
प्रखर अरोड़ा
जिस तरह से तमाम वैदिक साहित्य के कतिपय बिंदुओं का मर्म नहीं समझकर अर्थ का अनर्थ किया जाता है, उसी तरह बाइबल, कुरआन, अवेस्ता आदि ग्रंथोँ के मामले में भी होता है.
मैं किसी कथित धर्म से कोई वैयक्तिक सरोकार नहीं रखता. मेरा धर्म सिर्फ और सिर्फ इंसानियत है. अध्ययन मैंने सभी धर्मो का किया है, करता भी रहता हूँ. कुरआन का भी दार्शनिक पहलू ऐसा नहीं है की उस पर सवाल उठाया जा सके. ऊँची और गहरी फ़िलोसफी है. यह बात अलग है की अपवाद को छोड़ दें तो खुद मुस्लिम बंधु ही इसके मर्म से बेखबर हैं. प्रतिकों और परम्परा निर्वाहक गतिविधियों से धार्मिक नहीं हुआ जा सकता.
रमजान का समय है. आइए रू-ब-रू होते हैं इसके आधारभूत पहलू से.
मिथकीय तौर पर रमजान के महीने में एक रात ऐसी है जो हज़ार महीनों से बेहतर है। जो शख़्स इसकी सआदत हासिल करने से महरूम रहा, वह हर भलाई से महरूम रहा।
~इब्नेमाजा:1964 अनस रजी.
उस शख़्स के लिए हलाकत है जिसने रमज़ान का महीना पाया और अपने गुनाहों कि बख़्शीश और माफ़ी ना पा सका.
~मुस्तदरक हाकिम-काअब बिन उज़रा रजी.
कोई शख़्स अगर बग़ैर शरई उज्र के रमज़ान का रोज़ा छोड़ दे या तोड़ दे तो ज़िन्दगी भर के रोज़े़ भी उसकी भरपाई नहीं मुमकिन है।
~अबू दावूद:239 ज़ईफ, तिरमिजी:621 अबू हुरैरह रजी.
विज्ञान के इस आधुनिक युग में इस्लामी उपवास के विभिन्न, आध्यात्मिक, सामाजिक, शारीरिक, मानसिक तथा नैतिक लाभ बताय गए हैं। जिन्हें संक्षिप्त में इस तरह पेश फरमाया जा सकता है :
अध्यात्मिकता :
इस्लाम में रोज़ा का मूल उद्देश्य ईश्वरीय आज्ञापालन है. इसके द्वारा एक व्यक्ति को इस योग्य बनाया जाता है कि उसका समस्त जीवन अल्लाह की इच्छानुसार व्यतीत हो।
एक व्यक्ति सख़्त भूख और प्यास की स्थिति में होता है. खाने पीने की प्रत्येक वस्तुयें उसके समक्ष होती हैं. एकांत में कुछ खा पी लेना अत्यंत सम्भव होता है, पर वह नहीं खाता पीता। क्यों?
इसलिए कि उसे अल्लाह की निगरानी पर दृढ़ विश्वास है। वह जानता है कि लोग तो नहीं देख रहे हैं पर अल्लाह तो देख रहा है। इस प्रकार एक महीने में वह यह शिक्षा-योग ग्रहण करता है कि सदैव अल्लाह के हुक्म का पालन करेगा और कदापि उसकी अवज्ञा न करेगा।
रोज़ा अल्लाह के इनामों को याद दिलाता औऱ अल्लाह कि कृतज्ञता सिखाता है. व्यक्ति निर्धारित समय तक खान-पान तथा यौनिक सम्बन्ध रोक देता है।
रोज़े से शैतान भी निंदित और अपमानित होता है. पेट भरने पर ही कामवासना उत्तेजित होती है.
फिर शैतान को पथभ्रष्ट करने का अवसर मिलता है। इसीलिए मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम के एक प्रवचन में आया है :
“शैतान मनुष्य के शरीर में रक्त की भांति दौड़ता है। भूख (रोज़ा) के द्वारा उसकी दौड़ को तंग कर देती है।”
रोज़े को अरबी भाषा में ‘‘सौम’’ कहते हैं। इसका अर्थ ‘‘रुकने और चुप रहने’’ से है।
क़ुरआन में इसे ‘‘सब्र’’ भी कहा गया है, जिसका अर्थ है ‘स्वयं पर नियंत्रण’ और स्थिरता व जमाव (Stability).
इस्लाम में रोज़ा का मतलब होता है केवल अल्लाह के लिए. भौर से लेकर सूरज डूबने तक खाने-पीने, सभी बुराइयों और सेक्स से स्वयं को रोके रखना।
अनिवार्य रोज़े, जो केवल रमज़ान के महीने में रखे जाते हैं और यह हर व्यस्क मुसलमान के लिए जरूरी हैं।
क़ुरआन में कहा गया है :
‘‘ऐ ईमान लाने वालों! तुम पर रोज़े अनिवार्य किए गए हैं. जिस प्रकार तुम से पहले के लोगों ने किए थे. शायद इसलिए कि तुम डर रखने वाले और परहेज़गार बन जाओ।’’
~क़ुरआन (2:183)
महान स्तंभ
रोज़ा इस्लाम धर्म के पाँच स्तम्भों में से एक महान स्तम्भ है। यह सन् 2 हिज्री में अनिवार्य हुआ। इस प्रकार नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को अपने पूरे जीवन में 9 रमज़ान के रोज़े रखने का अवसर मिला।
रोज़ा अल्लाह परम पर्मेश्वर की उपासना और आराधना का एक ऐसा ढंग है, जिसे अल्लाह ने अपने लिए विशिष्ट किया है, क्योंकि यह एक गुप्त उपासना है, जिस में ढोंग का समावेश हरगिज नहीं होता है।
इस का मूल उद्देश्य यह है कि मनुष्य के भीतर ईशभय और सत्य के प्रति लगाव (तक़्वा-धर्मचुस्तता) उत्पन्न हो जाए। जिस प्रकार एक मुसलमान रोज़ा-व्रत रखने की अवस्था में अपने स्वामी के द्वारा निषिध की हुई चीज़ो से बचाव करता है, उसी प्रकार उसका पूर्ण जीवन व्यतीत हो।
इस्लामी व्रत रोज़ा के अनेक धार्मिक, सामाजिक, व्यवहारिक तथा स्वास्थ्य संबंधी लाभ हैं, जो किसी अन्य जगह इस तरह दुर्लभ हैं.
इसका रहस्य उसी के समक्ष खुल सकता है जो वास्तव में इसका अनुभव कर चुका हो।
रोज़ा की पारिभाषिकता
मात्र अल्लाह की उपासना के इरादे से प्रातःकाल-भोर समय (सूर्योदय से क़रीब डेढ घंटा पहले तक) से सूरज डूबने तक खाने पीने तथा यौनिक सहवास से रुक जाना।
रोजा कुरआने मज़ीद की रौशनी में :
“ऐ लोगो! जो ईमान लाए हो। तुम पर रोज़े फर्ज़ कर दिए गए। जिस तरह तुमसे पहले लोगो पर फर्ज़ किये गए थे। ताकि तुम परहेज़गार बन जाओ”
~सुरह बकरह (183)
रमजान वह महीना है जिसमे क़ुरआन नाज़िल किया गया। तुम में से जो शख़्स इस महीने को पाए तो उसे चाहिए कि रोज़ा रखे।
“रोज़े के लिए महदूद दिनों की तदाद : तुम में से जो कोई बीमार हो या सफ़र में हो – तो उतने ही दिन पूरे किए जाएँ और जो रख सकते हों. लेकिन मुश्किलों के साथ भी एक फिदया [बदले की शक्ल में] ग़रीब शख़्स को हर दिन खाना खिलाए। जो कोई भलाई में आगे बढ़े तो यह ही उसके लिए बेहतर है, लेकिन रोज़ा पूरा करना तुम्हारे लिये अत्यंत बेहतर है, अगर तुम जानो।”
~क़ुरान: सुरह बक़रह (184)