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जब मेहरबाई और दोराबजी टाटा ने गिरवी रख दी थी अपनी सारी दौलत….

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कहते हैं कि सच्चा जीवनसाथी वही है, जो मुश्किल में हाथ न छोड़े। अगर आपका पार्टनर साथ है तो बुरे दिन भी कट जाते हैं। टाटा ग्रुप ने भी कभी ऐसे मुश्किल हालात देखे थे। बात उस दौर की है जब जमशेदजी टाटा के बेटे दोराबजी टाटा, समूह के चेयरमैन थे और टाटा स्टील डूबने की कगार पर पहुंच चुकी थी। लेकिन दोराबजी टाटा और उनकी पत्नी मेहरबाई टाटा की बदौलत कंपनी न केवल बची बल्कि मुनाफे में भी आई। इसमें अहम रोल निभाया एक बेशकीमती हीरे ने जिसका नाम है ‘जुबली डायमंड

Meherbai and Dorabji Tata

जुबली डायमंड, मानव इतिहास का शायद अकेला ऐसा हीरा रहा, जिसने एक स्टील कंपनी को डूबने से बचाया, कई जिंदगियों की रक्षा की और फिर कैंसर हॉस्पिटल तैयार करने में भी भूमिका निभाई। किसी भी हीरे का इतना अच्छा इस्तेमाल शायद ही हुआ हो और यह हुआ गोल्डन हार्ट वाले दो लोगों मेहरबाई और दोराबजी टाटा की वजह से।

दुनिया का छठां सबसे बड़ा हीरा
जुबली डायमंड 1895 में दक्षिण अफ्रीका की Jagersfontein खान से निकला था। यह दुनिया का छठां सबसे बड़ा हीरा है। 1896 में इसे पॉलिशिंग के लिए एम्सटर्डम भेजा गया और 1897 में इसे क्वीन विक्टोरिया की डायमंड जुबली के नाम पर नाम मिला ‘जुबली डायमंड’। इस डायमंड का स्वामित्व रखने वाले लंदन के तीन मर्चेंट्स के कंसोर्शियम का सोचना था कि इस हीरे की बेस्ट जगह ब्रिटिश महारानी के शाही मुकुट में है। लेकिन इस हीरे को तो किसी और के गले की शोभा बनना था।

दोराबजी ने 1900 में बना लिया अपना और पत्नी को कर दिया गिफ्ट
साल 1900 में जुबली डायमंड को पेरिस एक्सपोजीशन में डिस्प्ले किया गया। यह एक ग्लोबल फेयर था, जिसका प्रमुख आकर्षण जुबली डायमंड था। उस वक्त जमशेदजी टाटा के बेटे दोराबजी टाटा ब्रिटेन में ही थे। दोराबजी और मेहरबाई की शादी 1898 के वैलेंटाइन्स डे पर हुई थी। दोराबजी अपनी पत्नी से बेहद प्यार करते थे तो उन्होंने जुबली डायमंड मेहरबाई को गिफ्ट करने का फैसला किया है। दोराबजी ने इसे लंदन के मर्चेंट्स से 1 लाख पाउंड में खरीद लिया।

कोहिनूर हीरे से दोगुना बड़ा
मेहरबाई टाटा ने इस हीरे को एक प्लेटिनम के छल्ले में डाला और अपने गले में पहनने लगीं। वह, रॉयल कोर्ट्स में अपनी विजिट और सार्वजनिक फंक्शंस के दौरान यानी केवल खास मौकों पर ही इसे पहनती थीं। मेहरबाई टाटा के पास जो जुबली डायमंड था, वह 245.35 कैरेट का था। यह हीरा दुनिया के सबसे बड़े हीरों में गिना जाता है। इसका आकार कोहिनूर हीरे से दोगुना है।

टाटा स्टील का संकट
सर दोराबजी टाटा, 1904 में टाटा समूह के चेयरमैन बने। वह 1932 तक इस पद पर रहे। बात प्रथम विश्व युद्ध के बाद की है। शुरुआती दौर से गुजर रही जमशेदपुर में बेस्ड टाटा स्टील ने विस्तार की ओर कदम बढ़ाया ही था। लेकिन यह विस्तार फायदे से ज्यादा मुश्किलें लेकर आया। कंपनी को प्राइस इन्फ्लेशन से लेकर लेबर इश्यूज तक का सामना करना पड़ रहा था। वहीं जापान में भूकंप के बाद मांग गिर रही थी। 1923 आते-आते कैश और लिक्विडिटी की कमी का संकट खड़ा हो गया। 1924 में जमशेदपुर में एक टेलिग्राम पहुंचा, एक बुरी खबर लेकर। खबर थी कि टाटा स्टील के कर्मचारियों को वेतन का भुगतान करने के लिए पर्याप्त पैसा नहीं है। इसके बाद सवाल उठने लगे कि क्या कंपनी चल पाएगी या फिर बंद हो जाएगी? क्या भारत के पहले इंटीग्रेटेड स्टील प्लांट को स्थापित करने की राह दिखाने वाले सपने और सोच टूटकर बिखर जाएंगे?

पति-पत्नी ने गिरवी रख दी अपनी सारी दौलत
टाटा स्टील पर छाया संकट देखकर सर दोराबजी टाटा से रहा न गया और उन्होंने कंपनी को बचाने के लिए एक बड़ा फैसला किया। उन्होंने और उनकी पत्नी मेहरबाई टाटा ने अपनी सारी निजी संपत्ति गिरवी रखकर पैसा जुटाने का फैसला किया। उस दौलत की कीमत उस वक्त 1 करोड़ रुपये थी, जो उस दौर में एक बड़ा अमाउंट था। मेहरबाई और दोराबजी ने अपनी संपत्ति को इंपीरियल बैंक को गिरवीं रखा और फंड जुटाया। इस संपत्ति में जुबली डायमंड समेत मेहरबाई की सारी ज्वैलरी थी।

इंपीरियल बैंक से मिले 1 करोड़ रुपये के लोन से टाटा स्टील की फंडिंग की गई। जल्द ही कंपनी की विस्तारित प्रॉडक्शन फैसिलिटीज ने रिटर्न देना शुरू किया और स्थिति बेहतर होने लगी। उस मुश्किल भरे वक्त में किसी भी कर्मचारी की छंटनी नहीं की गई। हां इतना जरूर हुआ कि शेयरहोल्डर्स को अगले कई सालों तक डिविडेंड का भुगतान नहीं हो सका।

कंपनी आई मुनाफे में तो वापस लौट आई सपंत्ति
इसके कुछ सालों बाद ही टाटा स्टील मुनाफे में आ गई और दोराबजी व मेहरबाई की गिरवी रखी गई संपत्ति छुड़ा ली गई। 1930 के दशक के आखिर में टाटा स्टील फिर से फलने फूलने लगी। दोराबजी और उनकी पत्नी मेहरबाई के अपनी संपत्ति को गिरवी रखकर किए गए त्याग की बदौलत, टाटा स्टील डूबने से बच गई। साल 1931 में मेहरबाई और साल 1932 में दोराबजी टाटा इस दुनिया को अलविदा कह गए। दोराबजी अपनी सारी संपत्ति ‘सर दोराबजी टाटा चैरिटेबल ट्रस्ट’ के नाम कर गए, जिसमें वह जुबली डायमंड भी शामिल रहा।

जुबली डायमंड का फिर क्या हुआ?
साल 1937 में उस जुबली डायमंड की बिक्री कार्टियर के जरिए हुई और बदले में हासिल हुआ पैसा ‘सर दोराबजी टाटा चैरिटेबल ट्रस्ट’ के पास चला गया। ट्रस्ट ने हासिल हुए फंड्स का इस्तेमाल टाटा मैमोरियल हॉस्पिटल समेत कई संस्थान स्थापित करने में किया। इन संस्थानों में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च भी शामिल हैं। जुबली डायमंड को एक फ्रांसीसी उद्योगपति एम. पॉल-लुइस वीलर ने खरीदा था। इसके बाद इसे House Mouawad के रॉबर्ट Mouawad ने खरीदा।

भारी भरकम इंश्योरेंस
मेहरबाई टाटा को अपनी भारतीय जड़ों पर बेहद गर्व था और वह महिलाओं के लिए आवाज उठाने वालों में से थीं। वह विदेश दौरों के दौरान भी अपनी भारतीय विरासत को सहेजते हुए साड़ी ही पहनती थीं। उनकी सुंदर पारसी साड़ी पर जुबली डायमंड एक परफेक्ट एक्सेसरी था। जुबली डायमंड का इंश्योरेंस भी भारी भरकम था। हरीश भट्ट की किताब के मुताबिक कभी ताज महल होटल, मुंबई में जानेमाने ज्वैलर रहे दिनसी गजधर से सर दोराबजी टाटा ने कहा था कि जब भी उनकी पत्नी लंदन के सेफ डिपॉजिट वॉल्ट से जुबली डायमंड निकालती हैं तो हर बार इंश्योरेंस कंपनी उन पर 200 पाउंड का जुर्माना लगाती है।

मेहरबाई: द ओरिजिनल फेमिनिस्ट आइकन
मेहरबाई टाटा को ओरिजिनल फेमिनिस्ट आइकन कहा जाता है। मेहरबाई मैसूर राज्य की फेमस भाभा फैमिली से थीं। उनके पिता डॉ. होरमुसजी भाभा मैसूर राज्य के पहले पहले भारतीय इंस्पेक्टर जनरल ऑफ एजुकेशन थे। मेहरभाई के भाई जाने माने वकील जहांगीर भाभा थे, जिनके बेटे वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा थे। बाल विवाह निरोध अधिनियम, जिसे शारदा एक्ट के नाम से जाना जाता है, 1929 में पारित हुआ था। इसके लिए लेडी मेहरबाई टाटा जैसे भारत में महिला आंदोलन के अग्रदूतों को धन्यवाद देना चाहिए। लेडी टाटा से न केवल शारदा एक्ट पर परामर्श लिया गया, बल्कि उन्होंने भारत और विदेशों में भी इसके लिए सक्रिय रूप से प्रचार किया। दोराबजी टाटा और मेहरबाई की कोई संतान नहीं है।

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