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भारत की आजादी के लिए जब सैकड़ों वीरों ने दी प्राणों की आहुति

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खोंगजोम का एंग्लो-मणिपुर युद्ध और क्योंझर का विद्रोह

भारत को मिली आजादी केवल एक दिन या एक व्यक्ति के संघर्ष का परिणाम नहीं था। बल्कि यह कई दिन और असंख्य लोगों के संघर्ष का नतीजा था। करीब 200 वर्षों की दासता के कालखंड में कई बार ऐसे पल आए, जब अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह चिंगारियां भड़कीं। अंग्रेजों ने बुरी तरह से इन्हें दबाने की कोशिश की और न जाने कितने असंख्य वीरों को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। भारत के आजादी के इतिहास में मणिपुर में खोंगजोम और ओडिशा में क्योंझर ऐसे ही संघर्ष के साक्षी हैं….

रा‌ष्ट्र के लिए जो बलिदान देते हैं, उन्हें अमरत्व प्राप्त होता है। वो प्रेरणा के पुष्प बनकर पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी सुगंध बिखेरते रहते हैं। भारत को गुलामी के सैकड़ों वर्षों के कालखंड से आजादी, तीन धाराओं के संयुक्त प्रयासों से मिली थी। एक धारा थी क्रांति की, दूसरी धारा सत्याग्रह की और तीसरी धारा थी जन-जागृति की। ये तीनों ही धाराएं, तिरंगे के तीन रंगों में उभरती रही हैं। 23 मार्च को शहीद दिवस के अवसर पर विक्टोरिया मेमोरियल हॉल में बिप्लोबी भारत गैलरी(देखें बॉक्स) का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका जिक्र करते हुए कहा था, “हमारे तिरंगे का केसरिया रंग, क्रांति की धारा का प्रतीक है। सफेद रंग, सत्याग्रह और अहिंसा की धारा का प्रतीक है। हरा रंग, रचनात्मक प्रवृत्ति की धारा का, और तिरंगे के अंदर नीले चक्र को मैं भारत की सांस्कृतिक चेतना के प्रतीक के रूप में देखता हूं। आज तिरंगे के तीन रंगों में नए भारत का भविष्य भी देख रहा हूं। केसरिया रंग अब हमें कर्तव्य और राष्ट्रीय सुरक्षा की प्रेरणा देता है। सफेद रंग अब ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास’ का पर्याय है। हरा रंग आज पर्यावरण की रक्षा के लिए, रीन्यूएबल एनर्जी के लिए भारत के बड़े लक्ष्यों का प्रतीक है और तिरंगे में लगा नीला चक्र आज ब्लू इकॉनमी का पर्याय है।” 18 मार्च  को मलयालम दैनिक मातृभूमि के शताब्दी वर्ष समारोह(देखें बॉक्स) का उद्घाटन करते हुए एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आजादी के बलिदानियों के संघर्ष पर कहा, “स्वराज्य के लिए स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हमें अपना जीवन बलिदान करने का अवसर नहीं मिला। हालांकि यह अमृत काल हमें एक मजबूत, विकसित और समावेशी भारत बनाने की दिशा में काम करने का अवसर दे रहा है। किसी भी देश के विकास के लिए अच्छी नीतियां बनाना एक पहलू है।” इससे साबित होता है कि आने वाले वर्षों में एक बेहतर राष्ट्र बनाने को लेकर और बहुत कुछ है जो आजादी का अमृत महोत्सव को ध्यान में रखकर किया जा सकता है। स्वतंत्रता संग्राम की कम चर्चित घटनाओं और गुमनाम स्वतंत्रता सेनानियों की चर्चा को आगे बढ़ाने में मीडिया एक बड़ा माध्यम हो सकता है। इसी तरह, हर कस्बे या गांव में स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े स्थान हैं, जिनके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है, हम उन स्थानों को हाइलाइट और लोगों को वहां जाने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं। 

आजादी के अमृत महोत्सव के इस बार के अंक में पढ़िए दो ऐसे ही संघर्ष  की कहानियां, जो इतिहास के पन्नों में शायद वो स्थान हासिल नहीं कर पाईं, जो उन्हें मिलना चाहिए था। लेकिन जिन्होंने अंग्रेजी साम्राज्य की जड़ों को हिला देने का काम किया। मणिपुर के खोंगजोम और ओडिशा के क्योंझर में हुए स्वतंत्रता संग्राम की कहानी…

महात्मा गांधी के आदर्शों से प्रेरित होकर हुआ था मातृभूमि का जन्म 

महात्मा गांधी के आदर्शों से प्रेरित होकर मातृभूमि का जन्म भारत के स्वतंत्रता संग्राम को मजबूत करने के लिए हुआ था। यह 18 मार्च 1923 को शुरु हुआ था। अगर हम अपने इतिहास पर नजर डालें तो कई महान व्यक्ति किसी न किसी अखबार से जुड़े रहे हैं। लोकमान्य तिलक ने ‘केसरी’ और ‘महरट्टा’ को आगे बढ़ाया तो वहीं गोपाल कृष्ण गोखले ‘हितवाद’ से जुड़े थे। स्वामी विवेकानंद का संबंध ‘प्रबुद्ध भारत’ से था और महात्मा गांधी ‘यंग इंडिया’, ‘नवजीवन’ और ‘हरिजन’ से संबद्ध रहे थे।  केरल से प्रकाशित मलयालम दैनिक मातृभूमि की स्थापना केपी केशव मेनन ने की थी, जो अंग्रेजों के खिलाफ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय स्वयंसेवक थे।

विक्टोरिया मेमोरियल हॉल में देख सकेंगे बिप्लोबी भारत गैलरी 

बिप्लोबी भारत गैलरी पश्चिम बंगाल की समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहरों को संजोने और संवारने की सरकार की प्रतिबद्धता का एक प्रमाण है। इस गैलरी में स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों के योगदान और ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के लिए उनके सशस्त्र प्रतिरोध को प्रदर्शित किया गया है। इस नई गैलरी का उद्देश्य 1947 तक की घटनाओं का समग्र दृष्टिकोण प्रदान करना और क्रांतिकारियों की महत्वपूर्ण भूमिका को उजागर करना है। बिप्लोबी भारत गैलरी उस राजनीतिक और बौद्धिक पृष्ठभूमि को दर्शाती है, जिसने क्रांतिकारी आंदोलन को गति दी। इसमें क्रांतिकारी आंदोलन की शुरुआत, क्रांतिकारियों द्वारा महत्वपूर्ण संघों के गठन, आंदोलन के प्रसार आदि को प्रदर्शित किया गया है।

आजादी के मतवालों ने मणिपुरी के खोंगजोम में डट कर किया था ब्रिटिश साम्राज्य का मुकाबला

खों‌गजोम, पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर की एक ऐसी जगह है, जहां पर हुए एक सशस्त्र विद्रोह ने अंग्रेजी शासन की नाक में दम करके रख दिया था। 1891 में हुआ एंग्लो-मणिपुर युद्ध देश के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। ब्रिटिश औपनिवेशिक विस्तार के खिलाफ युद्ध में मणिपुर के छोटे से राज्य के कई लोगों ने अंग्रेजों के शक्तिशाली साम्राज्य के खिलाफ लड़ाई लड़ी और अपनी मातृभूमि की गरिमा, सम्मान और संप्रभुता को बचाने के लिए अपने प्राणों तक की आहुति दे दी। उस दौर में कहा जाता था कि ब्रिटिश साम्राज्य का ‘सूरज कभी नहीं डूबता’। उस समय मणिपुर जैसे छोटे राज्य का अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने का मतलब हार के अलावा और कुछ नहीं था। बावजूद इसके, वीर मणिपुरी योद्धाओं ने हार नहीं मानी। ब्रिटिश सरकार शुरू से ही मणिपुर को अपने नियंत्रण में रखना चाहती थी, लेकिन यह संभव नहीं हो पा रहा था। ऐसे में अंग्रेजों ने 22 मार्च 1890 को 400 गोरखा सैनिकों को मणिपुर भेज दिया और 24 मार्च 1891 में मणिपुर के महल कांगला पर हमला कर दिया। 

अंग्रेजों के इस अन्यायपूर्ण रवैये के कारण कई लोग मारे गए और मणिपुरी व ब्रिटिश सेना के बीच सशस्त्र संघर्ष शुरू हो गया। एक ओर जहां अंग्रेजी सेना के पास आधुनिक हथियार और बम थे तो वहीं मणिपुरी सेना के पास केवल पारंपरिक भाला और तलवारें थीं। बावजूद इसके मणिपुरी सेना ने अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लेकर उन्हें कड़ी टक्कर दी। युद्ध के पहले चरण में अंग्रेजों ने आत्मसमर्पण कर दिया था और उन्हें मुंह की खानी पड़ी, लेकिन दूसरे चरण में अंग्रेजों ने तीन तरफ से मणिपुर पर हमला किया। मणिपुरी सेना ने बड़ी वीरता के साथ लड़ाई लड़ी, लेकिन 23 अप्रैल 1891 को खोंगजोम में उसे हार का सामना करना पड़ा और कई बहादुर योद्धा इस युद्ध में शहीद हो गए। इस लड़ाई को भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में सबसे भीषण लड़ाईयों में से एक माना जाता है। यह युद्ध मणिपुर के खोंगजोम की खेबा पहाड़ियों पर लड़ा गया था और इसलिये इस दिवस को खोंगजोम दिवस के नाम से जाना जाता है। 27 अप्रैल 1891 को जब युद्ध समाप्त हुआ, उसके बाद अंग्रेजों का मणिपुर पर पूर्ण नियंत्रण हो गया। युद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार ने कई लोगों के विरुद्ध मुकदमा चला कर उन्हें मृत्युदंड दिया। 13 अगस्त 1891 के दिन  राजकुमार टिकेंद्रजीत के साथ चार अन्य लोगों को अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया, जबकि कुलचंद्र को 22 अन्य लोगों के साथ अंडमान द्वीप समूह भेज दिया गया था। कहा जाता है कि मणिपुरी सेना और वहां के लोगों की वीरता और बहादुरी को देख कर अंग्रेज भी दंग रह गए थे। मणिपुर के  खोंगजोम में बहादुर सैनिकों ने इसलिए अपने प्राणों की आहुति दी थी, ताकि आने वाली पीढ़ियां आजादी की हवा में सांस ले सकें। भारतीय राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने का काम प्लासी की 1757 की लड़ाई के साथ शुरू हुआ था और खोंगजोम की लड़ाई के साथ यह खत्म हुआ था। इस लड़ाई के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन आने वाला मणिपुर आखिरी राज्य बना था। इस युद्ध को 1891 के एंग्लो-मणिपुर युद्ध के रूप में जाना जाता है। 23 अप्रैल 2016 को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने मणिपुर के खोंगजोम में इस खोंगजोंम युद्ध स्मारक का उद्घाटन किया था। खोंगजोम स्मारक स्थल, न सिर्फ मणिपुर बल्कि शेष भारत के लोगों का पवित्र तीर्थस्थल बन गया है।

खोंगजोम युद्ध 

स्मारक परिसर 

खोंगजोम युद्ध स्मारक परिसर मणिपुर के थौबल जिले के खोंगजोम में स्थित है। स्मारक परिसर का निर्माण उन बहादुर मणिपुरी सैनिकों को श्रद्धांजलि के रूप में किया गया था, जिन्होंने 1891 के एंग्लो मणिपुरी युद्ध में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। खोंगजोम दिवस हर साल 23 अप्रैल को मनाया जाता है और इस साल इसकी 131 वीं बरसी है।

क्योंझर में हुए भूइयां और जुआंग आदिवासियों के विद्रोह ने उड़ा दी थी अंग्रेजों की नींद

ओ‌डिशा के क्योंझर में हुए विद्रोह ने न केवल अंग्रेजी हुकूमत को कड़ी टक्कर दी थी बल्कि उनकी नींद भी उड़ा कर रख दी थी। दरअसल, अंग्रेजी सरकार ने क्योंझर के भूइयां और जुआंग लोगों की इच्छा एवं रीति-रिवाज के खिलाफ एक नए राजा को गद्दी पर बिठा दिया। अंग्रेज उस राजा के माध्यम से शासन करना चाहते थे, जिसे स्थानीय लोग पसंद नहीं करते थे। नए राजा जनता की बजाय अंग्रेजों के हित में काम कर रहे थे। ऐसे में उन्होंने गद्दी संभालते ही मनमाना कर वसूलना शुरु कर दिया। अंग्रेजों और नए राजा के शोषण के खिलाफ 21 अप्रैल 1868 को रत्ना और नंदा नाईक के नेतृत्व में जुआंग और भूइयां लोगों ने हथियार उठा कर विद्रोह कर दिया। अंग्रेजों के खिलाफ क्योंझर में हुए  विद्रोह का नेतृत्व रत्ना नायक ने किया था जिसका जन्म 1820 में क्योंझर जिले के तारपुर गांव में हुआ था। रत्ना नायक और धरनीधर नायक भूइयां आदिवासी समाज से आते थे और इस आंदोलन में नंद नायक, नंद प्रधान, बाबू नायक, दसरथी कुंवर, पादु नायक जैसे लोगों ने उनका साथ दिया था। यह विद्रोह अंग्रेजी हुकूमत और स्थानीय राजा के अत्याचार और अन्याय के खिलाफ था। 

ऐसे में विद्रोहियों ने क्योंझर बाजार को लूट लिया और 28 अप्रैल 1868 को महल में प्रवेश कर राजा के दीवान सहित उसके 100 सिपाहियों और समर्थकों को अगवा कर लिया। इसके बाद अंग्रेजी हुकूमत ने आंदोलन को कुचलने का निर्णय लिया और 7 मई 1868 को सिंहभूम के डिप्टी गवर्नर डॉक्टर डब्ल्यू हाइस के नेतृत्व में सेना की एक टुकड़ी क्योंझर पहुंची। वहां पहुंचते ही सेना ने आदिवासियों पर हमला कर दिया। इससे आंदोलन उग्र हो उठा। इसके बाद रत्ना नायक के नेतृत्व में आंदोलनकारियों ने दीवान को मार दिया। हाइस इस पराजय को सह नहीं सके और उन्होंने इसे प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया।  अंग्रेजों ने आदिवासियों के घरों में आग लगाने का आदेश दिया और कार्रवाई शुरु कर दी। साथ ही हाइस ने फरमान जारी कर कहा, ‘तुम लोग आत्मसमर्पण कर दो नहीं तो सभी मारे जाओगे।’ मगर आंदोलनकारियों ने उनकी एक न सुनी और चाइबासा और क्योंझर के बीच के सड़क संपर्क को काट दिया। ऐसे में अंग्रेजों ने छोटा नागपुर से कमिश्नर कर्नल ई टी डाल्टन को क्योंझर भेजा, लेकिन जून के महीने की गर्मी और पहाड़ी इलाके के कारण वह आंदोलन स्थल तक नहीं पहुंच सके। ऐसे में, अंग्रेजों ने पड़ोसी राज्य के राजाओं और एक बड़ी सेना की मदद से इस विद्रोह को दबाने का प्रयास शुरु कर दिया। पड़ोसी राज्य बणाई, मयूरभंज, पाललहड़ा और ढेंकानाल से सेनाओं को भेजने की प्रक्रिया शुरु की गई। कटक के कमिश्नर टी ई रभेंसा को क्योंझर भेजा गया जिसने आंदोलनकारियों से आत्मसमर्ण करने को कहा, लेकिन रत्ना नायक ने समर्पण न कर अंत तक लड़ने का निर्णय लिया। बाद में, भूइयां समुदाय को बचाने के लिए रत्ना नायक और नंद नायक दोनों ने समर्पण कर दिया, जिसे अंग्रेजों ने फांसी दे दी। आंदोलनकारियों का समर्थन और सहयोग करने वाली रानी विष्णुप्रिया देवी को भी अंग्रेजों ने जेल में डाल दिया। बाद में धरनीधर नायक ने इस आंदोलन को एक नई धार दी जिनके नाम पर आज क्योंझर में एक कॉलेज है। इस आंदोलन का असर इतना व्यापक था कि इसका प्रभाव पूरे देश में देखने को मिला।  n

क्यांेझर के संग्राम की निशानी ओडिशा में तत्कालीन क्योंझर स्टेट का वह शाही महल, जहां से इस विद्रोह की शुरुआत हुई और भूइयां आदिवासी समाज के लोगों ने रत्ना नायक के नेतृत्व में हथियार उठा लिए। विद्रोह का परिणाम चाहे अंग्रेजों के पक्ष में गया हो, लेकिन इस आंदोलन का असर न सिर्फ ओडिशा बल्कि पूरे देश पर पड़ा।

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