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स्‍तालिन की दृष्टि में क्या है क्रान्ति का विज्ञान ‘श्रमिक समाजवाद’

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 ✍ पुष्पा गुप्ता

   शासकों, शोषकों, पूँजीपतियों और धर्म का धंधा करने वाले धूर्त परजीवियों के अलावा हर कोई श्रमिक है. हम सभी आमलोग मजदूर हैं. स्तालिन श्रमिक वर्ग के विश्वस्तरीय चिंतक हैं.

       मौजूदा समाज-व्यवस्था पूँजीवादी व्यवस्था है। इसका मतलब यह है कि दुनिया दो विरोधी दलों में बँटी हुई है। एक दल थोड़े से मुट्ठी भर पूँजीपतियों का है। दूसरा दल बहुमत का, यानी मजदूरों का है।

    मजदूर दिन रात काम करते हैं, परन्तु फिर भी गरीब रहते हैं। पूँजीपति काम कौड़ी का नहीं करते, परन्तु फिर भी मालामाल रहते हैं। ऐसा इसलिए नहीं है कि मजदूरों में बुद्धि नहीं है और पूँजीपति अकल के पुतले हैं। ऐसा इसलिए होता है कि पूँजीपति मजदूरों की मेहनत के फल को हड़प लेते है, मजदूरों का शोषण करते हैं।

    पर इसका क्या कारण है कि मजदूरों की मेहनत से जो कुछ पैदा होता है उस पर पूँजीपति कब्जा कर लेते हैं और वह मजदूरों को नहीं मिलता? इसकी क्या वजह है कि पूँजीपति मजदूरों का शोषण करते हैं और मजदूर पूँजीपतियों का शोषण नहीं करते?

    इसलिए कि पूँजीपति व्यवस्था माल के उत्पादन पर आधारित है। मतलब यह है कि यहाँ हर चीज माल का रूप धारण कर लेती है, हर चीज बाजार में बिकती है, हर जगह खरीदने और बेचने के सिद्धान्त का दौर-दौरा है। यहाँ सिर्फ इस्तेमाल की चीजें नहीं बिकती, सिर्फ खाने-पहनने की वस्तुओं का ही मोल नहीं होता; इन्सानों की मेहनत करने की ताकत का भी मोल होता है, उनकी श्रम-शक्ति उनका खून और उनकी आत्मा तक यहाँ बाजारों में बिकती है। पूँजीपतियों को यह बात मालूम है। वे मजदूरों की श्रम-शक्ति खरीदते हैं, उनको नौकर रखते हैं।

    इसका मतलब यह है कि पूँजीपति जिस श्रम-शक्ति को खरीद लेते हैं, उसके मालिक बन जाते हैं, और मजदूरों का उस श्रम-शक्ति पर कोई अधिकार नहीं रहता जो वे बेच चुके होते हैं। मतलब यह है कि उस श्रमशक्ति से जो कुछ पैदा होता है, वह मजदूरों का नहीं होता, सिर्फ पूँजीपतियों का होता है और उन्हीं की जेब में जाता है।* आपने यदि अपनी श्रम-शक्ति बेच दी है, तो भले ही उसके एक दिन में 10 रुपये का माल तैयार होता हो, उससे आपका कोई सम्बन्ध नहीं। वह माल आपका नहीं होगा, वह तो सारा पूँजीपतियों का ही होगा।

     आपको जो कुछ मिलेगा, वह सिर्फ आपकी रोजना उजरत, दिन भर का वेतन है। यदि आप बहुत किफायत से रहते हैं तो शायद उससे आपको दो रोटी मिल जायें। बस उससे अधिक कुछ नहीं। संक्षेप में, पूँजीपति मजदूरों की मेहनत करने की ताकत उनकी श्रम-शक्ति खरीदते हैं, उन्हें नौकर रखते हैं, और यही कारण है कि पूँजीपति मजदूरों की मेहनत का फल हड़प लेते हैं।

    यही कारण है कि पूँजीपति मजदूरों का शोषण करते हैं और मजदूर पूँजीपतियों का कुछ नहीं कर पाते।

परन्तु सवाल उठता है कि मजदूरों की श्रम-शक्ति ये पूँजीपति ही क्यों खरीदते हैं? पूँजीपति ही मजदूरों को क्यों नौकर रखते हैं और मजदूर उन्हें क्यों नौकर नहीं रख पाते?

     इसीलिए कि पूँजीवादी व्यवस्था का मुख्य आधार उत्पादन के साधनों तथा यन्‍त्रों पर चन्द आदमियों का व्यक्तिगत अथवा निजी स्वामित्व है, इसीलिए सारे कल-कारखाने, मिल और फैक्ट्रियाँ, जमीन और जंगल, रेलें और खानें, मशीनें और उत्पादन के दूसरे साधन मुट्ठी भर पूँजीपतियों की निजी सम्पत्ति बन गये हैं। और इसलिए कि मजदूरों का इनमें से किसी चीज पर अधिकार नहीं है।

    यही कारण है कि पूँजीपति अपनी मिलों और फैक्टरियों को चलवाने के लिए मजदूरों को नौकर रखते हैं। यदि वे ऐसा न करें तो उत्पादन के साधनों और यन्‍त्रों से उन्हें कोई लाभ न हो। और यही कारण है कि मजदूर अपनी श्रम शक्ति पूँजीपतियों के हाथ बेचते हैं। यदि वे ऐसा न करे तो भूखों मर जाएं।

     इस सबसे पूँजीवादी उत्पादन के साधारण रूप पर काफी प्रभाव पड़ता है। पहले यह जाहिर है कि पूँजीवादी उत्पादन को एक कड़ी में नहीं बाँधा जा सकता। उसे संगठित रूप नहीं दिया जा सकता। कारण कि वह अलग-अलग पूँजीपतियों के व्यक्तिगत कारखानों में बँटा हुआ है। दूसरे, यह बात भी साफ है कि इस बिखरे हुए, असंगठित उत्पादन का उद्देश्य लोगों की जरूरतों को पूरा करना नहीं, बिक्री के लिए माल तैयार करना है ताकि पूँजीपतियों के मुनाफे में इजाफा हो। परन्तु हर पूँजीपति अपना मुनाफा बढ़ाने की कोशिश करता है और उसके लिए ज्यादा माल तैयार करता है, इसलिए, जल्दी ही एक ऐसा वक्त आता है जब बाजार माल से पट जाते हैं, दाम गिरने लगते हैं, और एक आम आर्थिक संकट शुरू हो जाता है।

     इसलिए, अर्थ-संकट, बेकारी उत्पादन का बार-बार रोका जाना, उत्पादन में फैली अराजकता और इस तरह की दूसरी बीमारियाँ आजकल के असंगठित पूँजीवादी उत्पादन का प्रत्यक्ष परिणाम है।

    यदि अभी तक यह असंगठित सामाजिक व्यवस्था खड़ी हुई है, यदि अभी तक मजदूरों के प्रहार उसे गिरा नहीं पाये हैं तो इसका मुख्य कारण यही है कि पूँजीवाद राज्य, पूँजीवादी सरकार उसकी रक्षा कर रहे हैं।

यह है मौजूदा पूँजीवादी समाजवाद का आधार।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि भविष्य का समाज इससे बिल्कुल भिन्न आधार पर रचा जाएगा।

भविष्य का समाज समाजवादी समाज होगा। इसका मतलब सबसे पहले यह है कि उस समाज में वर्ग नहीं होंगे। उसमें न पूँजीपति होंगे न मजदूर, और इसलिए उसमें शोषण भी नहीं होगा। उस समाज में केवल मजदूर होंगे जो मिल-जुलकर मेहनत करेंगे।

भावी समाज समाजवादी समाज होगा। इसका मतलब यह भी है कि शोषण के खात्मे के साथ-साथ बिक्री के माल का उत्पादन और चीजों का खरीदना-बेचना भी बन्द हो जायेगा और इसलिए तब न श्रम शक्ति के खरीदने वाले रहेंगे और न बेचने वाले, न मालिक रहेंगे और न नौकर, उस समाज में केवल स्वतंत्र मजदूर ही रहेंगे।

     भावी समाज समाजवादी होगा। इसका मतलब, अन्त में, यह है कि उस समाज में उजरत पर मजदूरी कराने की प्रथा का तो खात्मा होगा ही, उसके साथ-साथ उत्पादन के साधनों तथा यन्‍त्रों पर चन्द लोगों का व्यक्तिगत अथवा निजी स्वामित्व भी पूरी तरह खत्म हो जायेगा। तब न गरीब मजदूर होंगे और न धनी पूँजीपति तब केवल मजदूर होंगे जो सामूहिक रूप से सारी जमीन और तमाम जंगलों के, सारी खानों और तमाम रेलों के, और सारे कल-कारखानों, इत्यादि के स्वामी होंगे।

    और इसलिए, जाहिर है, भविष्य में उत्पादन का मुख्य उद्देश्य समाज की जरूरतों को पूरा करना होगा, न कि बिक्री के लिए माल तैयार करके पूँजीपतियों का मुनाफा बढ़ाना। तब बिक्री के माल के उत्पादन की, अथवा मुनाफे की हिस्सा बाँट के लिए झगड़े-झंझट आदि की कोई जगह नहीं होगी।

    इससे यह भी साफ है कि भावी उत्पादन समाजवादी ढंग से संगठित किया जायेगा और वह बड़े ऊँचे दर्जे का, उन्नत उत्पादन होगा। उसमें समाज की जरूरतों का पूरा-पूरा ध्यान रखा जायेगा और इसलिए तब केवल उतना ही माल तैयार होगा जितने कि समाज को आवश्यकता होगी। अर्थात, तब न असंगठित और बिखरा हुआ उत्पादन होगा और न विभिन्न पूँजीपतियों में होड़ होगी; न अर्थ संकट आयेंगे और न बेकारी फैलेगी।

जहाँ वर्ग न हो, जहाँ न धनी हों और न गरीब, वहाँ राज्य की भी कोई जरूरत नहीं रह जाती।

    वहाँ राजनीतिक शक्ति की भी कोई आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि, राजनीतिक शक्ति गरीबों को दबाने और धनियों को बचाने के लिए जरूरी होती है; इसलिए समाजवादी समाज में राजनीतिक शक्ति की कोई आवश्यकता न होगी।

इसीलिए कार्ल मार्क्स ने तो 1846 में ही कह दिया था कि –

‘‘अपने विकास के दौरान में मजदूर वर्ग पुराने पूँजीवादी समाज की जगह एक संघ बनायेगा जिसमें वर्ग और वर्गों के विरोध नहीं रहेंगे और जिसे राजनीतिक शक्ति कहते हैं वह शक्ति भी नहीं रहेगी—’’ (देखिये दर्शन का दिवाला)।

इसीलिए एंगेल्स ने भी 1884 में कहा था:

“अतः राज्य सत्ता अनादि काल से ही नहीं कायम है। ऐसे समाज भी दुनिया में देखे गये हैं जिनमें राज्यसत्ता तथा राजनीतिक शक्ति का विचार लोगों के दिमाग में न था। आर्थिक विकास की एक विशेष अवस्था में, जब कि समाज वर्गों में बँट गया, तब राज्यसत्ता एक आवश्यक वस्तु बन गई—। और अब हम तेजी से उत्पादन के विकास की उस अवस्था में प्रवेश कर रहे हैं जब वर्गों का अस्तित्व न केवल आवश्यक रहेगा, बल्कि वह उत्पादन के रास्ते में एक हानिकारक अडंगा बन जायेगां तब जिस अवश्यम्भावी रूप से पहले वर्ग उत्पादन हुए थे उसी अवश्यम्भावी रूप से वर्ग मिट जायेंगे और उनके साथ-साथ राज्यसत्ता भी अवश्यम्भावी रूप से मिट जायेगी।

     तब समाज स्वतंत्र और समान उत्पादकों के संघ के आधार पर उत्पादन का संगठन करेगा और राज्यसत्ता की पूरी मशीन को उठाकर चरखे और काँसे की कुल्हाड़ी के साथ प्राचीन वस्तुओं के अजायबघर में रख देगा जो उसका उपयुक्त स्थान है।’’ (देखिए परिवार, व्यक्तिगत सम्पत्ति और राज्यसत्ता की उत्पत्ति)

इसके साथ-साथ जाहिर है, सार्वजनिक कामों की व्यवस्था के लिए समाजवादी समाज में भी, विभिन्न प्रकार की सूचनाएँ इकट्ठा करने वाले स्थानीय दफ्तरों के अलावा एक केन्द्रीय गणना केन्द्र भी होगा जो पूरे समाज की आवश्यकताओं के बारे में सूचना जमा करेगा और फिर इस सूचना के अनुसार मेहनत करने वालों के बीच विभिन्न प्रकार के काम बाँट देगा।

      यदा-कदा सम्मेलन (कान्फ्रेन्स) अधिवेशन (कांग्रेस) भी करने होंगे, विशेषकर अधिवेशन जिनके फैसले अल्पमत वाले साथियों को भी अगले अधिवेशन तक मानने पड़ेंगे।

अन्तिम बात यह है कि स्वतंत्र तथा सहयोगी ढंग से मेहनत करने का यह फल होगा कि भावी समाजवादी समाज में सबकी सभी आवश्यकताएँ समान रूप से, सहयोगी ढंग से और पूर्ण रूप से पूरी हो सकेंगी। इसका मतलब यह है कि यदि भावी समाज अपने हर सदस्य से अधिक से अधिक मेहनत करने की माँग करेगा तो बदले में वह हरेक को जरूरत की वे तमाम चीजें देगा जिनको उसे जरूरत होगी। हरेक को अपनी योग्यता के अनुसार मेहनत करनी चाहिए और हरेक को उसकी आवश्यकता के अनुसार मिलना चाहिए – यह है वह सिद्धान्त जिसके आधार पर भविष्य की सामूहिक व्यवस्था रची जायेगीं कहने की आवश्यकता नहीं कि समाजवाद की शुरू की अवस्था में ऐसे अनेक लोग भी होंगे जिन्हें मेहनत करने की आदत नहीं होगी और जिन्होंने जीवन का नया ढंग अभी सीखना शुरू किया होगा।

     उस वक्त उत्पादन को शक्तियों का भी काफी विकास नहीं हो पायेगा और ‘गन्दे’ और ‘साफ’ काम का अन्तर भी नहीं मिटा होगा। ऐसी अवस्था में जाहिर है, ‘‘हरेक को उसकी आवश्यकता के अनुसार मिलना चाहिए’’ वाला सिद्धान्त आसानी से लागू नहीं किया जा सकेगा, और परिणामस्वरूप तब समाज को अस्थायी रूप से, कोई और रास्ता, कोई बीच का रास्ता अपनाना पड़ेगा। परन्तु साथ ही यह बात भी साफ है कि जब भावी समाज अपने ढर्रे पर लग जायेगा, जब पूँजीवाद के बचे-खुचे तमाम निशान मिट चुके होंगे, तब समाजवादी समाज के अनुरूप केवल वही सिद्धान्त होगा जिसका हमने ऊपर जिक्र किया है।

इसीलिए, मार्क्स ने 1875 में कहा था:

‘‘कम्युनिस्ट (अर्थात समाजवादी) समाज की ऊँची अवस्था में, जब व्यक्ति, श्रम-विभाजन का दास न रहेगा और उसके साथ-साथ मानसिक तथा शारीरिक श्रम का अन्तर मिट चुका होगा; जब श्रम जीवनयापन करने का साधन ही नहीं, जीवन की मुख्य आवश्यकता बन गया होगा; जब व्यक्ति के चौमुखी विकास के साथ-साथ उत्पादन की शक्तियों में भी खूब वृद्धि हो चुकी होगी— केवल उसी अवस्था में पूँजीवादी अधिकार की संकुचित सीमाओं को पूरी तरह पार किया जा सकेगा और तभी समाज अपने झण्डों पर यह अंकित कर सकेगा कि ‘‘हरेक को अपनी योग्यता के अनुसार मेहनत करनी चाहिए, हरेक को उसकी आवश्यकता के अनुसार मिलना चाहिए।’’ (देखिए ‘‘गोथा-कार्यक्रम की समीक्षा।’’)

भावी समाजवादी समाज की, मार्क्स के सिद्धान्तों के अनुसार, मोटे तौर पर यह रूपरेखा है।

      अच्छा, यह तो सब ठीक है। पर क्या ऐसा समाजवाद कायम हो सकेगा; क्या हम यह मानकर चल सकते हैं कि आदमी कभी अपनी ‘‘जंगली आदतों’’ को छोड़ देगा?

या यूँ कहिए कि हरेक को उसकी आवश्यकतानुसार मिलना है तो क्या समाजवादी समाज की उत्पादन की शक्तियाँ इतना पैदा कर सकेंगी?

समाजवादी समाज के लिए यह आवश्यक है कि उत्पादन की शक्तियों का काफी विकास हो चुका हो और लोगों में समाजवादी चेतना पैदा हो चुकी हो, उनमें समाजवादी जागृति आ चुकी हो। वर्तमान समय में उत्पादन की शक्तियों का विकास पूँजीवादी सम्पत्ति के कारण रुका हुआ है। परन्तु यदि हम इस बात का ध्यान रखें कि यदि पूँजीवादी सम्पत्ति भावी समाज में नहीं रहेगी, तब यह बात स्पष्ट हो जायेगी कि उस समाज में उत्पादन शक्तियाँ दस गुनी हो जायेंगी।

     साथ ही यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भावी समाज में आजकल के ये लाखों मुफ्तखोर, और इसके अलावा आजकल के बेरोजगार लोग भी काम कर सकेंगे और उससे मेहनत करने वालों की संख्या और बढ़ जायेगी, और उससे उत्पादन की शक्तियों के विकास में बड़ा बढ़ावा मिलेगा। जहाँ तक इन्सानों की ‘‘जंगली’’ भावनाओं और आदतों का सवाल है, ये चीजें इतनी अजर-अमर नहीं हैं जितनी कुछ लोग समझते हैं। एक जमाना था, जब आदिम कम्युनिज्म के समाज में, इंसान को व्यक्तिगत सम्पत्ति का ध्यान भी न था। फिर एक जमाना आया जब व्यक्तिगत सम्पत्ति का ख्याल लोगों के दिल व दिमाग पर हुकूमत करने लगा। और अब फिर एक नया जमाना आ रहा है – समाजवादी उत्पादन का जमाना।

     तब यदि लोगों के दिल और दिमाग समाजवादी भावनाओं में रंग जाये तो क्या आश्चर्य होगा? क्या हम यह नहीं स्वीकार कर चुके कि लोगों की ‘भावनाएँ’ और मतामत उनके जीवन द्वारा निश्चित होते हैं?

परन्तु इसका क्या सबूत है कि समाजवादी व्यवस्था का कायम होना अवश्यम्भावी है? क्या यह लाजिमी है कि आधुनिक पूँजीवाद के विकास के बाद समाजवाद ही कायम हो? या, दूसरे शब्दों में यूँ कहिए कि हम यह कैसे समझे कि मार्क्स का मजदूरों का समाजवाद केवल एक भावात्मक सपना एक कल्पना मात्र नहीं है? उसके यथार्थ होने का वैज्ञानिक सबूत क्या है?

     इतिहास बताता है कि सम्पत्ति का रूप सीधे उत्पादन के रूप में निश्चित होता है और उसके परिणामस्वरूप, उत्पादन के स्वरूप में कोई परिवर्तन होता है तो देर-सबेर सम्पत्ति के स्वरूप में भी परिवर्तन हो ही जाता है। ऐसा होना लाजिमी होता है। एक जमाना था जब सम्पत्ति का स्वरूप कम्युनिस्ट था और जब वे जंगल और मैदान जिनमें आदिम समाज के जंगली नर-नारी घूमा करते थे, सभी की सम्पत्ति हुआ करते थे, न कि चन्द व्यक्तियों की। प्रश्न है कि उस समय सम्पत्ति का स्वरूप कम्युनिस्ट क्यों था? इसलिए कि उस वक्त उत्पादन कम्युनिस्ट था। लोग मिलकर, एक साथ सामूहिक रूप से मेहनत करते थे। बिना सबके सहयोग के किसी का काम नहीं चलता था। फिर एक दूसरा जमाना आया।

      निम्न पूँजीवादी उत्पादन का काम शुरू हुआ, जब सम्पत्ति ने व्यक्तिगत (निजी) रूप धारण कर लिया और हर वह चीज जिसकी आदमी को जरूरत थी (हवा, सूरज की रोशनी, आदि को, जाहिर है, छोड़कर) व्यक्तिगत सम्पत्ति समझी जाने लगी। यह परिवर्तन क्यों हुआ? इसलिए कि इस जमाने में उत्पादन व्यक्तिगत हो गया था। हर आदमी दूसरे से अलग-अलग, सिर्फ अपने लिए काम करता था। अन्त में, बड़े पैमाने का पूँजीवादी उत्पादन शुरू हुआ, जब सैकड़ों और हजारों मजदूर एक छत के नीचे, एक कारखाने में, मिलकर सामूहिक रूप से काम करते हैं। अब काम करने का वह पुराना व्यक्तिगत तरीका नहीं रहा जब हर आदमी अपनी ढाई चावल की खिचड़ी अलग पकाता था।

     अब तो हर आदमी का उसके खाते में काम करने वाले दूसरे आदमियों के काम से गहरा सम्बन्ध रहता है। यदि किसी एक खाते में काम बन्द हो जाये तो बाकी खाते अपने आप बन्द हो जाते हैं। इस प्रकार, आप देखते हैं कि उत्पादन की क्रिया ने, मेहनत अथवा श्रम ने अभी से सामाजिक रूप धारण कर लिया है। मेहनत अभी से समाजवादी रंग में रंगी नजर आने लगी है और यह केवल अलग-अलग कारखानों के लिए ही सच नहीं है। एक प्रकार के सभी कारखानों में और विभिन्न प्रकार के उद्योग-धन्धों में भी इतना ही घनिष्ठ सम्बन्ध देखा जाता है। यदि रेलों के मजदूर हड़ताल करते हैं तो सभी उद्योग-धन्धों को लकवा-सा मार जाता है। तेल और कोयले के उद्योग किसी कारण बन्द हो जायें तो कुछ समय बाद सभी कल कारखानों में ताला पड़ जाता है।

     इसलिए, जाहिर है कि अब उत्पादन की क्रिया ने सामाजिक अथवा सामूहिक रूप धारण कर लिया है। परन्तु पैदावार पर स्वामित्व अभी भी व्यक्तिगत है, और स्वामित्व का यह व्यक्तिगत रूप चूँकि पैदावार के सामाजिक रूप का विरोधी है, क्योंकि आधुनिक सामूहिक श्रम का अवश्यम्भावी परिणाम सामूहिक सम्पत्ति होता है, इसलिए यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि जिस तरह रात के बाद दिन आता है, उसी तरह पूँजीवाद के बाद समाजवाद का आना भी लाजिमी है।

    इस प्रकार इतिहास स्वयं इस बात का साक्षी है कि मार्क्स ने मजदूरों के जिस समाजवाद का प्रतिपादन किया है, उसकी स्थापना अवश्यम्भावी है।

इतिहास बताता है कि जिस वर्ग का, सामाजिक दल का समाज के उत्पादन में प्रमुख भाग होता है और जो उत्पादन की क्रिया में खास-खास काम करता है, वही वर्ग आगे चलकर अवश्यम्भावी रूप से, सारे उत्पादन का संचालन अपने हाथ में संभालता है। एक जमाना था जब समाज में मातृसत्ता थी और स्त्रियों को उत्पादन का संचालन करने वाली समझा जाता था। ऐसा क्यों था? इसलिए कि उस वक्त उत्पादन आदिम ढंग की खेती के रूप में होता था और उसमें सबसे महत्वपूर्ण भाग स्त्रियों का रहता था। वे ही सारे खास-खास काम किया करती थीं और पुरुष शिकार की खोज में जंगलों में घूमा करते थे।

      फिर एक वक्त आया जब पितृ-सत्ता कायम हुई और उत्पादन में सबसे महत्वपूर्ण भाग पुरुषों का हो गया। वह परिवर्तन क्यों हुआ? इसलिए कि उस वक्त उत्पादन पशु-पालन के रूप में होता था और उसमें उत्पादन के मुख्य यन्त्र भाला, तीर-कमान और फेंककर जंगली जानवरों को पकड़ने वाला रस्सा थे, जिन्हें पुरुष चलाते थे। इसलिए, उस वक्त उत्पादन में मुख्य भाग पुरुषों का था। उसके बाद बड़े पैमाने के पूंजीवादी उत्पादन का जमाना आया, उत्पादन में सबसे महत्वपूर्ण भाग मजदूरों का हो गया। उत्पादन के सारे खास-खास काम उन्हीं के हाथों में चले गए। ऐसी हालत पैदा हो गई कि मजदूर एक दिन काम न करें (आम हडतालों की याद कीजिए) तो उत्पादन का सारा कारोबार ठप्प हो जाय। और पूंजीपति उत्पादन में आवश्यक होने के बजाय उसके लिए भारी रुकावट बन गए।

     इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि या तो मजदूर वर्ग देर-सबेर आधुनिक उत्पादन का संचालन अपने हाथों सम्भालेगा, उसका एकमात्र स्वामी–समाजवादी स्वामी बन जायेगा वरना सारा सामाजिक जीवन एकदम ठप्प हो जायेगा।

     आधुनिक औद्योगिक संकट, जिन्हें वास्तव में, पूजीवादी सम्पत्ति की मौत के समय की छटपटाहट समझना चाहिये, हमारे सामने दो-टूक यह सवाल रख रहे हैं कि पूंजीवाद रहेगा या समाजवाद कायम होगा? – इन आर्थिक संकटों से यह बात बिल्कुल साफ हो जाती है – और इस परिणाम पर पहुंचने से आप बच नहीं सकते – कि पूंजीपति दूसरों का खून चूस कर मोटी होने वाली, मुफ्तखोर जोंके हैं और समाजवाद की विजय लाजिमी है।

इस प्रकार इतिहास इस बात का एक और सबूत देता है कि मार्क्स का मजदूरों का समाजवाद अवश्यम्भावी है।

मजदूरों का समाजवाद कोरी भावनाओं पर, या हवाई ‘न्याय’ के सिद्धान्तों पर अथवा मजदूरों के प्रति प्रेम पर नहीं खड़ा है। उसका आधार वैज्ञानिक स्थापनायें हैं जिनका हम ऊपर जिक्र कर चुके हैं।

यही कारण है कि मजदूरों के समाजवाद को ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ भी कहा जाता है।

     एंगेल्स ने 1877 में ही लिखा था:

‘मेहनत से पैदा होने वाली चीजों के बंटवारे की मौजूदा व्यवस्था कुछ दिन में लाजिमी तौर पर खत्म हो जाएगी – इस विश्वास का यदि हमारे पास केवल इतना ही आधार है कि चूंकि यह न्याय युक्त व्यवस्था नहीं है, इसलिए कुछ समय बाद इसका अन्त होना और न्याय की अन्त में विजय होना लाजिमी है, तो हमारी हालत कुछ बहुत अच्छी नहीं होगी और मुमकिन है कि हमें बहुत ज्यादा इन्तजार करना पड़ेगा।’ सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उत्पादन की आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था ने उत्पादन को जो शक्तियां उत्पन कर दी हैं और पैदावार बांटने की व्यवस्था कायम कर दी है, वे स्वयं इस उत्पादन व्यवस्था से टकरा रही है और असल में तो उनका संघर्ष इतना बढ़ गया है कि यदि आधुनिक समाज का विनाश नहीं हो जाना है तो उत्पादन तथा बंटवारे के ढंग में एक क्रान्ति का होना आवश्यक है – ऐसी क्रान्ति का जो सारे वर्ग भेदों का अंत कर दे।

     आधुनिक समाजवाद का यह विश्वास कि अन्त में उसकी विजय होगी इस ठोस, भौतिक सत्य पर आधारित है, न कि किसी कुर्सी तोड़ दार्शनिक की न्याय-अन्याय की कल्पनाओं पर।’ 

      पर जाहिर है, इसका यह मतलब नहीं कि पूंजीवाद चूंकि सड़ रहा है, इसलिए हम जिस दिन चाहें, समाजवाद स्‍थापित कर सकते हैं। यह तो केवल अराजकतावादी और दूसरे निम्न-पूंजीवादी विचारक ही सोच सकते हैं। समाजवादी आदर्श समाज के सारे वर्गों का आदर्श नहीं है। वह केवल मजदूर वर्ग का आदर्श है। समाजवाद की स्थापना में सभी वर्गों का प्रत्यक्ष हित नहीं है, प्रत्यक्ष हित तो उसमें केवल |मजदूर वर्ग का ही है। मतलब यह कि जब तक मज़दूर-वर्ग समाज का सिर्फ एक छोटा सा हिस्सा है, तब तक समाजवादी व्यवस्था की स्थापना असम्भव है।

     समाजवाद की स्थापना के लिए पहले कई शर्तो का पूरा होना आवश्यक है; जैसे, उत्पादन के पुराने ढंग का सड़ने लगना, पूंजीवादी उत्पादन का केन्द्रीयकरण हो जाना और समाज के अधिकतर लोगों का मजदूरों में बदल जाना। और इतना ही काफी नहीं है। सम्भव है कि समाज के अधिकतर लोग मजदूरों में बदल गये हों और फिर समाजवाद कायम करना नामुमकिन हो। कारण कि इन सब बातों के अलावा समाजवाद की स्थापना के लिए यह भी आवश्यक है कि मजदूरों में वर्ग चेतना हो, एकता हो और अपने मामलो को खुद सुलझाने और उनका इन्तजाम करने की उनमें योग्यता हो।

     इन सब बातों को हासिल करने के लिए जरूरी है कि समाज में राजनीतिक स्वतन्त्रता हो। राजनैतिक स्वतन्त्रता का मतलब है बोलने, लिखने, छापने, हड़ताल करने और संगठन करने की स्वतन्त्रता, या संक्षेप में कहिए, वर्ग-संघर्ष चलाने की स्वतन्त्रता। इसलिये, यह प्रश्न मज़दूर-वर्ग के लिए कम महत्व का नहीं है कि उसे किन परिस्थितियों में वर्ग-संघर्ष लाना पड़ रहा है – सामन्ती तानाशाही की परिस्थितियों में (जैसे रूस में), या वैधानिक राजतन्त्र की परिस्थितियों में (जैसे जर्मनी में), या पूंजीपतियों के प्रजातन्त्र की परिस्थितियों में (जैसे फ्रांस में), अथवा एक जनवादी प्रजातन्त्र की परिस्थितियों में (जिनकी रूस का सामाजिक-जनवादी आन्दोलन मांग कर रहा है) राजनीतिक स्वतन्त्रता सबसे अधिक जनवादी प्रजातन्त्र में रहती है।

     यहां सबसे अधिक से हमारा मतलब, जाहिर है, यह है कि पूंजीवाद के कायम रहते हुए अधिक से अधिक राजनीतिक स्वतन्त्रता किस प्रकार की शासन-प्रणाली के अन्तर्गत मिल सकती हैं इसलिए, मजदूरों के समाजवाद का समर्थन करने वाले सभी लोग लाजमी तौर पर जनवादी प्रजातन्त्र कायम करने की कोशिश करते हैं और समझते हैं समाजवाद तक पहुंचने के लिए जनवादी प्रजातन्त्र सबसे अच्छे ‘पुल’ का काम करता है।

     इसलिए मौजूदा परिस्थितयों में मार्क्‍सवादी कार्यक्रम दो हिस्सों में बांट दिया गया है एक अधिकतम कार्यक्रम है जिसका लक्ष्य समाजवाद है, दूसरा न्यूनतम कार्यक्रम है जिसका लक्ष्य जनवादी प्रजातन्त्र कायम करके समाजवाद का रास्ता खोल देना है।

अपना कार्यक्रम पूरा करने के लिए, पूंजीवाद को खत्म करने तथा समाजवाद की रचना करने के लिए मज़दूर-वर्ग को क्या करना चाहिए?

जवाब साफ है। मजदूर वर्ग पूंजीपति वर्ग के साथ सुलह करके समाजवाद नहीं कायम कर सकता। उसे तो सदा संघर्ष के पथ पर ही चलना है और यह संघर्ष वर्ग-संघर्ष होगा – सारे पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध पूरे मजदूर वर्ग का संघर्ष।

     या तो पूंजीपति वर्ग और उसका पूंजीवाद रहेगा, या मज़दूर-वर्ग और उसका समाजवाद। मजदूर-वर्ग को अपने सारे कार्य इस आधार पर करने हैं, इस आधार पर अपना वर्ग-संघर्ष चलाना है।

परन्तु मजदूरो का वर्ग-संघर्ष अनेक रूपों में प्रकट होता है। उदाहरण के लिए, हड़ताल – चाहे वह आंशिक हो या आम हड़ताल – वर्ग-संघर्ष का ही एक रूप है, बहिष्कार अथवा ‘बायकाट’ आन्दोलन और तोड़-फोड़ भी निश्चय ही वर्ग-संघर्ष के रूप हैं। सभा, प्रदर्शन, जुलूस और सार्वजनिक प्रतिनिधि सभाओं में – चाहे वे राष्ट्रीय पार्लियामेन्ट हो अथवा स्थानीय बोर्ड अपने प्रतिनिधि चुनकर भेजना, ये भी वर्ग-संघर्ष के रूप हैं।

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