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हिन्दी सिनेमा की वो ज़मीन कहाँ गायब हो गई? 

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दिलीप कुमार

किसी भी हीरो को सुपरस्टार उनकी कड़ी मेहनत, प्रतिभा, समर्पण के साथ… अच्छी कहानियों का चयन.. उसके बाद जो भी पर्दे पर आता है, वो यादगार रह जाता है.. 

दो बीघा ज़मीन, मुगल ए आज़म , गाइड, प्यासा, मदर इन्डिया, पाथेर पांचाली, आवारा, शोले, आँधी, काग़ज के फूल, देवदास, सत्यकाम, गर्म हवा, आज भी भारतीय सिनेमा की अनुपम कृति मानी जाती हैं…तब आंकड़े से ज्यादा फिल्म का प्रभाव देखा जाता था. अब बॉक्स ऑफिस पर किसने कितनी दौलत कमाई यह मानक बन गया है. अच्छी बात है, समाज भी समय के साथ बदलता रहता है, बदलना भी चाहिए. 

आज सिनेमाई समझ के बड़े – बड़े विद्वान कुछ भी बोलते – लिखते हैं, जिसकी जो विचारधारा हुई, जिस अभिनेता के साथ नजदीकी हुई उसे अच्छी मार्किंग करेंगे, जिससे व्यक्तिगत खुन्नस है, उसकी नकारात्मक मार्किंग होगी.. जाहिर सी बात है, दर्शकों की अपनी चेतना का निर्माण भी तो यहीं से होता है. फिर निष्पक्षता कहां रह गई?

आज कुछ समीक्षक गदर 2 को कल्ट कह रहे हैं, वही समीक्षक पठान को बकवास फिल्म कहते थे.. आज जो समीक्षक गदर 2 को बकवास कहते हैं, वो पठान को कल्ट कह रहे हैं थे! इसमे भी कोई बुराई नहीं है! आपकी अपनी सिनेमाई समझ पर जो खरा उतरे उसे ही कल्ट क्लासिक कहिए, लेकिन मैं ढूढ़ रहा हूं, वो समीक्षक कहां गए… जो सही समीक्षा करते थे. भाई भारतीय मासूम दर्शकों की चेतना के साथ मत खेलिए..

समाज़ एवं सिनेमा का बड़ा नजदीक का अंतर्संबंध होता है.. जैसा सिनेमा होगा… उसी ढर्रे पर समाज चलेगा.. अब यह पुख्ता हो चला है, कि समाज आदर्श तो नहीं होगा. हर कोई अपने – अपने हिस्से का सिनेमा सहेज रहा है, सहेजे रहिए, कोई बुराई नहीं है.. अब फ़िल्में हज़ार – हज़ार करोड़ तो कमा सकती हैं, लेकिन अब प्यासा, मदर इन्डिया, गाइड जैसी कल्ट फ़िल्में नहीं बन पा रहीं हैं, उसमे विचारो में संकुचन आ जाना सबसे बड़ा कारण है. ध्यान रखिए इसी नकारात्मकता के बीच में कल्ट फ़िल्मों की ज़मीन गायब हो गई है… आप बॉक्स ऑफिस के आंकड़े पढ़िए अपनी – अपनी पसंद की फ़िल्मों का जश्न मनाओ..लेकिन मैं ढूढ़ रहा हूं हिन्दी सिनेमा की वो ज़मीन कहाँ गायब हो गई, जहां कल्ट फ़िल्मों का खूब निर्माण होता था…. 

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