कनक तिवारी
(5) अगर मैं रायपुर काॅफी हाउस की बात करूं। तो मेरा जिगरी दोस्त रंजन याने शुभेन्दु मजूमदार बैताल की तरह पेड़ से उतरकर मुझ विक्रम से सवाल पूछता है। उसका जवाब नहीं दे पाने पर मेरी खोपड़ी तोड़ने की धमकी भी देता है। मैं और रंजन साइंस काॅलेज में एक साथ अंगरेजी से एम.ए. कर रहे थे। हमारे विभागाध्यक्ष प्रो. पी. एन. श्रीवास्तव थे। सबसे लोकप्रिय हमारे अध्यापक तो जबलपुर से आए थे। याने सुभद्रा कुमारी चौहान के बेटे अशोक चौहान उर्फ मुन्ना भैया। वह हमारे गुरु ही नहीं थे। हमारे जेहन के रास्ते हमारी आत्मा में पैठने का नायाब प्रयोग करते रहते थे। माउथ आर्गन बजाने में उनका मुकाबला था ही नहीं और न पतंग उड़ाने में। साइंस काॅलेज में सेठी की केंटीन में बैठकर समोसे खाते चाय पीते गपियाते हुए हम शेक्सपियर का हैमलेट पढ़ते पढ़ाते। प्राचार्य की परवाह किए बिना कि हम क्लास रूम में क्यों नहीं हैं। याने ठंड के दिनों में।
(6) काॅफी हाउस में आकर रंजन प्रफुल्लित हो जाता था। मानो कोई म्यूजिकल कंसर्ट में आया है। उसके पास गप्पों का काफी सारा खजाना था। रंजन को लेकिन काॅफी नहीं चाय पसंद थी। 10-15 कप चाय दिन में पी लेना उसके लिए बाएं हाथ का करतब था। इसी सिलसिले में उसके जिगर या लीवर में कोई परेशानी आई। तो डाक्टर ने कहा तुम अपना ब्लड सैंपल दो। जांच कर बताऊंगा कि क्या दवा लेना है। और उसे कम्पाउन्डर के पास ढकेल दिया। रंजन ने खून देने से मना किया। कम्पाउन्डर उसे पकड़ कर डाॅक्टर के पास ले गया। जब डाॅक्टर ने दबाव डाला तो रंजन ने कहा, मुझे आपकी बात मानने में कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन मेरी बाॅडी से आपका कम्पाउन्डर खून कैसे निकालेगा? मेरी बाॅडी में तो चाय ही चाय भरी है। यह किस्सा काॅफी हाउस में वह इतने लटके झटके से सुनाता कि हम श्रोताओं और सबको भी लगता कि हमारे खून में चाय या काॅफी की मात्रा ज़्यादा तो नहीं हो रही है।
(7) एक सिन्हा नाम का लड़का हमारे साथ था। किसी इंजीनियर का छोटा भाई जिसके पास साढ़े तीन हार्स पावर की फटफटी याने मोटर साइकिल थी। उसने पूरी क्लास में रंजन को अपना शिकार या मुरीद समझा था। बोला चल इस दशहरा दीवाली की छुट्टी में शगल करते हैं। मोटर साइकिल से चलेंगे। जिस तरह बंगाल के अकाल में भूख से तो कम बंगाली मरे लेकिन जब अंगरेज सरकार ने खिचड़ी केन्द्र खोले। तो खिचड़ी खाकर ज़्यादा मर गए। रंजन को एडवेंचर करने का यह प्रस्ताव रायपुर की शांत जिंदगी में भूखे बंगाली की तरह लगा। लिहाजा वह पीछे की सीट पर बैठ गया। काॅफी हाउस से वह मोटर साइकिल पश्चिम की ओर चली। घंटे दो घंटे बाद रंजन ने पूछा हम जा कहां रहे हैं। तो सिन्हा ने जवाब दिया कि भाई पहले चाय पीने का ठिकाना तो आने दो। शायद देवरी में पहुंचकर सरदार के ढाबे में उन्होंने नाश्ता किया और चाय पी। सिन्हा ने तब भी नहीं बताया। उनकी मोटर साइकिल सीघे नागपुर जाकर रुकी। तो रंजन ने कहा। मैं समझ गया तू नागपुर तक लाया है। सिन्हा की आंखों में चमक थी। जब नागपुर से गाड़ी आगे बढ़ी तब बंगाली बाबू घबराया। तब सिन्हा ने उसे बताया कि मेरी बहन बंबई में रहती है। चल उनसे मिलकर आते हैं। रंजन के होश फाख्ता हो गए। बोला मैं कहां फंस गया लेकिन वापस जा भी तो नहीं सकता। बहरहाल वह जोखिम भरी यात्रा किसी तरह बंबई तक जाकर खत्म हुई।
(8) दो तीन दिन वहां रुकने के बाद सिन्हा ने कहा। चलो वापस चलते हैं। तो रंजन की जान में जान आई। फिर तो वह हिम्मत कर बैठ गया कि जो हो गया। सो हो गया। अब तो घर जाना है। करीब पांच छह घंटे बाद उसे किसी जगह रुकने पर अजीब सा लगा कि ऐसा कोई कस्बा तो आते वक्त नहीं मिला था। हम कहां जा रहे हैं। बहुत मासूम चेहरा बनाकर सिन्हा ने कहा। अरे यार गलती से मोटर साइकिल गलत तरफ मुड़ गई। मैं सोच रहा था कि बहन से तो मिल लिया। अब दिल्ली जाकर भाई से भी मिल लूं। रंजन रुआंसा हो गया। बोला भाई मुझे किसी ट्रेन में बिठा दे या बस में। मैं वापस रायपुर जाऊंगा। सिन्हा बोला। दोस्ती करना भी नहीं आता? हम दोनों अलग कैसे हो सकते हैं? फिर धर बांधकर उसे वह मोटर साइकिल दिल्ली तक ले गई। रास्ते में जगह जगह रुकते हुए उन इलाकों में उत्तर भारत के जहां बेतहाशा ठंड पड़ती है। एक छत्तीसगढ़िया को तो वैसे ही उत्तर भारत में बहुत ठंड लगती है, लेकिन अगर उसकी देह को कोई मोटर साइकिल पर लादकर ढोने लगे। तो वह एक सामान की पोटली से ज़्यादा क्या हो सकता है। रोते धोते दोनों बहादुर कुछ दिनों बाद रायपुर लौटे। रंजन का चेहरा काला पड़ गया था। होश उड़ गए थे। आंखें कुछ कहना चाहती थीं। काॅफी हाउस की बैठकी में ये दोनों किस्से रंजन ने रस ले लेकर विस्तार से सुनाए। तो मैंने कहा। यार तुझे तो बहुत तकलीफ हुई। बोला कनक तकलीफ तो मैंने सह ली। लेकिन एक परेशानी हुई। वो दिल दिमाग से निकल नहीं रहा है। मैंने पूछा क्या। तो बोला। मैं तो अपने बालों पर नारियल का तेल लगाता हूं और वही लगाकर गया था। मैं जहां जहां रुकता। लोग मुझे देखकर हंसते थे। शुरू में तो मैं समझ नहीं पाया। फिर एक दुकान में आईना देखा। नारियल तेल में डूबे मेरे बाल ठंड के कारण ट्रांजिस्टर के एरियल की तरह खड़े हो गए थे। लोगों की हंसी देखकर मुझे रोना आने लगा। फिर सिन्हा की सलाह पर मैंने एक कैप खरीदी और अनिच्छापूर्वक उसे सिर पर लगा लिया। मैं लोगों की आंखों में मेरे लिए पैदा हुई हंसी को झेल नहीं पा रहा हूं। न वे मुझे कभी मिलेंगे। न मैं अपनी बात बता पाऊंगा। ये टोपी तू रख ले।
(9) प्रो. पी.एन. श्रीवास्तव ने हमसे कहा था कि कनक तुम राजनांदगांव के हो। रम्मू श्रीवास्तव को जानते हो। ‘नवभारत‘ में रम्मू श्रीवास्तव ‘कहनी अनकहनी‘ नाम का काॅलम लिखते हैं। उसको पढ़ो। तब तुम भाषा लिखना सीखोगे। मैंने गुरु की बात गांठ बांध ली। इसलिए भी कि रम्मू भैया स्टेट हाई स्कूल राजनांदगांव में मुझसे चार साल सीनियर थे। काॅफी हाउस में ही मैंने रम्मू भैया की उपस्थिति में महफिल को यह किस्सा सुनाया। हमारे स्कूल में तात्कालिक भाषण प्रतियोगिता आयोजित हुई थी। रम्मू भैया ने भी उसमें शिरकत की थी। बोलने के पहले एक चिट निकालना होता और तुरंत माइक पर खड़े होकर बोलना होता। सबको धुकपुकी रहती कि पता नहीं क्या विषय आएगा। कई लोग तो उखड़ते गिरते लगे। रम्मू भैया की चिट पर लिखा था ‘कांग्रेस।‘ बिना रुके रम्मू भैया ने माइक ठीक किया। अपने सिर पर हाथ फेरा। लटों को सहलाया और बोलने लगे। कहा कांग्रेस का संधि विच्छेद करिए। वह होगा कान धन ग्रेस। याने कांग्रेस वह सौंदर्य है जो सुनाई तो पड़ता है लेकिन दिखाई नहीं देता। इतना सुनते ही हम जूनियर छात्र तो ज़्यादा जोर से तालियां बजाने लगे थे। फर्स्ट प्राइज़ तो रम्मू भैया को ही मिला। काॅफी हाउस में यह किस्सा सुनकर आसपास जुटी महफिल में जो ठहाके लगे। रंजन चला गया है। जाना नहीं था। फिर भी चला गया। उसके बिना अंगरेजी साहित्य की याद करने में तकलीफ होती है। मैं लल्लू टाइप का था। क्लास में बैठा रहता। रंजन हर पीरियड के बाद बाहर जाकर प्राण की तरह सिगरेट के गोल गोल छल्ले काॅरिडोर में खड़ा होकर उड़ाता। फिर क्लास में आ जाता। उसकी आंखों में चमक थी। वह मेरे मन में अभी भी जल रही है। कभी नहीं बुझेगी। वह भले बुझ गया हो। उनकी अनुगूंज मुझे आज तक सुनाई पड़ रही है।
(10) हालांकि यह बात भी अलग है कि उन दिनों भी और बाद में तो ज़्यादा मैं रायपुर के जिस पत्रकार से भाषा शोष्ठव को लेकर प्रभावित हुआ था। वह नाम है गुरुदेव चौबे। वे रायपुर के सबसे उपेक्षित और कम बिकने वाले अखबार महाकोशल के संपादक थे। पता नहीं गुरु की लिखी संपादकीय टिप्पणियां कभी संकलित हुई हैं क्या? गुरु ने हिन्दी भाषा को जो स्तर प्रदान किया। वह मुझे इंदौर में ‘नई दुनिया‘ और दिल्ली में ‘नवभारत टाइम्स‘ में संपादक रहे रज्जू बाबू याने राजेन्द्र माथुर की याद दिलाता है। गुरुदेव हाॅल में बैठे सिगरेट पी सकते थे। अपनी बड़ी बड़ी आंखों से सबको देखते रह सकते थे। कम शब्दों में अपनी बात को दमदारी से कह सकते थे क्योंकि उन्हें जो कुछ कहना होता वह तो लिखकर कहना होता। गैरवाचालता एक बडे़ लेखक का शऊर हो सकती है। यह बात हमने गुरुदेव चौबे से ही सीखी।(जारी रहेगा।)