विश्वबंधु पाण्डेय
वर्तमान समय में तेल का बाजार सबसे स्थिर और संभावनाओं से भरा हुआ है। इसकी शुरुआत सऊदी अरब ने ओपेक देशों के अपने संगठन से अलग होकर अपने तेलों के दामों का निर्धारण खुद करने का निर्णय लेने के साथ किया है। यह बहुत ही महत्वपूर्ण घटना है क्योंकि अभी तक ओपेक देश पूरे विश्व में समूचे तेलों के 90 प्रतिशत तेलों का निर्यात करते थे, जिसमें मुख्य रुप से खाड़ी के देश रूस और यूरोप थे। इन सभी ने अपना कार्टेल बनाकर पूरे विश्व के कच्चे तेल के बाजार में अपना दबदबा बना रखा था। परंतु सऊदी अरब के इन देशों के संगठन के 60 वीं वर्षगांठ वाले वर्ष में अलग रास्ता चुनने के बाद यह संगठन या कार्टेल पूर्ण रूप से लड़खड़ा गया है। सऊदी अरब के इस निर्णय के बाद बाकी सभी बचे हुए ओपेक देश भी अब इस रास्ते को चुनने को मजबूर हो रहे हैं, क्योंकि सऊदी अरब इन सभी देशों के कच्चे तेल के दाम से आठ से 10 डॉलर नीचे आकर तेल बेचने का ऑफर दे चुका है। सऊदी अरब ने भारत सरकार को भी या ऑफर दिया था कि आप हमसे सस्ता तेल खरीदे परंतु भारत सरकार ने कुछ कारणों से अभी तक इसको स्वीकार नहीं किया है। तेल के खेल का इतिहास बड़ा ही रोचक है और इस खेल में कुछ बड़े ही रोचक पड़ाव है जो हमें जानने चाहिए। तेल के खेल का सबसे पहला बदलाव यह था कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका की स्थिति बदली जो अमेरिका द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले यानी 1946 के पहले विश्व का सबसे बड़ा कच्चे तेलों का निर्यातक था, जो अमेरिका कच्चे तेलों का भाव नियंत्रित करता था, वह अमेरिका द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इन्हीं तेलों का आयातक बन गया और जैसे ही अमेरिका कच्चे तेलों का आयातक बना बाकी तेल उत्पादक देशों की चांदी हो गई और उसके बाद धीरे-धीरे तेलों के दाम बढ़ने शुरू हुए और फिर ओपेक नाम के काटोल का जन्म हुआ और इस कार्टेल ने पूरे विश्व पर 60 सालों तक अपना दबदबा बनाए रखा और तेलों के मूल्यों का निर्धारण यह करते रहा और मजबूरी में पूरे विश्व को इनसे तेल इनके मूल्य पर खरीदना पड़ता था। अब सऊदी अरब के अलग रास्ता चुनने के बाद यह संगठन को तगड़ा झटका लगा है।
दूसरी स्थिति 2014 में बदली जब अमेरिका ने तेलों का आयात करना बंद किया और विश्व का तीसरा सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश बन गया। अमेरिका, सऊदी अरब और रूस के बाद तीसरा सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश बन गया। यहां से फिर तेल का खेल बदलता है। 2014 के बाद तेल के दाम फिर वापस गिरने शुरू होते हैं क्योंकि अमेरिका आयात बंद कर दिया था जो एक बड़ा तेल उपयोग करता देश है। अपने को तेल उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने के बाद अमेरिका अपनी विदेश नीति में भी बदलाव करता है और अपने को तेल के खेल में से हटाता है। यहां से अमेरिका की राजनीति खाड़ी देशों से शिफ्ट होती है क्योंकि वह तेल का बड़ा उत्पादक बन गया था। फिर वह इराक से अपनी सेना हटाता है और बाकी खाड़ी देशों से अपने संबंधों को अपने हिसाब से तय करना शुरू करता है, क्योंकि उसकी इनके ऊपर अब निर्भरता खत्म हो गई होती है। उसके बाद अगला पड़ाव 2019 का आता है और यहीं से सभी तेल उत्पादक देशों की आर्थिक स्थिति के ऊपर अमेरिका हमला करता है, अमेरिका फिर तेलों का निर्यातक बन जाता है और अमेरिका कनाडा, यूरोप के कुछ देशों में तेलों का निर्यात शुरू करता है और सबसे बड़ा प्रहार करता है और सबसे बड़ा प्रहार ओपेक देशों पर करता है। इस समय से ही बाजार मे उतार-चढ़ाव आना शुरू होता है ओपेक समूह का टूटना या बिखरना भी शुरू होता है। अभी वर्तमान समय में सबसे सस्ता तेल सऊदी अरब का है और वह विश्व मे अपने को सबसे बड़ा और सबसे सस्ता तेल उत्पादक और निर्यातक बनाने की पूरी कोशिश मैं लगा है।
इसी बीच मार्च 2020 में एक और घटना होती है कोविड महामारी। इस कोरोना महामारी के बाद इस खेल में आता है चीन, चीन अपने मार्केट में रखे तेल के रिजर्व को कम करता जाता है और उसको धीरे-धीरे अपने देश मे बेचकर तेल से होने वाली महंगाई और कॉविड के बाद होने वाली आर्थिक नुकसान और महंगाई को रोकता है और धीरे-धीरे तेल देशों पर डोरा डालना शुरु करता है और वह इसमें कुछ हद तक सफल भी हो गया है। अब चीन एक और बड़े बदलाव को अंजाम देने मे लगा है और वह चाहता है कि पेट्रोल-डीजल जो की अभी डॉलर में बिकते हैं वह अब उसकी मुद्रा युआन मे बिके मतलब अब तेलों का व्यापार डॉलर की जगह युआन में हो। चीन उसकी मुद्रा में सौदा करने वालो को बहुत सी मदद भी दे रहा है। यह भी सबसे बड़ी एक महत्वपूर्ण घटना मानी जा रहा है क्योंकि अमेरिका का खड़ी देशों या तेल उत्पादक देशों से अपना रिश्ता थोड़ा ठंडा करते ही चीन इस बाजार पर अपना पकड़ बनाने में लग गया है। चीन इस बाजार में अपना प्रभाव जमाने को आतुर हो गया है और इसके लिए वह हर तरीके का दांव चल रहा है।
अभी वर्तमान में अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की एक रिपोर्ट आई है उस रिपोर्ट के अनुसार 2019 में जितनी पूरे विश्व में कच्चे तेल की खपत थी उतनी ही खपत 2026 तक रहेगी, मतलब आने वाले 5 सालों में बाजार में पेट्रोल डीजल का मांग नहीं बढ़ने वाला है जिसका प्रभाव तेल उत्पादक देशों के आर्थिक स्थिति पर पड़ेगा। वर्तमान में जितने भी तेल उत्पादक देश है अपनी पूरी क्षमता का सिर्फ 75 प्रतिशत तक ही उत्पादन कर रहे हैं और 2026 तक यही स्थिति बनी रहने की संभावना है, क्योंकि बाजार में मांग कम है और धीरे-धीरे पूरे विश्व का इलेक्ट्रिक गाड़ियों की तरफ झुकाव होने के बाद मांगे कम होती जायेगी और तेल पर निर्भर सभी देशों का भविष्य और आर्थिक स्थिति अब खतरे में दिख रही है। जो देश पहले तेलों के दामों का निर्धारण करते थे अब वह इस प्रक्रिया से बाहर हो चुके हैं।
वर्तमान स्थिति में अब खेल विक्रेता से खरीदार के हाथ में आ गया है। अब खरीदारों के पास अनुकूल स्थिति है जिसमें भारत भी है कि वह विक्रेता देशों से मोल भाव करके अपने दम पर तेल खरीद सकता है, इसमें हमारी सरकार कितनी सफल होती है यह वक्त बताएगा और हम इस पूरे खेल में अपना देश कहां खड़ा होता हैं यह भी वक्त के गर्भ में शामिल है।
इसी बीच भारत सरकार ने सबसे बड़ी प्रक्रिया शुरू की। सरकार ने गुपचुप तरीके से 6 प्राइवेट कंपनियों को तेल बेचने का लाइसेंस दिया है, यह कंपनियां सीधा बाजार से कच्चा तेल खरीद सकती हैं। इसके पूर्व में दिए गए लाइसेंस की प्रक्रिया पूरी तरीके से या वर्तमान प्रक्रिया से अलग रही है। इसके पहले रिलायंस और एस्सार को तेल बेचने की छूट दी गई थी और उस समय बहुत सारे शर्तों के साथ इन को मौका दिया गया था, जिसमें इनका दो हजार करोड़ का नेटवर्थ होना एक शर्त थी और इनके पास पूर्व में तेलों के व्यापार का अनुभव एक महत्वपूर्ण शर्त था। साथ ही और भी बहुत सारे नियम थे, परंतु वर्तमान लाइसेंस व्यवस्था में ऐसा कोई नियम नहीं रखा गया है और 2000 के नेटवर्क को घटाकर ढाई सौ करोड़ कर दिया गया यानि, जो भी कंपनी ढाई सौ करोड़ का नेटवर्थ रखती है वह तेल के व्यापार का लाइसेंस ले सकती है। इस प्रक्रिया में भी रिलायंस ने रिलायंस पी पी नाम से एक अलग लाइसेंस लिया है और सबसे मजेदार बात यह है कि यह पूरी प्रक्रिया बहुत ही गोपनीय रही और इस पूरी प्रक्रिया में जो भी कंपनी लाइसेंस लेंगी उनके लिए कोई भी तेल से जुड़े व्यापार का अनुभव होगा आवश्यक नहीं होगा। वर्तमान टेंडर में छह और कम्पनियों को तेल के व्यवसाय का लाईसेंस दिया गया है। इससे जितने भी सरकारी तेल कंपनियां हैं उनके भविष्य को खतरा होगा और इसका निर्णय का एक और नतीजा यह माना जा रहा है कि जैसे सरकार ने भारत पेट्रोलियम को बेचने का निर्णय किया है ऐसे ही भविष्य में प्राइवेट तेल कंपनियों के दबदबा होने के बाद बाकी सारी सरकारी कंपनियां भी भारत पेट्रोलियम के लाइन में खड़ी हो सकती हैं। वर्तमान में रिलायंस को रिफाइनरी मार्जिन इंडियन वालों से 2 डॉलर ज्यादा है यानी रिलायंस को एक बैरल कच्चे तेल का उत्पादन करने में 12 डॉलर खर्च होता है वही हमारे सरकारी कंपनियों को यही खर्चा 14 डॉलर का पड़ता है यानी वर्तमान समय में भी सरकारी कंपनियों के फायदे पर चोट पहुंच रही है और रिलायंस इंडियन ऑयल से ज्यादा मुनाफा दे रही है।
इन सभी फैसलों को देखते हुए ऐसा लग रहा है कि सरकारी तेल कंपनियों का भविष्य ज्यादा सुरक्षित नहीं है। इन सभी हालातों को देखते हुए और तेल के खेल को समझने के बाद भारत के पास एक सुनहरा मौका है कि वह अपने कूटनीति और अपने संबंधों का इस्तेमाल करते हुए सस्ता तेल खरीद सकता है और अपने नागरिकों को सस्ता पेट्रोल डीजल उपलब्ध करा सकता है और यह सरकार की दूरदर्शी सोच पर निर्भर करता है कि वह इस अनुकूल समय का कितना उपयोग करती है, क्योंकि तेलों के दाम बढ़ने का सीधा असर महंगाई पर पड़ता है और आम जनता पर पड़ता है और भारत में अभी इतिहास का सबसे महंगा तेल बाजार में बिक रहा है आम जनता सबसे महंगा तेल खरीद रही है। इसके उलट विश्व बाजार में अभी सबसे सस्ता तेल उपलब्ध है और भारत के नागरिक विश्व बाजार से उल्टा सबसे महंगा तेल खरीदने को बाध्य है।आने वाले भविष्य में सरकार क्या अपनी टैक्स खोरी कम करेगी, क्या सरकार आम जनता को राहत देगी और क्या आम जनता सस्ता पेट्रोल डीजल खरीद सके ऐसा कोई कदम सरकार उठाएगी यह तो वक्त ही बतायेगा। या फिर सरकार ऐसे ही सस्ता पेट्रोल डीजल खरीद नागरिकों को महंगा बेच उनको महंगाई की आग में जलती रहेगी यह सरकार पर निर्भर है परंतु आने वाले वक्त में सरकार ने जैसा फैसला लिया है सरकार के नियंत्रण में बहुत सी चीजें नहीं रहेंगे, जैसे प्राइवेट कंपनियां अब अपना मूल्य निर्धारण कर सकती हैं अगर सरकार दखल ना दें क्योंकि सरकारों ने छूट दिए कि वह बाजार से माल खरीद सकते हैं और अपने दाम तय कर सकते है परंतु सरकार अपने फायदे, के लिए और अपनी सरकारी कंपनियों को बचाने के लिए तेलों का निम्नतम दाम निर्धारित कर सकती हैं, जो एक त्रासदी भरा फैसला होगा। अगर सरकार तेलों के दामों के नियंत्रण से अपने आपको नहीं हटाती है तो यह पूरी व्यवस्था जो सरकार बनाना चाहती है वह बेकार हो जाएगी क्योंकि सरकार अगर तेलों के न्यूनतम मूल्य का निर्धारण करती रहेगी तो फिर प्राइवेट कंपनी ज्यादा मुनाफा कमाएंगे और बाजार में प्रतिस्पर्धा नहीं आ पाएगी जिससे आम जनता वर्तमान की तरह चिल्लाती रहेगी और मंहगाई की आग में झुलसती रहेगी।
इसलिए इस पूरी प्रक्रिया को सरल बनाते हुए सरकार के पास आज अवसर है कि वह सस्ता तेल खरीद कर भारत की जनता को इस महंगाई से राहत दे सकती है। तेल के इस खेल में और इस विश्व तेल बाजार में अब सरकार के निर्णय पर निर्भर करता है कि भारत इसमें कहा खड़ा रहेगा और अपनी जनता को कहां खड़ा करेगा महंगाई के ऊपर या राहत के ऊपर।