मोहम्मद हूसऐन खान
सितंबर 1690 जब अंग्रेज़ों के दूतों को हाथ बांधकर और दरबार के फ़र्श पर लेटकर मुग़ल बादशाह औरंगजेब से माफ़ी मांगनी पड़ी थी. सिराजुद्दौला और टीपू सुल्तान पर जीत हासिल करने से पहले ईस्ट इंडिया कंपनी ने औरंगज़ेब आलमगीर से भी जंग लड़ने की कोशिश की थी लेकिन इसमें बुरी हार का सामना करना पड़ा।
सेनापति सीदी याक़ूत ने अंग्रेजी क़िले से बाहर कंपनी के इलाक़े लूटकर वहां मुग़लिया झंडे गाड़ दिये और जो सिपाही मुक़ाबले के लिए गए उन्हें काट डाला. बाक़ियों के गले में ज़ंजीरें पहनाकर उन्हें बम्बई की गलियों से गुज़ारा गया।
बम्बई किले पर मुग़ल कब्जा होने के बाद अंग्रेजी दूत मुग़ल शहंशाह के तख़्त के क़रीब पहुंचे तो उन्हें फ़र्श पर लेटने का हुक्म दिया गया.
सख़्त बादशाह ने उन्हें सख़्ती से डांटा और फिर पूछा कि वह क्या चाहते हैं.
दोनों ने पहले गिड़गिड़ाकर ईस्ट इंडिया कंपनी के अपराध को स्वीकार किया और माफ़ी मांगी, फिर कहा कि उनका ज़ब्त किया गया व्यापारिक लाइसेंस फिर से बहाल कर दिया जाए और सीदी याक़ूत को बम्बई के क़िले की घेराबंदी ख़त्म करने का हुक्म दिया जाए.
उनकी अर्ज़ी इस शर्त पर मंज़ूर की गई कि अंग्रेज़ मुग़लों से जंग लड़ने का डेढ़ लाख रुपये हर्जाना अदा करें, आगे से आज्ञाकारी होने का वादा करें और बम्बई में ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रमुख जोज़ाया चाइल्ड भारत छोड़ दे और दोबारा कभी यहां का रुख़ न करे.
अंग्रेज़ों के पास ये तमाम शर्त सिर झुकाकर क़ुबूल करने के अलावा कोई चारा नहीं था, सो उन्होंने स्वीकार कर लिया और वापस बम्बई जाकर सीदी याक़ूत को औरंगज़ेब का ख़त दिया, तब जाकर उसने घेरेबंदी को ख़त्म की और क़िले में बंद अंग्रेज़ों को 14 महीनों के बाद छुटकारा मिला.