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कूलिंग आॅफ पीरियड’’ का कानून कब बनाओगे सरकार ?

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एड. आराधना भार्गव

देश की सबसे बड़ी अदालत ने ‘कूलिंग आॅफ पीरियड’ का कानून बनाने की जिम्मेदारी विधायिका पर छोड़ दी है, मतलब स्पष्ट है कि कानून बने तब जाकर ही चुनाव प्रक्रिया में सुधार का नया दौर शुरू हो सकता है। हालाकि चुनाव आयोग ‘कूलिंग आॅफ पीरियड’ तय करने के पक्ष में रहा है लेकिन महज सुझाव तक ही बात आकर अटक गई। कई साल पहले भाजपा के दिवंगत नेता अरूण जेठली जी ने तो जजों के लिए भी कूलिंग आॅफ पीरियड के कानून की वकालत की थी। उनका कहना था कि जजों की सेवा निवृत्ति के पहले दिये गये फैसले सेवा निवृत्ति के बाद मिलने वाले फायदों से प्रभावित होते हैं। रामलला की जन्मस्थली अयोध्या का फैसला भी माननीन स्वर्गीय अरूण जेठली जी की इच्छा के विरूद्ध दिया गया फैसला है, ऐसा हम मान सकते हैं। सेवा निवृत्ति के तत्काल बाद, सेवा निवृत्त न्यायधीश को अहम पदों पर नियुक्तियाँ मिलने लगी हैं। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश को भी सेवा निवृत्ति के बाद राज्य सभा में भेजने के पश्चात्, देश में उंगलियाँ उठना शुरू हो गई, तथा देश में यह संदेश भी गया कि शासन के पक्ष में फैसला करने पर न्यायधीशों को सरकार कैसे पुरूस्कृत करती है? देश को आशा थी की कानून के ज्ञाता राज्यसभा में पहुँचे हैं, तो यूएपीए जैसे कानून बनने के पूर्व वे भारत के संविधान के मौलिक अधिकार एवं प्राकृतिक न्याय के खिलाफ बनने वाले कानून पर अपनी सख्त प्रतिक्रिया दंेगे तथा सदन को ढप्प कर देंगे, परन्तु दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि उनकी सदन में बोलते हुए तस्वीर भी इस देश की जनता ने नही देखी। इस देश में कानून, देश की जनता के हित के लिए बनाये जाते हैं, कानून के लिए जनता नही बनाई जाती, इस फर्क को हमारी विधायिका को समझना होगा। मिशाल के तौर पर छिन्दवाड़ा में जिलाधीश के पद पर कार्यरत अधिकारी जिन्हें बाद में कमिश्नर के पद पर नवाजा गया। माॅचागोरा बाँध के प्रभावित किसानों के साथ जमकर धोखाधड़ी की गई, आन्दोलनकारियों को जेल के अन्दर भेजा, माॅचागोरा बाँध में भ्रष्टाचार की नदियाँ बहाई, आज भी माॅचागोरा बाँध उनके नाम पर सिसक रहा है। नहरें नदारत है पाॅलिथिन बिछाकर किसानों को पानी दिया जा रहा है उस पर भी नहरें फूटकर किसानों के खेत में दलदल में तबदील हो रही है। विश्वत सूत्रों से जनकारी मिली है कि महोदयजी के सेवा निवृत्त होने के पश्चात् एक पार्टी ने उनकी सदस्यता ग्रहण करा ली है और निकट भविष्य में विधान सभा का चुनाव लड़ने हेतु टिकिट भी दी जाने वाली है। सरकार चाहे किसी भी दल की हो, सत्ता में बदलाव के साथ ही नौकरशाही में फेर बदल की प्रक्रिया साफ तौर पर यह दर्शाती है कि दल के प्रति निष्ठावान व्यक्तियों को ही स्थान मिलता है। जब कोई नौकरशाह अचानक किसी दल के साथ बतौर उम्मीद्वार सामने आता है तो उसके कार्यकाल को लेकर भी राजनीतिक दलों से प्रभावित होने का संदेह उठ खड़ा होता है। आम जनता के बीच में यह चर्चा का विषय मेरे ख्याल से इसलिये नही बन पाता कि लोग सोचते हैं जिलाधीश या न्यायाधीश, पुलिस अधिक्षक आदि पदों पर आसीन व्यक्ति राजनीति में पदार्पण करेगा तो देश तरक्की करेगा, लेकिन वास्तविक स्थिति कुछ और है, नौकरशाह जब अचानक राजनीति में पदार्पण करते है तो उन्हें देश के अन्तिम छोर पर खड़े व्यक्ति का दर्द और पीड़ा का एहसास नही होता। कानून का ज्ञान तो उन्हें अवश्य होता है क्योंकि उन्होंने कानून का अध्ययन किया है, लेकिन समाज का अध्ययन ना किये जाने के कारण समाज का ज्ञान उन्हें नही होता। नौकरशाह आज भी निष्पक्ष होकर अपना काम नही कर पाते विधायिका के इशारों पर कार्यपालिका काम करती है और इसी कारण नौकरशाहों को समाज के अन्तिम छोर पर खड़े व्यक्ति की तश्वीर भी दिखाई नही देती और इसी कारण वे संसद में पहुचकर तार्किक तरीके से बनने वाले कानून पर अपनी प्रतिक्रिया नही दे पाते। क्योंकि समाज का अध्ययन वे नही करते। हमें हमारे देश में समाज का अध्ययन करके कानून बनाने वालों की आवश्यकता है जैसे कि स्वर्गीय मधु लिमये जी करते थे। मधु लिमये जी पर लगभग झूठे 32 मुकदमें लादे गये अपने प्रक्ररण की पैरवी वे स्वयं करते थे, जब वे पैरवी करते थे तब न्यायाधीश मंत्र मुग्ध होकर उनकी बातों को सुनते थे उनके द्वारा की गई बहस पर निर्णय में प्रतिक्रिया भी देते थे। दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि आज की विधायिका कानून बनाने में कोई रूचि नही लेती, इस कारण नौकरशाह कानून बना रहे हैं, जिसका खामियाजा देश को भुगतना पड़ रहा है।

राज्य यानी सरकारें कोट्र्स में सबसे बड़ी मुकदमेबाज है यह बात हमारे सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य नयायाधीश ने कही और हम प्रतिदिन देखते हैं कि न्यायालय में लम्बित मामले यह दर्शाते है कि सरकार अगर चाहती तो फैसला देकर प्रकरण की बाहुल्यता को रोक सकती है। उसी तरीके से अपराधिक प्रकरण में अगर हम देखें तो सरकार के इशारे पर पुलिस फर्जी मुकदमें तो बनाकर न्यायालय में पेश कर देती है किन्तु प्रकरण के शीघ्र निपटारे में सरकार की एवं पुलिस की कोई रूचि नही दिखाई देती। सरकारी गवाह के आभाव में मुकदमें सालों लम्बित रहते हैं, सरकारी गवाह को न्यायलय में उपस्थित करना पुलिस की जवाबदेही होती है जिसका निर्वाहन करते देश की पुलिस कम ही दिखाई देती है। सरकार के खिलाफ आवाज उठाने वालों को फर्जी मुकदमों में फंसाकर सरकार अपने आपको गौरवान्वित मेहसूस करती है।

हाल ही में चीफ जस्टिस आॅफ इण्डिया ने प्रधानमंत्री की उपस्थिति में, कार्यपालिका और विधायिका पर अपने पूरी क्षमता से काम ना करने का अरोप लगाते हुए कहा कि कार्यपालिका न्यायिक आदेश की भी अवहेलना करती है। अदालत की अवमानना के बढ़ते मामले इसका प्रमाण है। उच्च न्यायालय में सरकार के खिलाफ जनहित याचिका या अन्य सिविल (दीवानी) मामलों में दायर होने के पश्चात् सरकार मुकदमा हारने तथा प्रार्थी के मुकदमा जीतने पर माननीय न्यायालय के आदेश का पालन नही करती बल्कि उस आदेश को तोड़ मरोड़ कर आदेश की अव्हेलना करती है, इस प्रकार सरकार के खिलाफ माननीय न्यायालय के अवमानना के अनेक प्रकरण लम्बित पड़े हैं। पिछले सप्ताह उच्चतम न्यायालय के स्थगन आदेश के बावजूद राजधानी दिल्ली की जहांगीरपुरी में कुछ समय तक सरकार बुलडोजर चलाती रही, न्यायिक निर्देशों के बावजूद सरकारों का जानबूझकर निष्क्रियता दिखाना लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अच्छा नही है। अदालत की अवमानना के बढ़ते मामले इसका प्रमाण है। न्यायपालिका की टिप्पणी कार्यपालिका को बेहद गम्भीरता से लेनी होगी। वर्तमान समय में ईडी, आयकर या अनेक सरकारी एजेन्सीयों द्वारा राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ मुकदमों के तमाम मामले सुप्रीमकोर्ट के सामने बहस हेतु लम्बित है, जो यह दर्शाते हैं कि राज्य याने सरकारों कोट्र्स में सबसे बड़ी  मुकदमेबाज है। सरकार की गलत नीतियों का विरोध करने वालों पर यूएपीए के मामले तत्काल रजिस्ट्रर कर उन्हें जेल के सींखचों के अन्दर डाल दिया जाता है। यूएपीए के प्रकरणों में सजा की दर 2.1 प्रतिशत है। 98 प्रतिशत मामलों में पुलिस ने गिरफ्तार तो कर लिया लेकिन अपेक्षित साक्ष्य नही जुटा पाई, परिणाम स्वरूप न्यायिक प्रक्रिया में कोर्ट का समय ही खराब हुआ और न्यायालय में प्रकरण की बाहुल्यता बढ़ी, तथा जनता का न्यायपालिका से विश्वास घटा। देश की जनता का न्यायापालिका से विश्वास घटना लोकतंत्र के लिए हानिकारक है। 

हमारे बीच मधु लिमये जैसे सांसद होते तो संसद में उपरोक्त लिखित बातों पर तार्किक तरीके से अपनी बात रखते तथा कहते कि न्यायालय की आदेश की अव्हेलना गंभीर मुद्दा है। लोकतंत्र के इन स्तम्भों के बीच बढ़ती इस खाई को पाटने की जरूरत है। आइये हम सब मधु लिमये जी के जन्म शताब्दी वर्ष पर यह संकल्प लें कि कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकें तथा कार्यपालिका कानून-सम्मत तरीके से बगैर राजनीतिक दबाव में आए काम करें  ‘हम भारत‘ के लोग भारत को प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्म निरपेक्ष्य, लोकतात्रिंक गणराज्य, बनाने के लिए, सड़क से संसद तक अपनी लड़ाई शुरू करें, तभी आम जन का विश्वास लोकतंत्र पर होगा। 

एड. आराधना भार्गव 

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