नेहरू की याद की श्रृंखला…….. हां, मैं नेहरू से मिला। ( 1)
कनक तिवारी
1961 में मैं उनसे पहली और आखिरी बार मिला। तालकटोरा मैदान नई दिल्ली में राष्ट्रीय यूथ फेस्टिवल में वे ताजा गुलाब अपनी शेरवानी के बटन होल में खोंसे हमारी जवानियों को लजा रहे थे। हम सागर विश्वविद्यालय के कन्टिन्जेट में थे। डिकी वर्मा, सी.के. शर्मा, नरेन्द्र देव वर्मा, गुणवंत व्यास, कनक शाह, पांडे (कहीं पुलिस वुलिस में है), विष्णु पाठक, प्रोफेसर विजय चौहान और सबका लकड़दादा श्यामा मिश्रा और कोई पच्चीसेक लड़के लड़कियां तीन मूर्ति के लाॅन में अपने विश्वविद्यालय का इतिहास, झंडा तथा प्रतीक चिन्ह लिए बैठे हैं। देश के तीसेक विश्वविद्यालयों के लड़के लड़कियां आए हैं। उनसे हर साल चाय का कप लिए फोटो खिंचाते मिलना इसकी वार्षिक आदत है।
वह सधे कदमों से आ रहा है। हमारी बोलती बन्द हो रही है। कोई फुसफुसाता है ‘ हमें पहले मिला होता तो हम सागर विश्वविद्यालय से इसे अपने नाटक का हीरो बनाकर लाते।‘ इसे अभी हमारे पास आने में वक्त है। अक्टूबर की शाम लाॅन पर गुनगुनी लग रही है। इसकी सीरत में भी शाम वाली गुनगुनाहट है, सुबह की खुनकी नहीं।
वह हमारे पास आ रहा है। सेक्रेटरी कलाई घड़ी देखकर कहता है ‘दस पन्द्रह मिनट बाकी हैं, सर।‘ सब विश्वविद्यालयों को इसने या उन्होंने जल्दी निपटा दिया है। भाग्य से बचा समय हमें मिल रहा है। हम अंगरेजी में अभिवादन करते हैं। अंतरराष्ट्रीय ख्याति के प्रोफेसर वेस्ट के नेतृत्व में प्रोफेसर एस.डी. मिश्रा के संरक्षण में हम अंगरेजी बोलते हैं। नाचने गाने वाले लड़के इसे अपने काम का नहीं समझ पीछे हटते जाते हैं। मैं अंगरेजी साहित्य का विद्यार्थी हूं। भाषण देने ही आया हूं। आगे बढ़ता हूं।
प्राध्यापकों से संक्षिप्त बातचीत के बाद वह स्नेहिल निगाहों से हमारी ओर देखता है। कैम्प की व्यवस्था पर सवाल कर चुका। यूथ फेस्टिवल को लेकर नये सुझाव मांग चुका। काफी देर मुस्करा चुका। बटन होल का गुलाब उससे मुकाबला कर ही रहा है। वह सागर विश्वविद्यालय की जानकारी ध्यान से लेता चलता है। हमारी पीढ़ी की ओर उत्सुक निगाहों से देख रहा है। हम पूरे देश के छात्रों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं इन दस पन्द्रह मिनटों के लिए। आज मैं देश की युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर सकता हूं। मसखरों की टोली की इसकी अंगरेजी के सामने सिट्टी पिट्टी गुम है। अध्यापकों की ओर वह देख नहीं रहा। मौका अच्छा मिला है। नहीं चूकूंगा। मैं, मैं नहीं हूं। देश की युवा पीढ़ी हूं। थोड़ी धृष्टता का पुट लिए बिना कोई भी युवा पीढ़ी वास्तविक जिज्ञासु कहां प्रतीत होती है!
‘पंडित जी, बताइए, कृपालानी जी जीतेंगे या कृष्णमेनन?‘ अंगरेजी के बहुत देर से मन की पतीली में पकाए जा रहे वाक्य में खखारता हूं। बता देता हूं साइन्स काॅलेज यूनियन का प्रेसीडेन्ट हूं। प्रकटतः खुश होकर मुझे पास बुलाता है। मै एकदम करीब हूं। मुझे रूसी कथा सुनाता है। ‘एक राजा था। उसे रथदौड़ का अभूतपूर्व शौक था। उसके रथ में चार घोड़े जुतते थे। उसने सुन रखा था कि उसके घोड़ों से ज़्यादा अच्छे घोड़े ज़ार शासकों के पास और भी हैं। वह पूरे साम्राज्य के सबसे अच्छे धावक चार घोड़े चुनकर अपने रथ में जोतता है। वह शान से रथ पर चढ़कर घोड़ों को ऐड़ लगाता है। घोड़े रथ को लेकर सरपट भागते हैं। वह रथ के ऐश्वर्य या नियति नहीं खुद अपनी गति पर रश्क करते हैं। वे अलग अलग शासक वंशों के अश्व हैं। उनकी अलग अलग गति है। वे नगर के बड़े चौराहे पर पहुंचते हैं। यहां से दर्शर्कों की दीर्घा शुरू होती है। वे चारों घोड़े चौराहे पर पहुंचकर अपने अपने घरों की ओर दौड़ पड़ते हैं। यही उनका अब तक का अनुशासन था। यही उनकी गति की परिभाषा भी है। वह रथी चारों खाने चित्त गिर पड़ता है।‘
वह कथा सूतजी की शैली में कह रहा था। हम सब शौनकादिक ऋषि हुए। हमें कृपालानीजी से सहानुभूति हो जाती है। उनके कपड़े झाड़ने लगते हैं। उनके लिए ‘फर्स्ट एड बाक्स‘ का इंतजाम करने निकल जाते हैं। वह निश्छल कश्मीरी हंसी हंसता है। मैं तय कर लेता हूं कि पढ़ाई खत्म कर इसी की पार्टी में रहूंगा। अपने भविष्य के चौराहों पर चारों खाने चित्त नहीं गिरना चाहता।
मैं वाचाल हूं। दूसरा सवाल दागता हूं। इन्हीं दिनों समाजवाद की कुछ अधकचरी जानकारी मेरे पास इकट्ठा हुई है। पूछता हूं आपके और डाॅ0 लोहिया के समाजवाद में क्या फर्क है? वह फक पड़ जाता है। ऐसे सवाल की उसे कल्पना नहीं थी। वह सीधा जवाब नहीं देता। इस कश्मीरी ब्राह्मण में रोमन बादशाहों की तुनकमिजाजी नाक पर बैठी मक्खी है। तल्ख होकर कहता है। ‘उन्हीं से पूछो।‘ बात बिगड़ने सी लगती है।
मैं उसकी ‘मेमोरी लेन‘ में उतर जाता हूं। आखिरी तीर मारता हूं। ‘पंडितजी‘, आपके जीवन और उपलब्धियों पर कमला नेहरू का कितना असर है?‘ सवाल निशाने पर लगा है। वह कवि हो रहा है। अब मुझे पहचान लेता है। मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर दूसरा कंधे पर रख देता है। मेरे अस्तित्व का सर्वोत्कृष्ट क्षण है। वह संजीदा हो रहा। जैसे झील में डूब रहा। उसे अदृष्य में साफ साफ कुछ दिखाई पड़ने लगा है। बीस बरस के छोकरे ने नादानी में जुर्रत की है। लेकिन सवाल पूछने के पीछे हेतु निष्कपट है। बेहद संजीदगी से नम आंखों में स्मित मुस्कराहट ओढ़ते बताता है ‘कमला का मेरे जीवन में सर्वोत्तम स्थान है। मेरा बहुत कुछ कमला का ही है। तुम सोच नहीं सकते हो कि कमला ने मुझे क्या क्या दिया होगा।‘ अचानक अपनी विश्व प्रसिद्ध मुद्रा में झेंप रहा है। मेरी ओर स्नेह और शरारत से देखता है। बेटी इन्दिरा आ गई हैं उसे ले जाने। कोई विदेशी अतिथि इंतज़ार कर रहा है।
अपनी वाचालता में भूल जाता हूं अपनी ‘आत्मकथा‘ कमला नेहरू की स्मृति को ही समर्पित की है। कितनी काव्यात्मक वेदना से उसने मेरे सवाल से कोई छब्बीस बरस पहले ही लिख दिया था, ‘स्विटज़रलैंड में मेरी पत्नी की मृत्यु ने मेरे वजूद का एक अध्याय ही खत्म कर दिया, और मेरे जीवन से उसका बहुत बड़ा अंश ही छीन लिया जो अन्यथा मेरा अस्तित्व था। यह मेरे लिए मन को समझाना ही मुश्किल था कि वह अब नहीं है मेरा जीवन। मैं भारी भीड़, सघन गतिविधियों और एकाकीपन का पर्याय बनकर रह गया।‘
मुझ तीसमारखां ने वह सवाल पूछ लिया जिसका जवाब देने में उसे बर्र के छत्ते पर हाथ रखने जैसा महसूस हुआ होगा। वह मेरी ओर अपलक सूनी आंखों से देख रहा। वातावरण में खामोशी है। अभी तीन चार बरस पहले मैंने बिमल राय की फिल्म ‘देवदास‘ देखी है। ‘मितवा नहीं आए‘ वाला गीत तलत की आवाज़ में अंदर कहीं फूट रहा है। वह मुझे मौन में गाता हुआ दिखाई देता है। मैं उसकी गम्भीरता में खो रहा हूं। उसकी दो ही तो मुद्राएं हैं। ट्रेजेडी के नायक सी और शिष्ट काॅमेडी की। वह मुस्करा देता है तो लोग लोटपोट हो पड़ते हैं। वह सहसा अपने ऊपर से किसी आत्मा के उतर जाने से मुक्त लगने लगता है। उसके चेहरे की मुस्कराहट लौटने लगती है। मैं उदास क्या मनहूस हो जाता हूं।
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