डॉ. विकास मानव
पुराणों के मिथकों को हम गल्प या कपोलकल्पना मान लेते हैं. इसलिए की इनका कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं है. तारीखें ईसवीसन से अस्तित्व में आई. इतिहासलेखन उसके पूर्व का संभव भी नहीं था. वैदिक, औपनिषदिक, पौराणिक साहित्य काफी पहले के हैं. साहित्य में कुछ काल्पनिक उड़ान स्वाभाविक भी है.
दूसरी बात यह की आप अपने पास्ट की कितनी पीढियाँ जानते हैं? दादा के पिता का नाम शायद आपको पता हो, लेकिन उसके पहले की पीढ़ियों के नाम? तो क्या आप कहेंगे की आपका आरंभ आपके दादा के पिता से है, उसके पहले कुछ था ही नहीं.
खैर, हम इस आलेख के मूल टॉपिक यानी शीर्षक पर आते हैं.
भारत के समस्त वैदिक और उत्तर वैदिक सिद्धान्तों में भगवान विष्णु के अवतारों का वर्णन है। यह तथ्य हजारों वर्ष पूर्व से प्रचलन में हैं, परन्तु चार्ल्स डार्विन, जिसका जन्म 12 फरवरी, 1809 ई. को हुआ और देहान्त 19 अप्रैल, 1882 ई. को हुआ, उसने क्रम विकास (Evolution) के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।
इस सिद्धान्त पर आधारित एक पुस्तक’ Origin of Spcecies’ 1859 ई. में लंदन से प्रकाशित हुई। इसमें जो मुख्य बात प्रसिद्ध हुई वह यह है कि प्राकृतिक वरण में वही जीव सफल होता है जो अपने आप को प्रकृति के सर्वाधिक अनुकूल ढाल लेता है, बाकि सब नष्ट हो जाते हैं।
पर्यावरण के संघर्ष तथा जातीय या अन्तर्जातीय संघर्ष में योग्यतम ही सफल हो पाते हैं, बाकी सब हार जाते हैं।
विकासवाद के अन्य सिद्धान्त के अनुसार प्रजातियों का विकास धीरे-धीरे हुआ है। इस विकास की प्रारम्भिक अवस्था में एक कोशीय जीवों से प्रारम्भ करके वायुचर, जलचर व स्थलचर प्राणियों का विकास हुआ तथा मनुष्य के लिए यह स्थापना की गई कि उसका विकास वानरयोनि से हुआ है।
वह वानर जो मनुष्य में परिवर्तित हो गया, उसका नाम होमोसेपियन्स है। इस सिद्धान्त पर आधारित पुस्तक Evolution of Man 1910 में प्रकाशित हुई, जिसे एर्स्ट हेक्केल ने लिखा।
जीवन विकास क्रम में आनुवांशिक उत्परिवर्तन देखा गया। इस प्रक्रिया में जीवों की आनुवांशिक रचनाओं में परिवर्तन आ जाते हैं। इस विषय में ग्रेगर मेंडल ने पौधों पर अपनी शोध प्रस्तुत की। चाहे जीव हो, चाहे पादप हो, जैनेटिक ड्रिफ्ट सभी में पाया गया।
विश्व में जितने भी आविष्कार हुए, खासतौर से ब्रिटिश कॉलोनीज वाले देशों में, वह तभी सामने आये या विकसित हुए जब उन्होंने भारत पर शासन किया। यहाँ के शास्त्रों का अनुवाद किया और वैदिक व दार्शनिक शास्त्रों के उन मूलभूत सिद्धान्तों पर काम किया जो वैज्ञानिक विश्लेषण में मदद कर सकते हैं। अंग्रेजी शासन के समय भारत में शोध कार्य लगभग रुक गया था, परन्तु भारतीय शास्त्रों से निकला हुआ विज्ञान संसार भर के वैज्ञानिकों के काम आया।
पुराने ग्रन्थों का अनुवाद हुआ और प्राचीन शास्त्रों में वर्णित वैज्ञानिक अवधारणाओं पर परीक्षण हुए और पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने काम को आगे बढ़ाकर अपने-अपने नाम से शोधपत्र प्रस्तुत किये। ऐसे सैंकड़ों विषय गिनाये जा सकते हैं।
जीव विकास क्रम तो अवतार कथाओं में ही छीपा हुआ है। भगवान विष्णु के 10 प्रमुख अवतार माने गये हैं। ये अवतार क्रमशः हैं- 1. मत्स्य अवतार, 2. कूर्म अवतार, 3. वराह अवतार, 4. नृसिंह अवतार, 5. वामन अवतार, 6. श्रीराम अवतार, 7. श्रीकृष्ण अवतार, 8. परशुराम अवतार, 9. बुद्ध अवतार, 10. कल्कि अवतार। इन्हीं पर आधारित पुराण भी लिखे गये।
समुद्र में रहने वाले जीवों की उत्पत्ति के समय तक जितने भी सूक्ष्म और स्थूल जीव पृथ्वी पर आये, उनको संरक्षण देने के लिए, उनकी रक्षा के लिए भगवान विष्णु ने मत्स्य के रूप में अवतार लिया। एक समय ऐसा था जब पृथ्वी पर जल ही जल था और जल प्रलय से बाहर निकली हुई पृथ्वी पर जो जीव जगत हो सकते थे, वे जल में ही रहने वाले थे। उनके संरक्षण के लिए या रक्षा के लिए भगवान ने मत्स्य के रूप में अवतार लिया।
भगवान विष्णु का दूसरा अवतार कूर्मावतार या कच्छप अवतार था। यह दूसरा अवतार था जिसमें भगवान ने समुद्र मंथन में भाग लेने के लिए मंदराचल पर्वत को प्रयोग में लिया और समुद्र में मंदराचल स्थिर रहे इसीलिए आधार भूमि के रूप में कच्छप के रूप में अवतार लिया। यह तो पौराणिक कथा है। आप कल्पना करें कि ऐसे जीवों की उत्पत्ति हुई होगी जो जल से बाहर आकर बची हुई स्थल भूमि पर निवास कर सकें और जीवित रह सकें। वराह अवतार के रूप में जीवों की ऐसी श्रेणी उस समय पृथ्वी पर आ चुकी थी जिसमें छोटी से छोटी छिपकली से लेकर डायनासोर तक शामिल थे।
समस्त सरीसृप (Reptiles) भी शामिल थे। इनमें सर्प और तमाम प्रजातियाँ, छोटी से बड़ी छिपकलियाँ यथा – घडयाल एवं मगरमच्छ भी शामिल थे। जैव विकास क्रम का यह तीसरा पड़ाव था, जहाँ भगवान विष्णु ने इस श्रेणी के जीवों की रक्षा एवं उद्धार के लिए वराह के रूप में अवतार लिया। पौराणिक कथन तो यह है कि जल में डूबी हुई पृथ्वी को भगवान वराह ने अपने थूथन पर लेकर बाहर निकाल लिया और तब उत्पन्न हुए स्थल पर अन्य प्राणियों का आगमन हुआ। उस समय तक के सभी प्राणियों तक के लिए भगवान ने बराह के रूप में ही अवतार लिया।
जैव विकास क्रम में छोटी-बड़ी छिपकलियाँ, सरीसृप तथा डायनासोर जैसी सत्ताओं के पश्चात् अन्य जीव अस्तित्व में आए, जिनमें जंगलों में रहने वाले हिंसक प्राणी यथा सिंह, चीता जैसे प्राणी तथा दूसरी तरफ मनुष्य योनि की ओर बढ़ने वाले प्राणी भी अस्तित्व में आए। आनुवांशिकी विविधताएँ, उत्परिवर्तन (Mutation) तथा अस्तित्व के लिए संघर्ष करती हुई प्रजातियाँ अस्तित्व में आईं।
सब कुछ ईश्वर की माया के अन्तर्गत संचालित था। इस अवधि में जबकि, प्राणियों के बीच में अनाचार अपने चरम पर था तब भगवान विष्णु को नृसिंह अवतार लेना पड़ा। उस समय तक देव योनियाँ, असुर, गंधर्व, यक्ष, किन्नर, मनुष्य आदि प्रजातियाँ पृथ्वी पर आ चुकी थीं। कई प्रजातियों को परास्त किया जाना सम्भव नहीं था। भगवान नृसिंह का अर्थ है कि सिंह जैसा बल और पराक्रम तथा मनुष्य जैसा चातुर्य, बल तथा संकल्प शक्ति।
नृसिंह अवतार की घटना को आनुवांशिकी उत्परिवर्तन के चरमोत्कर्ष के रूप में देखा जा सकता है। जिसमें पशु व मानव, दोनों ही लक्षण एक ही शरीर में उपस्थित थे।
इसके बाद के समस्त अवतार मानव के रूप में ही आए। जिस Survival of the fittest का सिद्धान्त 19वीं या 20वीं सदी में उभर कर आया, वह भारत में तो आदिकाल से ही चला आया था। अन्तर्जातीय संघर्ष भी लगातार चल रहे थे। भगवान राम का अवतार व बाद में भगवान कृष्ण का अवतार इन्हीं परिस्थितियों में हुआ।
महाभारत काल में भी केवल देव-दानव संघर्ष ही नहीं चल रहा था, बल्कि राजा जन्मेजय के द्वारा किया गया सर्प यज्ञ अन्तर्राजातीय संघर्ष का श्रेष्ठ उदाहरण है। उस समय संसार की अधिकतम सर्प जातियाँ नष्ट कर दी गई थीं और नागों का शासन भी बहुत जगह समाप्त हो गया था। महाभारत काल एक प्रकार से पर्यावरणीय संघर्ष था।
विष्णु का अंतिम अवतार कल्कि रूप में होगा जो कि कलियुग के उस चरण में होगा, जब जातीय और अन्तर्जातीय संघर्ष अपने चरम पर होंगे और पाप व अनाचार अत्यधिक बढ़ जाने के कारण जातीय एवं अन्तर्जातीय संघर्ष में एक दूसरे को विनाश करने की भावना प्रबल हो जाएगी।
भगवान कल्कि के अवतार को घोड़े पर बैठे हुए अवतार के रूप में दिखाया गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि प्राकृतिक घटनाओं या परमाणु युद्धों के परिणाम स्वरूप वर्तमान सभ्यताएँ नष्टप्राय हो जाएंगी और भगवान मानव के रूप में ही अवतार लेंगे।
यह सम्भव है कि इसके बाद के अन्य अवतार और भी अधिक उन्नत योनियों के रूप में प्रकट हों। यह भी सम्भव है कि मनुष्य से भी उच्चतर श्रेणी के प्राणी अस्तित्व में आ जाएं और कल्कि अवतार के बाद वाले अवतार भी मानव योनि से अधिक उच्चतर योनि में अवतरित हों।
डार्विन और बाद के वैज्ञानिकों ने जिस जैव विकासक्रम की और उत्पपरिवर्तनों की कल्पना की है तथा जिस जातीय, अन्तर्जातीय तथा पर्यावरणीय संघर्ष की विवेचना की है, वह सब पहले से ही विष्णु के दस अवतारों के रूप में देखा जा सकता है।
ज़ाहिर है कि पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने अपनी परिकल्पनाओं का आधार विष्णु के अवतार क्रम को बनाया है।