राम पाठक
अब, जबकि गृह मंत्री अमित शाह के संसद में दिए गए बयान को एक हफ्ता हो चुका है, देखा जा रहा है कि उनके खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन शुरू हो गया है। इस आंदोलन में सिर्फ इंडिया ब्लॉक में शामिल दल ही नहीं हैं, बल्कि उससे अलग दल, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन भी शामिल हो गए हैं। इस राष्ट्रव्यापी प्रतिरोध का इतना तो असर हुआ है कि स्वयं गृह मंत्री शाह को मैदान में उतर कर प्रेस-कॉन्फ्रेंस करके अपने बयान के संबंध में सफाई देनी पड़ी है।
यह अलग बात है कि उनकी सफाई में कांग्रेस पर हमले के अलावा कुछ नहीं है। उन्होंने स्पष्ट किया कि उनके बयान को काट-छांटकर करके कांग्रेस द्वारा प्रचारित किया गया है। लेकिन उनके इस जवाब से उस सवाल का हल नहीं निकल पाया कि उन्होंने आखिरकार, अपनी बात कहने के लिए संविधान के जनक डॉ. भीमराव आंबेडकर के प्रति हिकारत का भाव क्यों चुना था?
क्या वह अपने पूज्य गुरु गोलवलकर या वीर सावरकर या अपने ‘यशस्वी’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम किसी भी संदर्भ में इस तरह ले सकते थे? तब क्या शाह बरसों से आंबेडकर के प्रति जमा घृणा-भाव से संचालित थे और अनचाहे-अनजाने इसी श्रेष्ठता-बोध मानसिकता के शिकार हो गए? शाह ने कहा कि आंबेडकर का नाम लेना (जाहिर है विपक्षियों के लिए) एक फैशन हो गया है तो यह प्रतिप्रश्न उनसे क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि क्या जैश्रीराम का नाम लेना भी भारतीय जनता पार्टी के लिए फैशन है। अगर किसी के समर्थन या अनुगामिता को फैशन की तर्ज पर तौला जाएगा, तो आप स्वयं भी उसी कटघरे में खड़े किए जाएंगे।
शाह की मुश्किल यह है कि ढेला उनके हाथ से छूट गया है और क्षतिपूर्ति की कोई तरकीब काम नहीं आ रही है? क्या कोई क्षतिपूर्ति संभव है भी, सिवाय इसके कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन्हें मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दें या स्वयं अमित शाह ही झुक कर क्षमा-याचना कर लें। उनके ट्रैक-रिकॉर्ड को देखते हुए ऐसा नहीं लगता। बल्कि यह विश्वास ज्यादा मजबूत होता जा रहा है कि गृह मंत्री अमित शाह के ‘दुर्वचनों’ में यह एक कड़ी और जुड़ जाए। और, बहुत संभव है कि आगामी दिनों में, इसका भारी राजनीतिक नुकसान उन्हें और उनकी पार्टी को हो।
इस चर्चा में हमें इतिहास के कुछ पन्नों को भी पलट लेना चाहिए। जिससे भाजपा की मातृ-संस्था यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और डॉ आंबेडकर की विचारधारा और संबंधों की कुछ पड़ताल हो सके। इससे इस तथ्य पर भी रोशनी पड़ेगी कि आखिरकार, संघ परिवार और उसके नेतागण डॉ. आंबेडकर के प्रति द्वेष-भाव क्यों रखते हैं।
संघ की स्थापना बनाम मनुस्मृति दहन
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 27 सितंबर, 1925 को विजयादशमी के दिन डॉ केशवराम बलिराम हेडगेवार ने की, और उनका लक्ष्य स्पष्ट था। अपने आरंभिक अवधारणा में ही संघ भारत को एक हिंदू राष्ट्र के रूप में देखने का हिमायती था, जिसमें सनातन और हिंदू संस्कृति के मूल्यों के आधार पर राष्ट्र-गठन की बात तय हुई थी। संघ खुले तौर पर मनुस्मृति का समर्थक भले न रहा हो, लेकिन छिपे तौर पर उसके सिद्धांत और विचार का बड़ा अंश उन्हीं मूल्यों से पोषित था।
आंबेडकर आरंभ से ही हिंदू-धर्म के भीतर चल रही वर्णवादी व्यवस्था, अस्पृश्यता और जाति आदि के मुखर विरोधी थे। संघ की स्थापना के दो साल बाद, आंबेडकर ने 25 दिसंबर, 1927 को महाराष्ट्र में मनुस्मृति को सार्वजनिक तौर पर जलाया। यहीं से दोनों की विचारधारा की शिनाख्त हो गई और यह भी तय हो गया कि दोनों दो विपरीत दिशाओं के राही हैं, इसलिए उनका मेल असंभव है। यानी संघ का ऐतिहासिक रूप से भारतीय आंबेडकर के साथ व्यत्क्रमानुपाती संबंध है।
आंबेडकर, सामाजिक न्याय और दलितों और हाशिए के समुदायों के अधिकारों के लिए संघर्षरत थे। दूसरी ओर, आरएसएस, एक हिंदू राष्ट्रवादी संगठन के तौर पर उभरा और हिंदू एकता, संस्कृति और मूल्यों पर बल देने लगा। आंबेडकर ने जब 1956 में हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म को अपनाया फिर तो उन पर संघ का आक्रमण शुरू हो गया। संघ ने उन्हें हिंदू धर्म की पारंपरिक संरचनाओं की अस्वीकृति के रूप में देखा।
कहना जरूरी नहीं है कि अमित शाह के बयान में वही मानसिकता की झलक है, जिसमें संघ परिवार आपाद्मस्तक डूबा हुआ है। इसके अलावा, भी संघ परिवार आंबेडकर के उन प्रश्नों से भी आहत और विचलित है, जिन्हें आंबेडकर ने अपनी किताबों में उठाया है, खासकर, वेदों और हिंदू-पुराणों को लेकर।
आंबेडकर के कुछ मूल प्रश्न यों हैं- कोई हिंदू क्यों है, वेदों की उत्पत्ति के बारे में ब्राह्मणों की व्याख्या में इतना वाग्जाल क्यों है, वेद संशय रहित या असंदिग्ध क्यों हैं, वेद अपौरुषेय क्यों हैं, क्या वेदों की विषय-वस्तु की कोई नैतिक या आध्यात्मिक मूल्य हैं, वेद और उपनिषद में तथ्यों की कमी क्यों है, ब्राह्मणों ने देवताओं का उत्थान-पतन क्यों किया, देवताओं का मुकुट उतार कर देवियों के सिर पर क्यों रखा गया, अगर वैदिक लोग अहिंसक थे तो मांसभक्षी क्यों थे, चार वर्ण क्यों हैं, ब्रह्म किया काम है आदि-आदि। आंबेडकर ने सबसे बड़ा आघात राम और कृष्ण को लेकर किया है, जो कि इन दिनों संघ परिवार के लिए सबसे बड़ी पहेली बना हुआ है। आंबेडकर राम और कृष्ण, दोनों के अस्तित्व और चरित्र पर प्रश्न-चिह्न लगाते हैं।
ऐसी स्थिति में, संघ को कोई उत्तर नहीं सूझता। संघ परिवार आंबेडकर के प्रश्नों का उत्तर देने के बजाय, गुत्थियों को दूसरी ओर मोड़ना चाहता है। यही वजह है कि वैचारिक और सैद्धांतिक रूप से दोनों का मेल नहीं हो सकता। बल्कि, संघ की स्थिति रहीम की उस दोहे जैसी है, जिसमें वह कहते हैं—
कह रहीम कैसे निभे केर-बेर को संग।
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग।।
अमित शाह के गले में किसकी आवाज?
बीते 17 दिसंबर यानी मंगलवार को भारत के गृह मंत्री अमित शाह द्वारा राज्यसभा में दिए गए डॉ भीमराव आंबेडकर संबंधी बयान को लेकर इन दिनों विपक्ष बेहद आक्रोशित है। शाह के बयान को लेकर चौतरफा निंदा हो रही है, जो कि स्वाभाविक है। बदले में भारतीय जनता पार्टी की तरफ से भी तरह-तरह की दिखावटी और बनावटी पैंतरेबाजी की जा रही है।
शाह के बयान का दूरगामी नतीजा क्या होगा, हम आगे चलकर इसका भी विश्लेषण करेंगे। फिलहाल, हमें यह समझ लेना जरूरी है कि गृह मंत्री अमित शाह जिस हिंदूवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं, आंबेडकर का उससे रिश्ता क्या है?
हम पाते हैं कि आजादी के फौरन बाद संसद में कानून मंत्री के तौर पर आंबेडकर द्वारा पेश किए गए हिंदू विधेयक के पहले और बाद में भी जनसंघ (जिसे बाद में बदलकर भारतीय जनता पार्टी नाम दिया गया) ने कभी भी उनका समर्थन नहीं किया।
इसके अनगिनत ऐतिहासिक प्रमाण लिखित रूप से मौजूद हैं। संघ परिवार और उससे जुड़े दूसरे संगठन तथा उसका राजनीतिक मुखौटा बनी भारतीय जनता पार्टी का आंबेडकर के विचारों से छत्तीस का ही आंकड़ा रहा है।
यही वजह रही कि ‘बजरंगी पत्रकार’ कहे जाने वाले और वाजपेयी सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे अरुण शौरी ने worshiping false God ( झूठे भगवान की पूजा करना) नामक पुस्तक लिखकर आंबेडकर के कद को छोटा करने की कोशिश की।
इस पुस्तक में शौरी ने कई आधे-अधूरे और अप्रमाणित तथ्यों के आधार पर आंबेडकर की प्रतिमा को खंडित करने का भरसक प्रयास किया।
इस पुस्तक की एक गहरी समीक्षा भारतीय गणेशा ने लिखी, जिसमें उन्होंने शौरी द्वारा प्रतिपादित एक अंश का खुलासा इस तरह किया है-, ‘भारत की जाति व्यवस्था पर आधारित आंबेडकर की पुस्तक ‘जाति का विनाश’ ‘उच्च’ जातियों’ (ब्राह्मणों और बनिया) के खिलाफ तोते की औपनिवेशिक और मिशनरी तर्कों की बयानबाजी जैसी थी।
उन्होंने अंग्रेजों को यह विश्वास दिलाया कि वह हरिजनों के एकमात्र प्रतिनिधि हैं, ठीक वैसे ही जैसे जिन्ना मुसलमानों के लिए थे। अपने संगठन को दलित वर्गों का एकमात्र प्रतिनिधि बनाने के लिए उनकी निरंतर कोशिशों के बावजूद, अंग्रेजों ने उन्हें अहमियत नहीं दी।
आंबेडकर ने कभी कोई चुनाव नहीं जीता। उनकी पार्टी हरिजन निर्वाचन क्षेत्रों में भी बुरी तरह से कांग्रेस से हार गई थी।’ इसमें कुछ तथ्य ठीक हैं लेकिन उनकी व्याख्या का उद्देश्य और चुनाव सतही और मूर्तिभंजन तक सीमित है।
इस पुस्तक के प्रकाशन से यह तथ्य भी सामने आया कि संघ परिवार और भाजपा शायद यह भांप गए कि आने वाले समय में आंबेडकर का प्रभाव और उनकी विचारधारा बलवती होने वाली है। इसलिए, भाजपा के बौद्धिकों ने तय किया कि आंबेडकर की विचारधारा को फलने-फूलने से पहले ही कुचल दिया जाए।
यह कहना शायद अभी जल्दबाजी होगी कि भाजपा को इससे कितना और कैसा लाभ हुआ। लेकिन यह साफ तौर पर दिख रहा है कि उगते सूरज की लालिमा को नजरअंदाज उसके बस में नहीं रहा।
बल्कि, यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि उल्टे भाजपा ने जब देख लिया कि आंबेडकर की विचारधारा को कुचलना उसके वश की बात नहीं है तो दबे गले से सही उसने उन्हें अपने खेमे में खींचने की कोशिश की। जिन आंबेडकर की विचारधारा को संघ परिवार और भाजपा, चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करते थे, वे धीरे-धीरे अपने कार्यक्रमों में आंबेडकर की तस्वीरें टांगने लगे।
लेकिन, अमित शाह के बयान से भाजपा की वह मिट्टी की हंडिया फूट गई, जिसे वह गले से लटकाने का स्वांग कर रही थी। कह सकते हैं, इंदीवर लिखित ‘कामचोर’ फिल्म के गाने का सहारा लेने में कोई बुराई नहीं है, जिसमें कहा गया है- जुबां पर दिल की बात आ गई।
दरअसल, अमित शाह जिस संस्कृति और विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं, उस खांचे में आंबेडकर को पचाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। इसलिए दलित वोट बैंक की सतही राजनीति करने, दिखावटी कार्यक्रम गढ़ने और औने-पौने किसी को कोई पद दे देने से आंबेडकर का अंगीकरण नहीं हो सकता।
क्योंकि, आंबेडकर जिस भाव-भूमि पर खड़े हैं, उसका कोई तार संघ परिवार से मिलता ही नहीं है। हिंदू राष्ट्र और सनातन संस्कृति की जिस आधार-शिला पर भाजपा अपना पैर टिकाना चाहती है, आंबेडकर उसे छिन्नमूल करना चाहते हैं। आंबेडकर सिर्फ हिंदूवादी विचारधारा से छत्तीस का आंकड़ा नहीं रखते, बल्कि उसे धूलिसात करना चाहते थे।
जहां इतना वैषम्य हो, वहां भाजपा का बर्ताव उनके प्रति नरम कैसे हो सकता है। इसीलिए, अमित शाह के बयानों में इतनी कटुता और उपेक्षा परिलक्षित हुई है।
सनातन का विरोध यानी कटुता की जड़ें
आंबेडकर के परिनिर्वाण के कई दशक बाद यानी 1987 में महाराष्ट्र सरकार के तब के कांग्रेसी मुख्यमंत्री शंकरराव चव्हाण के कार्यकाल में अंग्रेजी भाषा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक RIDDLES IN HINDUISM ( हिंदूवाद या हिंदू धर्म की गुत्थियां) में कटुता की जड़ों को स्पष्टतौर पर दर्शाया गया है।
आंबेडकर द्वारा लिखित कई किताबों में इसका बहुमूल्य स्थान है। इस पुस्तक में आंबेडकर ने सनातन की चट्टान को ढहा दिया है।
पुस्तक के परिचय में ही वह लिखते हैं, “ब्राह्मणों ने यह प्रचारित किया कि हिंदू सभ्यता सनातन है, मतलब अपरिवर्तनीय है। बहुत से यूरोपीय विद्वानों ने भी यही राग अलापा है, जिनका कहना है कि हिंदू सभ्यता अडिग-अटल है। इस पुस्तक में मैंने यही बताने की चेष्ठा की है कि यह धारणा तथ्यपरक नहीं है और हिंदू सभ्यता समय-समय पर बदलती रही है तथा अक्सर इसमें भारी बुनियादी परिवर्तन हुए हैं”।
“मैं लोगों को यह एहसास कराना चाहता हूं कि हिंदू धर्म सनातन नहीं है।…यह सब कमाई का धंधा है, धर्म जाए भाड़ में। ब्राह्मण को सिर्फ दक्षिणा से गरज है। दरअसल, ब्राह्मणों ने धर्म को व्यापार बना रखा है।…..जिन्हें अंधकार का एहसास ही नहीं है, वे प्रकाश की खोज क्यों करेंगे?”
इसी क्रम में वह आगे लिखते हैं, “परंतु, ब्राह्मणों ने संदेह की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी क्योंकि उन्होंने बड़ी चालाकी से एक मंत्र फूंक दिया, लोगों के भीतर एक ढकोसला डाल दिया कि वेद इंसान की रचना नहीं हैं।
यदि हिंदू मनीषा जड़ हो गई है और हिंदू सभ्यता तथा संस्कृति एक सड़े हुए बदबूदार पोखर की तरह हो गई है तो यह ढकोसला जड़ मूल खत्म करना होगा, यदि भारत को प्रगति करनी है तो।
वेद बेकार की रचनाएं हैं, उन्हें पवित्र और संदेह से परे बताने में कोई तर्क नहीं है।
ब्राह्मणों ने इन्हें केवल इसलिए पवित्र और संदेहातीत बना दिया क्योंकि उन्होंने इनमें पुरुष सूक्त के नाम से एक क्षेपक जोड़ दिया था, जिसने ब्राह्मण को भूदेव (पृथ्वी का देवता) बना दिया। कोई यह पूछने का साहस नहीं करता कि जिन पुस्तकों में कबीलाई देवताओं से प्रार्थना की गई है कि वे शत्रु का नाश कर दें, उनकी संपत्ति लूट लें और अपने अनुयायियों में बांट दें, वे संदेहातीत कैसे हो गईं?
लेकिन अब समय आ गया है कि हिंदू इस अंधे कुएं से बाहर निकलें। उन सड़ियल विचारों को तिलांजलि दे दें जो ब्राह्मणों ने फैलाए हैं। इनसे मुक्ति पाए बिना भारत का कोई भविष्य नहीं है। मैंने हर तरह की जोखिम जान कर यह रचना की है। मैं इसके परिणामों से नहीं डरता। यदि मैं लोगों की आंखें खोलने में सफल होता हूं तो मुझे प्रसन्नता मिलेगी। बी-आर. आंबेडकर।’
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