पवन कुमार ‘ज्योतिषाचार्य’
वास्तुशास्त्र एक प्रत्यक्ष विज्ञान है, जिसमें अंतरिक्ष विकिरणों एवं पृथ्वी में निहित शक्तियों और बलों का भरपूर प्रयोग भवन निर्माण कला में किया गया है। वास्तु शास्त्र के अन्तर्गत जो मुहूर्त निकाले जाते हैं, वे ज्योतिष की इस महान धारणा के अनुरूप हैं कि यदि किसी भी कार्य का प्रारम्भ ज्योतिष शास्त्र के अनुरूप शुभ समय में किया जाये तो वह सफलता को प्राप्त होता है।
इसलिए भूमि-पूजन या नींव स्थापना या लोक भाषा में पाया स्थापना एक अति महत्त्वपूर्ण कार्य है, जिसकी सफलता पर भवन निर्माण की सफलता आधारित होती है। नींव स्थापना के दिन जिस स्थान पर शास्त्रों के अनुसार प्रस्तर खण्डों या ईंटों को स्थापित किया जाता है, उस स्थान को राहुपृष्ठ कहते हैं। ज्योतिष की मान्यता है कि नींव स्थापना राहु मुख में नहीं होनी चाहिए। इसका तकनीकी अर्थ हम खगोल शास्त्र की सहायता से समझने की चेष्टा करते हैं।
सूर्य और चन्द्रमा के कक्षापथों के कटान बिन्दु राहु और केतु हैं। अगर यह कटान बिन्दु खगोल की उत्तर दिशा में है तो इस उत्तरपात को राहु कहेंगे और अगर यह दक्षिण में है तो इसे केतु कहेंगे। गणितीय दृष्टि से राहु और केतु एक-दूसरे से 180° अंश पर स्थित होते हैं और इसी अंतर के साथ कक्षा में भ्रमण करते हैं। अन्य ग्रहों के विपरीत इनकी विलोम गति होती है तथा जन्म पत्रिकाओं में इनकी स्थिति हमेशा एक दूसरे से सातवें भाव में होती है।
सभी ग्रह घड़ी की विपरीत दिशा में भ्रमण करते हुए प्रतीत होते हैं जबकि राहु-केतु हमेशा घड़ी की दिशा के अनुरूप ही भ्रमण करते हैं। राहु या केतु 12 राशियों को 18 वर्षों में पार कर लेते हैं। ग्रह अपने भ्रमण के समय अगर राहु मुख की ओर बढ़ रहे हैं और बहुत नजदीक आ जाएं तो अशुभ फल देने लगते हैं और अपने मुख्य चरित्र के अनुरूप फल नहीं देते। राहु का नैसर्गिक बल सूर्य के नैसर्गिक बल से भी अधिक माना गया है।
ऐसे में भवन निर्माण के मुहूर्त के दिन यदि सूर्य राहु मुख में हों या नींव राहु मुख में हो तो इसे अत्यंत अशुभ माना गया है और मुहूर्त दूषित हो जाते हैं।
वास्तु ग्रन्थों में यह वर्णन दर्शाता है कि वास्तुशास्त्र में नियम बनाने के समय खगोल शास्त्र का भरपूर प्रयोग किया गया है। राहुमुख हर तीन महीने में दिशा बदल लेता है। राहु मुख की स्थिति दिशा मध्य ना होकर दिशाओं से बनने वाले कोण में होती है अर्थात् ईशान कोण या अग्निकोण या नैऋत्य कोण या वायव्य कोण। हर तीन महीने में राहु कोण बदल लेते हैं और तदनुसार ही उस अवधि में होने वाले भूमि-पूजन या पाया स्थापना का स्थान बदल जाता है। पाया या नींव या कूर्म शिला स्थापन राहु मुख में न हो जाए यह आवश्यक विधान मुहूर्त ग्रन्थों में दिया हुआ होता है।
हजारों वर्ष पूर्व नियत कर दी गई इस व्यवस्था के मूल में प्राचीन भारतीय ऋषियों का खगोल शास्त्र का ज्ञान था जिसके अन्तर्गत उन्होंने 2 महान कक्षापथों के कटान बिन्दु के स्थान पर उत्पन्न हो रहे असंख्य विचलनों और गुरुत्वीय तरंगों के प्रभाव से मुहूर्त को तथा भवन निर्माण कला को बचाने की चेष्टा की।
सूत्र :
देवालये गेहविद्यौ जलाशये, राहोर्मुखं शम्भुदिशि विलोमतः।
मीनार्क सिंहार्क मृगार्क तस्त्रिभे, खातं मुखात् पृष्ठ विदिक् शुभा भवेत्।।
लोकोक्ति :
शीश दबे तिरिया (पत्नी) मरे, पूंछ दबे करतार (मालिक)।
जो दब जावे पीठ तो, होवे कुल का नाश।।
प्राचीन काल में ज्योतिष के प्रति विश्वास बनाये रखने का एक महत्त्वपूर्ण उपकरण ग्रहण काल की घोषणा करना होता था। तब, जब कि न्यूटन, आइंसटीन और गैलीलियो को जन्म देने वाली सभ्यताएँ अपने शैशव काल में थीं, भारतीय मनीषियों ने बिना प्रिज्म और टेलिस्कोप की मदद से सूर्य रश्मियों और राहु-केतु जैसी सत्ताओं का आविष्कार कर लिया था तथा उनकी स्थिति और गति के नियमों का भी आविष्कार कर लिया था।
ग्रहण से काफी पहले वे ग्रहणकाल की भविष्यवाणी कर देते थे क्योंकि ऋषियों को पता था कि सूर्य और चन्द्रमा की कक्षापथों के कटान बिन्दु या कक्षाओं में उत्तर और दक्षिण पात पर सूर्य और चन्द्रमा कब आएंगे या सूर्य और चन्द्रमा के बीच में पृथ्वी कब आ रही है, इसका गणतीय ज्ञान उनको होता था।
इसलिए राहु-केतु के पौराणिक कथन महान वैज्ञानिक खगोल शास्त्रीय गणनाओं पर आधारित हैं।