डॉ. विकास मानव
(निदेशक : चेतना विकास मिशन)
*अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथारसं नित्यमगन्धवच्च यत्।*
*अनाद्यन्तं महतः परं ध्रुवं निचाच्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते।*
(कठोपनिषद :1/3/15)
वह शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध से रहित है, तथा अव्ययम्=विनाश के गुणों से रहित है, जबकि बुद्ध, राम, कृषण सभी मरे तो मरणधर्मा मे ईश्वर बुद्धि करनेवाला तो इस व्याख्यानुसार अंधकार मे भटक रहा हैं।
_वह अनाद्यन्तं=आदि अंत से रहित यानी असीम है, तो किसी व्यक्ति के रूप मे ससीम किसने बनाया? वह महतत्त्व और अटल है अर्थात् सर्वत्र है इसलिए उसे चलने फिरने की आवश्यकता ही नही है, तो वृन्दावन से मथुरा और अयोध्या से लंका क्यों गया? क्या सर्वत्र मे लंका और मथुरा सम्मिलित नही है?_
उस परमात्मा को निचाच्य=जानकर मनुष्य,,मृत्युमुखात् प्रमुच्यते,, अर्थात् मृत्यु के मुख से छूट जाता है, तो क्या विद्वान् रावण ने ऐसा नही जाना होगा? यदि नही जाना तो उसे विद्वान् और ब्राह्मण कहना बंद करो और यदि जाना तो उसे दोष क्यों? वह तो काल को चुनौती दिया था और काल के सामने कोई टिकता नही, ऐसा क्यों नही पारिभाषित करते?
*ऋगवेद- 3/59/12/ की शब्दावली :*
भूर्भुवःस्वः तत्सवितुर्वरेण्यं. तीनों लोकों मे जो सविता व्याप्त है हम उसका वरण करते हैं.
ऋगवेद : 7/59/12/ में जो त्र्यम्बक़ं यजामहे है, उसकी भी परिभाषा नही मानते जो कहता है कि तीनो लोकों मे जो कुछ भी है उस सब की हम स्तुति करते हैं.
ऋगवेद/1/15/10/ मे ऋषि ने कहा है : द्रविदोणो यजामहे. और अध स्मा नोददिर्भव. अर्थात् जो तुरीय है उसी की स्तुति करना चाहिए, उसे छोड़कर जो कोई अन्य पदार्थ, तत्व या गुणों मे ईश्वर बुद्धि करके उसकी स्तुति करता है उस जीव को कर्मफल प्राप्त नही होते।
*योगदर्शन* (सूत्र/2/3) कहता है : अविद्याsस्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः।
अविद्या के बने रहते हुए यथार्थ ज्ञान असंभव है, और ज्ञानी को भी अभिनिवेश का भय होता है।
परमात्मा रसहीन (कठो०/1/3/15) है। विद्यावान् अनाप-शनाप प्रश्न न करके कहेगा कि त्रद्वै तत्सुकृतं रसो वै सः (तैतरीय उपनिषद). यानी वह परमात्मा रसमय है तो आप रसहीन क्यों बता रहे हैं?
तैतरीयोपनिषद में आया “रसो वै सः” का प्रसङ्ग आनन्द के लिए है। यह कठोपनिषद के तथारसं शब्द के असंगत नही है.
_वहाँ रसहीन से आशय है कि वह स्वयं कोई क्रिया नही करता और यहाँ रस का अर्थ आनंद से है।_
परमात्मा का नाम परमानंद भी हैं. वह आनंद के सिवा कुछ नही है. उसका निवास सिर्फ और सिर्फ आनंद मे है।
रसँःह्येवायं लब्ध्वाssन्न्दी भवति.
इस रसमय आनंद को पाकर मनुष्य आनन्दी भवति अर्थात् आनंदित हो उठता है. इतना ही परमात्मात्व है।
_तो आनंदित होना ही जीवन है. वह हर काम करना आपका स्वधर्म धर्म है, जो आपको आनंदित करे : अकारण किसी को पीड़ित किये बिना._
इसके अतिरिक्त संसार मे कोई परमात्मा नही है और यह आनंद.स्वयं को होता है इसलिए यह किसी अन्य को दिखाया भी नही जा सकता, इसलिए वह होते हुए भी अदृश्य है।
*श्रीकृष्ण का कथन :*
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।
भाव कुछ भी हो सकता है. ईश्वर, देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी, कीटपतङ्ग, पुत्र, धन-ऐश्वर्य, मकान-जमीन आदि कुछ भी।
_अन्तकाल मे मरते समय जिस भाव की प्रबलता होती है यानी जो वस्तु स्मरण मे आती है अर्थात् काया का कलेवर जिस भाव के होते हुए बदलता है, मनुष्य उसी भव (संसार) को प्राप्त होता है।_ इस समय सिर्फ़ और सिर्फ़ उसी भाव की प्रबलता होती, जिसे इंसान अब तक जीया हुआ होता है.
जब मृत्यु का समय आता है तब इस स्थूल देह से प्राण, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि सहित जीव का वियोग होता है. मनुष्य जो कुछ भी कर्म करता है, वह संस्काररूप से जो उसके भेजे मे अपने आप टंकित होता रहता है, यदि इस भेजे को निकालकर देखें तो खरबों ट्रिलिमन किए हुए कर्म मिलेंगे।
_इन्ही कर्मों को प्रारब्ध नाम दिया गया है. उन ऐसी वृत्तियों की जब स्मृति होती है तब सात्विक कर्मों की अधिकता होने पर सात्त्विक संस्कार बढ़ा पाया जाएगा।_
इसी प्रकार पाप-पुण्य, चोरी-डकैती, बलात्कार, हत्या के संस्कार भी उन्ही न्यूरान्स मे पड़े रहते है, जिसकी अधिकता होती है वे जाँच के समय प्रकट हो जाते हैं या अन्तकाल मे बढ़े रहते हैं।
आज नार्कोटेस्ट मे मन-बुद्धि के यत्न निष्क्रिय रहते हैं. कोई भी बात जो अंतःकरण मे विद्यमान रहती है, अभिनिवेश (मृत्युभय ) के कारण प्रकट हो जाती है.
_ऐसे छुपाये – दबाये गए भाव से पूरा जीवन भावित रहने के कारण उसका उसी भाव मे पुनर्जन्म हो जाता है। उसे वैसा ही ऐटमॉसफियर मिलता है._
कर्म, गुण, और स्मृति : इन तीनों की एकता होने के कारण भावी योनि की प्राप्ति मे इनका प्रधान योगदान होता है।
_यहाँ कोई पृथक भगवान् या परमात्मा नही मिलता. केवल मनुष्य का कर्म ही उसको इंसान या हैवान बनाता है।, स्वर्गिक क या नार्किक परिवेश कर्मफल ही देता है._
मनुष्य यह सोचता है कि अभी मौका मिला है. लगे लगाए बहती गंगा मे हाँथ धो लें. वह यह भूल जाता है अथवा नही जानता कि भीतर एक रिकार्डिङ्ग हो रही है.
आपका हिसाब-किताब तैयार करने वाली मशीन लगाकर आपको परमात्मा ने आपकी ही इच्छा/कर्मफलानुसार इधर स्वतंत्र छोड़ रखा है।
_इसलिए वह अकर्त्ता होते हुए भी सम्पूर्ण का कर्त्ता है. उसी के अनुसार आपका भविष्य आप स्वयं बना रहे हो. यही परमात्मा है।_
[चेतना विकास मिशन]