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*क्या ईश्वर है? जीवात्मा क्या है? मोक्ष- स्वर्ग – नर्क कहाँ है? आदमी क्यों बनाया गया

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डॉ. प्रिया मानवी

    _एक ही प्रश्न में सब—कुछ पूछ लेते हैं लोग. ऐसे उत्तर चाहिए, जो कि पूरी मनुष्यता खोज रही है और पता नहीं चल पाया है।_

       आप पूछते हैं कि ईश्वर है कि नहीं? जीवात्मा क्या है? मोक्ष कहां है? स्वर्ग किसने बनाया? नरक है कि नहीं? आदमी क्यों आया है दुनिया में? जीवन का लक्ष्य क्या है? 

    आप इतनी जल्दी में हैं कि यह ‘सब उनको तुरंत पता चल जाना चाहिए। इतनी जल्दी में हैं तो यह आदमी, इस तरह की जल्दी वाला आदमी तो अंधविश्वासी हो ही जाएगा। धैर्य भी नहीं है!

      खोज के लिए बड़ा पेशंस, बहुत धीरज चाहिए, अत्यंत धैर्य चाहिए। कोई फिक्र नहीं है, जन्म बीत जाएगा, नहीं पा सकेंगे, कोई फिकिर नहीं है, खोजेंगे लेकिन।

असल में पाना महत्वपूर्ण नहीं है विचारवान के लिए, खोजना महत्वपूर्ण है। अंधविश्वासी के लिए पाना महत्वपूर्ण है, खोजना महत्वपूर्ण बिलकुल ही नहीं है। अंधविश्वासी उत्सुक है पाने के लिए कि जल्दी मिल जाए। ईश्वर कहां है? वह इसके लिए बहुत फिक्र में नहीं है कि है भी कि नहीं, इसको मैं खोजूं। खोज की सुविधा उसे नहीं है।

      वह कहता है, आप खोज लें और मुझे बता दें। तो इसलिए वह गुरु की तलाश में है।

     जो भी आदमी गुरु की तलाश में है, वह आदमी अंधविश्वासी बनकर रहेगा, वह रुक नहीं सकता। असल में गुरु की तलाश का मतलब ही यह है कि तुमने खोज लिया! ठीक, हमें बता दो। अब जब तुमने खोज ही लिया, तो हमें खोजने की क्या जरूरत है? हम आपके पैर पकड़ लेते हैं, आप कृपा करके हमको दे दो।

         तो लोग शक्तिपात करवा रहे हैं कि कोई दूसरा उनकी खोपड़ी पर हाथ रख दे, उनको ईश्वर का ज्ञान करा दे। मंत्र लेते फिर रहे हैं, कान फुंकवा रहे हैं, फीस चुका रहे हैं, चरण दाब रहे हैं, सेवा कर रहे हैं, इस आशा में कि किसी का मिला हुआ मेरा मिला हुआ बन जाए।

     _यह कभी भी नहीं हो सकता है। यह अंधविश्वासी चित्त की पकड़ है।_

         किसी का मिला हुआ, आपका मिला हुआ नहीं हो सकता। उसने बेचारे ने खोजा है, आप मुफ्त में कब्जा करना चाहते हैं। और ध्यान रहे, अगर उसने खोजा है, तो उसे भी यह पता चल गया होगा खोजने में कि खोजने से मिलता है, मांगने से नहीं मिलता है।

 इसलिए वह शिष्य भी नहीं बनाएगा। शिष्य भी वे ही बना रहे हैं, जिन्हें खुद भी नहीं मिला है। किसी और गुरु को ऊपर वे पकड़े हुए हैं। ऐसी लंबी श्रृंखला है गुरुओं की। और वे सब इस आशा में हैं कि दूसरा दे दे, दूसरा दे दे, दूसरा दे दे।

       कई गुरु तो मर चुके हैं, उनकी टांगें पकड़े हुए हैं कि वे दे दें। और उन मरे —मरे हुए गुरुओं की लंबी श्रृंखला है हजारों —लाखों साल की, और वे एक—दूसरे के पैर पकडे हुए हैं कि कोई दे दे। अंधविश्वासी चित्त की यह लक्षणा है।

      _खोजी चित्त की, विचारवान चित्त की यह लक्षणा है कि अगर है, तो मैं खोजूंगा। अगर मिलेगा तो मेरी पात्रता और अधिकार से मिलेगा। अगर मिलेगा तो मेरे जीवन—दान से मिलेगा। अगर मिलेगा तो मेरे तप, मेरे ध्यान से मिलेगा। अगर मिलेगा तो मेरे श्रम का फल होगा।_

       और ध्यान रहे, विचारवान व्यक्ति अगर मुफ्त में मिलता भी हो परमात्मा, तो ठुकरा देगा। वह कहेगा कि जो अपने श्रम से नहीं मिला, उसे लेना उचित भी नहीं है। वह कहेगा, मैं अपने श्रम से पाऊंगा। ध्यान रहे, कुछ चीजें हैं, जो अपने ही श्रम से पाई जा सकती हैं।

       परमात्मा उन चीजों में से नहीं है, जो बाजार में बिकती हों, मिल जाती हों। सत्य उन चीजों में से नहीं है, जिसकी कोई दुकान हो, जहां से आप सत्य खरीद लायें।

लेकिन दुकानें खुली हुई हैं। दूकानें हैं, बाजार हैं, जहां लिखा हुआ है, असली सत्य यहीं मिलता है। सत्य में भी असली और नकली होता है! सदगुरु यहीं निवास करते हैं, बाकी सब असदगुरु हैं जो और जगह निवास करते हैं।

      यह दुकान पक्की है, यहां से ले जाओ। और एक बार सेवा का अवसर दें। यह सब दुकानों पर लिखा हुआ है। और जिस दुकान में प्रवेश कर गए, उसका मालिक उस दुकान में से बाहर जल्दी नहीं निकलने देना चाहता।

     _यह जो हमारा अंधविश्वासी चित्त है, यह पैदा कर रहा है सारे उपद्रव।_

तो  खोज पर निर्भर होना, भिक्षा पर नहीं। मांगने से नहीं मिलेगा, जानने से मिलेगा। और विश्वास मत करना। किसी को मिला होगा, जरूर मिला होगा।

      अविश्वास भी मत करना, क्योंकि वह भी अंधविश्वास है। विश्वास मत करना, अविश्वास मत करना। कोई कहे कि मुझे ईश्वर मिल गया है, तो कहना, बड़ी कृपा है आप पर भगवान की कि आपको मिल गया। लेकिन कृपा करके मुझ को न बताएं, मुझे भी खोजने दें, नहीं तो मैं लंगड़ा रह जाऊंगा।

       दूसरे के द्वारा चली गई मंजिल पर अगर आप पहुंचा दिए जाएं तो आप लंगड़े ही पहुंचेंगे, क्योंकि पैर तो चलने से मजबूत होते हैं। और मंजिल पर पहुंचना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना यात्री का मजबूत होता जाना महत्वपूर्ण है।

कुछ पा लेना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना पाने वाले का रूपांतरण महत्वपूर्ण है। यह ईश्वर या मोक्ष या ज्ञान कोई रेडीमेड चीजें नहीं हैं, सिलीसिलाई उपलब्ध नहीं होती हैं।

      ये कोई ऐसी चीजें नहीं हैं कि तैयार मिल जाएं। ये तो पूरे जीवन की आहुति और पूरे जीवन के श्रम और साधना का फल बनती हैं। यह तो अंतिम फूल है, जो आता है।

       लेकिन बाजार में फूल लेने गए, तो कागज के फूल मिल जाते हैं। टिकते भी ज्यादा हैं। रोज धूल झाडू दो, तो बने भी रहते हैं। और धोखा भी देते हैं। लेकिन किसको? दूसरे को धोखा दे सकते हैं कागज के फूल। वह जो सड़क से गुजरता है, उसे धोखा हो सकता है कि आपकी खिड़की में जो फूल खिले हैं, वे कागज के हैं या असली हैं। लेकिन आपको तो धोखा नहीं हो सकता है जो कि खुद ही खरीद कर ले आए हैं।

       आप तो भलीभांति जानते हैं कि फूल कागज का है। असली फूल के लिए बीज बोने पड़ते हैं, मेहनत करनी पड़ती है, पौधा बड़ा करना पड़ता है, फिर फूल आते हैं। लाने नहीं पड़ते हैं। फिर फूल अपने से आते हैं।

परमात्मा का अनुभव फूल की तरह है, साधना पौधे की तरह है। पौधे को संभालें, फूल तो अपने आप आ जाएगा। लेकिन हम जल्दी में हैं, हम कहते हैं पौधे की फिक्र छोड़ो, आप तो फूल दे दें।

       छोटे बच्चे होते हैं न, जब स्कूल में परीक्षा देने जाते हैं, तो गणित तो हल नहीं करते, गणित की किताब के पीछे उत्तर लिखे होते हैं, उनको उलटा कर देख लेते हैं और लिख देते हैं। उत्तर बिलकुल सही है, लेकिन बिलकुल गलत। क्योंकि जो विधि से न गुजरा हो, उसका उत्तर सही कैसे हो सकता है।

       उसने उत्तर तो बिलकुल सही ही लिखा है—पांच ही लिखा है; और जिन्होंने विधि करके लिखा है, उन्होंने भी पांच ही लिखा है। लेकिन आप फर्क समझ रहे हैं कि जिन्होंने विधि करके लिखा है, उनके पांच में और जिसने किताब के पीछे से चुरा कर लिखा है—चाहे वह गीता के पीछे से लिखा हो, चाहे कुरान के पीछे से, इससे क्या फर्क पड़ता है —उन दोनों के उत्तर बिलकुल एक जैसे होते हुए भी एक जैसे नहीं हैं।

        बुनियादी फर्क है। क्योंकि असली सवाल उत्तर का नहीं है कि आप पांच के उत्तर पर पहुंच जाएं, असली सवाल यह है कि आपको जोड़ना आ जाए। और वह उसको नहीं आया, जिसने किताब के पीछे से पांच देख लिया। उसे गणित न आया, सिर्फ उत्तर आ गया।

तो अगर कहीं से सीखा, कहीं से पाया, किसी से सुना और पकडा तो परमात्मा किताब के पीछे से चुराया गया होगा—मुर्दा, मरा हुआ, बेकार, किसी काम का नहीं, जिंदा नहीं। जिंदा धर्म तो जीने से आता है। किसी किताब के पीछे लिखे हुए उत्तर से नहीं।

       लेकिन हम सब चोर हैं। छोटे बच्चे को हम डाटते हैं कि चोरी मत करना। शिक्षक भी समझाता है उसको कि देखो, किताब के पीछे मत देखना। कोई कागज—पत्तर पर कोई उत्तर लिखकर तो नहीं लाए हो? खीसे में से निकालकर बाहर रख लेता है। लेकिन अगर खुद अपने से पूछे कि अपने सब उत्तर चुराये हुए तो नहीं हैं?

         _तो सब उत्तर चुराए हुए मालूम पड़ेंगे। गुरु चोर, शिष्य चोर, शिक्षक चोर। जिंदगी के सब उत्तर चुराए हुए हैं। तो उन चुराए हुए उत्तरों से न तो शाति मिल सकती है, न आनंद। क्योंकि आनंद मिलता है उस प्रक्रिया से गुजरने से, जिसमें उत्तर के फूल लगते हैं, लगाए नहीं जाते

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