी “20 वीं सेंचुरी फॉक्स” नें उन दिनों भारत में किसी सिनेमा स्कोप में बनने वाली फ़िल्म की शूटिंग ख़त्म की थी. उसके स्पेशल लेंस बंबई में उनके ऑफिस में छूट गए थे. जब गुरुदत्त को इसका पता चला तो वे अपने सिनेमाटोग्राफर वी के मूर्ति को लेकर तुंरत वहाँ गए. लेंस लेकर कुछ प्रयोग किए. रशेस देखे और फ़िर फ़िल्म के लिए इस फार्मेट का उपयोग किया.
गुरुदत्त साहब हरफ़नमौला अदाकार भी थे. प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व में एक मूल भाव होता है. गुरुदत्त साहब की पर्सनैलिटी दुखांत थी.. जिससे उनके व्यक्तित्व में एक अधूरापन रहा.. जो उन्हें कचोटता रहा. हर समय, एक अशांतता रही. अपनी निजी ज़िन्दगी के कारण एक अशांत, अधूरे, भावुक प्रेमी के रूप में, दुनिया नें उन्हें जाना… फिर गुरुदत्त साहब के प्रति एक दार्शनिक सोच…मात्र एक विचार , एक स्वर.. ही रह जाता है… बचपन से ही मेरे छोटे से दिमाग में एक बात आती थी, कि गुरुदत्त साहब जैसे व्यक्ति क्या खुदकुशी कर सकते हैं! एक मनहूस दिन आया, गीता दत्त अपने बच्चों के साथ गुरुदत्त साहब से नाराज़ होकर चली गई थीं. गुरुदत्त साहब शराब में डूब चुके थे. उनके साथ उनके सबसे अच्छे दोस्त अबरार अल्वी थे. दोनों साथ में खाना खाते थे, मगर उस रोज अबरार बिना खाना खाए चले गए. गुरुदत्त साहब ने भी खाना नहीं खाया. नशे में धुत गुरुदत्त साहब ने गीता को फोन किया और कहा वो बच्चों से मिलना चाहते हैं. गीता ने मना कर दिया. गुरुदत्त साहब ने नींद की गोलियां खाईं और सो गए… फिर उनकी कभी सुबह नहीं हुई.
हालांकि उनकी बहन ने एक इंटरव्यू में बताया था, ‘अबरार ने उन्हें सलाह दी, कि वे कभी भी नींद की गोलियों के साथ शराब न मिलाएँ . गुरुदत्त साहब को नींद की समस्या थी. शायद, यह खाली पेट नींद की गोलियों और शराब का एक घातक हो गया. जिससे उनकी जान चली गई. इसे जानबूझकर आत्महत्या जैसा नहीं माना जा सकता. हालाँकि कुछ भी न जानते हुए लोग हमेशा कयास लगाते हैं, किस ने क्या किया क्यों किया. गुरुदत्त साहब की बहिन ने कहा कि यह आत्महत्या नहीं है. सिर्फ एक दुर्घटना है….
गुरुदत्त साहब के जाने से गीता दत्त पूरी तरह खामोश हो गईं थीं. उन्होंने घर सम्भालने से पहले ही गाना बंद कर दिया था. गुरुदत्त साहब की याद में गीता उन्हीं की तरह शराब में डूबने लगीं. घर चलाने के लिए वह छोटे मोटे शोज में परफॉर्म करने लगीं. गुरुदत्त साहब की बहन ललिता लाजमी के एक इंटरव्यू के मुताबिक, ‘गीता उनकी मृत्यु से तबाह हो गई थी. बंगाली परंपरा के अनुसार उसने एक साल तक सफेद कपड़े पहने. बाद के वर्षों में, मैं उससे अक्सर मिलती थी, लेकिन ज्यादातर समय वह नशे में रहती थी. वह शराब की छोटी बोतलें बुक शेल्फ में, बाथरूम में छिपाकर रखती थी. कोई अपनी ज़िन्दगी में क्या इतना अकेला हो जाता है! कि कोई हाथ कांधे पर रखने वाला नहीं होता. वक़्त किसको कहाँ पहुंचा दे, कोई भी नहीं जानता. आपार दुःख में जी रहीं गीता दत्त अपने प्रेमी गुरुदत्त साहब के दुनिया छोड़ कर जाने के बाद ज्यादा जिंदा नहीं रह सकीं. बहुत कम उम्र में ही दुनिया छोड़ कर चली गईं. मुझे गुरुदत्त साहब और गीता दत्त के बारे में नकारात्मक फूहड़ता बेचती मैग्ज़ीन, यूट्यूब में गंध फैलाते लोगों से सख्त घृणा होती हैै. हमारी कला के दो महान स्तंभों के बारे में ऐसे फूहड़ता बेची जाती हैं, क्या पैसे से ज्यादा कुछ नहीं है? इस सूत्रों के हवाले वाली पत्रकारिता ने न जाने कितने घरों को मिट्टी में मिला दिया है… काश गुरुदत्त साहब आते और अपनी मौत का सच जाहिर कर पााते की सच्चाई क्या है. जिनको गुरुदत्त साहब के बारे में कुछ भी नहीं पता वो भी ज्ञान देते हैं, कि उनको ऐसे नहीं करना चाहिए था. ऐसा करते वैसा करते.. गीता दत्त जो गुरुदत्त साहब के प्यार में सब कुछ छोड़कर उनके लिए ही जीने लगी थीं. उन्होंने अपनी गायिकी तक उनके लिए छोड़ दिया था, जो इस बात को भी सिद्ध कर गईं की वो अपने पति गुरुदत्त साहब के बिना नहीं रह सकतीं… उस महिला के लिए लोग कुछ भी लिखते हैं… काश गुरुदत्त साहब आकर सच्चाई बयां करते…. ख़ैर सब यादें हैं. गुरुदत्त साहब और गीता दत्त जी का प्रेम शाश्वत सत्य है… आज बहुत से लोग गुरुदत्त साहब को संकीर्ण, जिद्दी इंसान कहकर निंदा करते हैं.. उन्हें सोचना चाहिए. गुरुदत्त साहब न कभी मरे थे.. न मरेंगे.. वैसे भी इस निरंकुश दुनिया में बहुत मुश्किल होता है गुरुदत्त होना.. गुरुदत्त साहब को मेरा सलाम..
Dileep Kumar Pathak