डॉ. प्रिया
_आत्मा कभी नही मरती। यह नैनं छिद्राणि शस्त्राणि नैनं दहति पावकः है तो मरता कौन है?_
यदि आत्मा मरणधर्मा होता तो आकाश भी मर जाता, इसलिए जीव ही मरता है। तो आत्मा का आरोपण क्यों?
इन्द्रियों से श्रेष्ठ उनकी तन्मात्राएं (अर्थ) उससे भी श्रेष्ठ मन,मन से श्रेष्ठ बुद्धि,बुद्धि से श्रेष्ठ आत्मा,आत्मा से श्रेष्ठ अव्यक्त(मूल प्रकृति) और उससे भी श्रेष्ठ पुरूष जो परम श्रेष्ठ,पराकाष्ठा तथा परम गति है।
इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः।।
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरूषः परः।
पुरूषान्न परं किन्चित् सा काष्ठा सा परा गतिः।।
~कठोपनिषद् {१/३/१०-११}
_वास्तव मे आत्मा न तो कर्मों का कर्ता है न भोक्ता,किन्तु प्रकृति और उसके कार्यों के साथ जो उसका अज्ञानजनित अनादि संबंध है,उसके कारण वह कर्ता-भोक्ता बना हुआ है।_
श्रुति कहती है किः-
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः।
अर्थात् मनीषिगण ऐसा कहते हैं किः-मन,बुद्धि और इन्द्रियों से युक्त होने के कारण आत्मा भोक्ता है।
~कठोपनिषद् {१/३/४}
कहने अभिप्राय यह है कि आत्मा(परमात्मा) और प्रकृति जिसकी सीमा स्थूल, सूक्ष्म और कारण तक विस्तृत है, आत्मा इसी मे तथा इससे भी परे जो महतत्व है वहाँ तक समाहित है।
_केवल जहाँ से सत्य की सीमा शुरु होती है या जहाँ सत्य ही सत्य है और जिसे तीसरी आँख वाला इंसान ही देख पाता है. वहाँ प्रकृति की पहुँच नही है।_
[चेतना विकास मिशन)