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विकास:नीति आयोग की रिपोर्ट : आखिर कहां रह गई गफलत?

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सचिन कुमार जैन

इस वक्त भारत ही नहीं, सभी देश संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों यानी एसडीजी (जिन्हें वर्ष 2030 तक हासिल किया जाना है) को आधार बनाकर सामाजिक-आर्थिक-मानवीय स्थितियों को बेहतर करने की कोशिशों में लगे हैं। इन लक्ष्यों का एक ही सूत्र है – धरती को एक बेहतर स्थान बनाना। हाल ही में 2020 में भारतीय राज्यों में इन लक्ष्यों को दर्शाती नीति आयोग ने जो रिपोर्ट जारी की है, उसमें कुछ बहुत ही अहम पहलू उभरकर सामने आए हैं। यह रिपोर्ट बताती है कि इन लक्ष्यों से हम अब भी कहीं पीछे हैं। खासकर देश के 9 बड़े राज्यों बिहार, झारखंड, आसाम, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, ओडिसा, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल और मध्यप्रदेश सबसे निचले पायदान पर हैं।

सरकार बनाने में आगे, विकास में पीछे …!

जो राज्यसबसे निचले पायदान पर हैं, वहां से कुल 543 में से 275 लोकसभा सदस्य आते हैं, यानी करीब आधे सीटें इन राज्यों में हैं। विधानसभाओं के कुल 4120 सदस्यों में से 1814 इन्हीं राज्यों के हैं जो 44 फीसदी है। इसके बावजूद ये राज्य सामाजिक, आर्थिक और मानवीय विकास के पैमानों पर कहीं पीछे हैं। यदि इन राज्यों में कुपोषण और खाद्य असुरक्षा की स्थिति नहीं बदलेगी, मातृ मृत्यु अनुपात में कमी नहीं आएगी, बहुआयामी गरीबी में कमी नहीं आएगी, तो किसी भी तरह से लक्ष्य हासिल नहीं किए जा सकेंगे। फिर राजनीतिक प्रभुत्व भी एक तरह से बेमान ही रह जाएगा।

गरीबी : बहुत कठिन है डगर

पारंपरिक रूप से गरीबी को केवल आय और व्यय के सूचक से मापा जाता रहा है, लेकिन गरीबी की यह परिभाषा देश और समाज में विपन्नता, उपेक्षा व सामाजिक बहिष्कार का वास्तविक चित्र नहीं दिखाती है। इस समस्या से पार पाने के लिए संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने मानव विकास प्रतिवेदन तैयार करने में ‘बहु-आयामी गरीबी’ की परिभाषा गढ़ी जिसमें आर्थिक असमानता, लैंगिक असमानता, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली, स्वच्छता, जलवायु परिवर्तन का प्रभाव आदि को शामिल किय गया। स्पष्ट रूप से बहु-आयामी गरीबी की परिभाषा में गरीबी के व्यापक मानकों को शामिल किया गया है। इन मानकों के आधार पर देखें तो हमारे यहां 27.90 प्रतिशत लोग यानी 37 करोड़ लोग बहु-आयामी गरीबी की रेखा के नीचे दबे हुए हैं। और बदतर यह कि कुल गरीबों में से से 72 प्रतिशत लोग (29 करोड़) 9 बड़े राज्यों में रहते हैं।

कहां कितनी आबादी गरीब?

– 52.50 प्रतिशत बिहार में

– 46.50 प्रतिशत झारखंड में

– 41.10 प्रतिशत मध्यप्रदेश में

– 36.80 प्रतिशत छत्तीसगढ़ में

– 1.10 प्रतिशत केरल में।

खाद्य असुरक्षा : भुखमरी मिटाना बड़ी चुनौती

भुखमरी के कारण देश में कुल 33.4 प्रतिशत बच्चे कुपोषण से ग्रस्त हैं, जबकि लक्ष्य है 1.9 प्रतिशत पहुंचने का। यानी वास्तविक स्थिति और लक्ष्य में जमीन-आसमान का अंतर है। सभी राज्यों में कुपोषण का स्तर अति गंभीर स्थिति की श्रेणी में आता है। इस वक्त देश में 33.4 प्रतिशत बच्चे ठिगनेपन के शिकार हैं। इसके कारण वे पूरी क्षमता से न तो शिक्षा हासिल कर पाते हैं, न ही आर्थिक विकास कर पाते हैं। ठिगनेपन का स्तर यह बताता है कि हमारे आर्थिक विकास में असमानता और उपेक्षा किस हद छिपी बैठी है। साफ है लक्ष्य तक पहुंचना बहुत ही दूरी की कौड़ी है। इसलिए बहुत शिद्दत से भूख के सवाल को हल करने में जुटना होगा। हमारा मकसद अनाजों, दालों, तेलों, दूध, फलों के व्यापार पर नहीं, बल्कि लोगों-बच्चों के लिए इनकी उपलब्धता पर होना चाहिए।

कहां सबसे ज्यादा कुपोषण?

– 35 प्रतिशत से ज्यादा बच्चे कुपोषित हैं बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, राजस्थान में

– 39 प्रतिशत बच्चे गुजरात में ठिगनेपन से ग्रस्त है।

– 34 प्रतिशत बच्चे महाराष्ट्र में कुपोषण का शिकार हैं।

– 33 प्रतिशत बच्चे कर्नाटक में कुपोषण का शिकार हैं।

लोक स्वास्थ्य : कोविड से बदहाली उजागर

कोविड 19 ने भारत की लोक स्वास्थ्य व्यवस्था की बदहाली को उजागर कर दिया है। यदि ग्रामीण क्षेत्रों में सरकार स्वास्थ्य व्यवस्था को मज़बूत नहीं करेगी, तो न तो शिशु मृत्यु दर और मातृ मृत्यु अनुपात को कम किया जा सकेगा और न ही कोविड 19 महामारी से लड़ा जा सकेगा। देश में 9321 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की कमी है। इनमें 6722 की कमी तो अकेले बिहार, उत्तरप्रदेश, झारखंड और मध्यप्रदेश में ही है। इसी तरह ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था में सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों का बहुत महत्व है। देश में 7820 केंद्र होने चाहिए, लेकिन हैं केवल 5183 यानी 3002 केन्द्रों की कमी है। 1949 की कमी केवल उक्त चार राज्यों में ही है।

उपस्वास्थ्य केंद्रों का टोटा…

– 1.91 लाख उपस्वास्थ्य केंद्र होने चाहिए देश में, लेकिन हैं केवल 1.55 लाख।

– 46 हज़ार से ज्यादा उपस्वास्थ्य केन्द्र कम हैं भारत में जनसंख्या के अनुसार।

– 34 हज़ार केन्द्र तो केवल चार राज्यों – बिहार, उत्तरप्रदेश, झारखंड और मध्यप्रदेश में ही कम हैं।

लैंगिक असमानता : हालात जस के तस

लैंगिक असमानता की जड़ें सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक अतीत में जमी हुई हैं। देश में लिंगानुपात 899 पर पहुंच गया है। गुजरात (866), बिहार (895), महाराष्ट्र (880), पंजाब (890), राजस्थान (871), उत्तरप्रदेश (880) और हरियाणा (843) के आंकड़े बता रहे हैं कि तुलनात्मक रूप से बेहतर आर्थिक स्थिति वाले राज्य भी समानता के बुनियादी संवैधानिक मूल्यों के प्रति सजग नहीं हैं। संविधान कहता है कि महिला-पुरुषों को समान काम का समान वेतन मिलेगा, पर कहीं भी महिलाओं को पुरुषों के बराबर वेतन या मजदूरी नहीं मिलती है।

मजदूरी में भी भारी असमानता…

– 53 रुपये मजदूरी मिलती है आसाम में महिलाओं को

– 75 रुपये मजदूरी मिलती है बिहार में महिलाओं को

-64 रुपये मजदूरी मिलती है झारखंड में महिलाओं को

– 74 रुपये मजदूरी मिलती है मध्यप्रदेश में महिलाओं को

– 53 रुपये मजदूरी मिलती है पश्चिम बंगाल में महिलाओं को

(पुरुषों को 100 रुपये मजदूरी मिलने के हिसाब से)

बेरोज़गारी : बहुत काम न आया उदारीकरण

1990 के दशक में जब देश में निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों को लागू किया गया, तब बताया गया था कि इससे सबको रोज़गार मिल पाएगा और खुशहाली आएगी। लेकिन 30 साल बाद रिज़र्व बैंक आफ इंडिया की 2020 की सांख्यिकी रिपोर्ट कुछ और ही कहती है। यह रिपोर्ट कहती है कि न केवल ग्रामीण, बल्कि शहरी भारत में भी बेरोजगारी तेजी से बढ़ी है।

शिक्षा :नई शिक्षा नीति उम्मीद जगाने वाली…

भारत सरकार की नई शिक्षा नीति जरूर कुछ उम्मीदें जगाती हैं। इसकी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस नीति में वर्ष 2030 तक 100 प्रतिशत बच्चों को स्कूली शिक्षा (पूर्व प्राथमिक से उच्चतर माध्यमिक तक) हासिल करने का लक्ष्य तय किया गया है। इसके अलावा स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद कम से कम 50 प्रतिशत बच्चे उच्च शिक्षा में जाएं, यह भी लक्ष्य रखा गया है। इसके लिए शिक्षा पर सरकारी खर्च सकल घरेलू उत्पाद का 4.43 प्रतिशत से बढ़ाकर 6 प्रतिशत करना तय किया गया है। नीति में बस दो बुनियादी बातों की कमी रह गई है। एक, सरकार को कहना चाहिए था कि देश में समान शिक्षा प्रणाली लागू होगी और संवैधानिक व नागरिक मूल्यों की शिक्षा का समावेश किया जाएगा। इससे सतत विकास लक्ष्यों को स्थाई विकास में तब्दील कर पाते।

फिर भी स्कूल ड्रॉपआउट्स चिंताजनक…

– 31 प्रतिशत बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं असम में

– 28 प्रतिशत बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं बिहार में

– 24 प्रतिशत बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं गुजरात में

– 25 प्रतिशत बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं मप्र में

– 9 प्रतिशत बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं केरल में

(बच्चों के कक्षा 9-10 तक पहुंचने की स्थिति, स्रोत : नीति)

क्या है एसडीजी?

सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स यानी एसडीजी साल 2015 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा तय किए गए 17 दीर्घकालीन लक्ष्य हैं जिसे पूरी दुनिया में अर्जित करने की डेडलाइन साल 2030 रखी गई है। इनमें कुछ लक्ष्य तो बहुत ही महत्वाकांक्षी हैं जैसे 2030 तक कोई गरीब न हो, कोई भूखा न सोएं, हर बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिलें आदि। भारत भी अपनी सभी योजनाएं इन्हीं लक्ष्यों को केंद्र में रखकर बना रहा है, लेकिन मौजूदा स्थिति में हमारे लिए भी इन लक्ष्यों तक पहुंचना बहुत ही दूर की कौड़ी नजर आ रहा है।

– सचिन कुमार जैन, सामाजिक शोधकर्ता, अशोका फेलो, अनेक पुस्तकों व मॉड्यूल्स के लेखक

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