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कहाँ ले जाएगी इण्टरनेट की बुरी लत

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✍ दिव्या गुप्ता, दिल्ली 

   कम्प्यूटर और इण्टरनेट के आने के बाद वैश्विक क्रिया व्यापार वैसा नहीं रहा जैसा उसके पहले था, चाहे वह क्षेत्र आर्थिक हो या ज्ञानात्मक। एक तरफ मनुष्यों के बीच की हज़ारों मीलों की दूरी को सेकेण्डों तक सीमित करके इसने मानवीय मेल-जोल के नये आयाम खोले हैं वहीं दूसरी तरफ दुनिया भर के ज्ञान के सूचनात्मक आयाम को सिर्फ एक क्लिक पर मानव की सेवा में हाज़िर कर दिया।   

     विज्ञान के इस माध्यम ने जहाँ नयी सम्भावनाओं को जन्म दिया है वहीं “संस्कृति उद्योग” से जुड़ने के कारण इसने जिस आभासी दुनिया का निर्माण किया है उसके बहुविध खतरे भी हैं। पूँजीवाद की मरणशील संस्कृति ने सभ्यता के सम्मुख  एक  संकट उपस्थित किया है। लूट के लिये बर्बर सौदों ने बड़ी आबादी से न सिर्फ उनकी जीविका छीनी है बल्कि उसे मानवीय सारतत्व से वंचित भी किया।

     दूसरी तरफ दूसरी आबादी जिसके सामने जीविका का प्रश्न मुँह बाये खड़ा नहीं है, उसे भी आत्मिक सम्पदा से रिक्त, आत्ममोहग्रस्त, आत्मकेन्द्रित और समाजविमुख बनाया है। ऐसे में इण्टरनेट का इस्तेमाल करने वाली आबादी का बड़ा हिस्सा इस आभासी दुनिया के मोहपाश में एकाकीपन और अलगाव के कारण   बँधता जा रहा है और आज कई लोगों में यह एक मानसिक बीमारी का रूप ले चुकी है। लेकिन इण्टरनेट पर यह निर्भरता लत या इण्टरनेट एडिक्शन डिसऑडर के रूप में भी सामने आ रही है।

     यह आज विश्व स्तर पर सोचने, विचारने और बहस का मुद्दा बन चुका है। ‘अमेरिकन सोसाएटी ऑफ एडिक्शन मेडीसिन’ ने एडिक्शन की नई परिभाषा देते हुए कहा कि एडिक्शन एक गम्भीर दिमागी रोग है जो एक पदार्थ तक सीमित नहीं है। इण्टरनेट एक मादक पदार्थ हिरोइन का काम कर रहा है।

    समाज का शायद ही कोई ऐसा वर्ग होगा जो इस इलेक्ट्रानिक हिरोइन के असर से बचा हो। खास करके मध्यवर्गीय आबादी, विद्यार्थियों और नौजवानों में इसका असर सबसे अधिक है।

एक सर्वेक्षण के अनुसार 13 से 17 वर्ष की आयु वर्ग में हर 4 में  से 3, 18-24 वर्ग में से 71 प्रतिशत और 34-44 के आयु वर्ग का आधा इण्टरनेट की लत का शिकार है। एक और सर्वेक्षण के अनुसार यह तथ्य सामने आया है कि किशोर अवस्था में दाखिल हुए बच्चे इसका सबसे अधिक शिकार हो रहे हैं।

    इसके अनुसार चीन के 11 प्रतिशत, यूनान के 8 प्रतिशत, कोरिया के 18.4 प्रतिशत और अमेरीका के 8.2 प्रतिशत नौजवान इण्टरनेट के गुलाम हैं। किशोर अवस्था मनुष्य की ज़िन्दगी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होती है। इस उम्र में इंसान के विचार एक दिशा लेते हैं और उसकी शख्सियत एक रूप लेती है।

    लेकिन मौजूदा मुनाफा आधारित पूँजीवादी व्यवस्था के फलस्वरूप समाज में फैल रही बेगानगी से बचने के लिये नौजवान सोशल नेटवर्किंग साइट्स और ऑनलाइन वीडियो गेमिंग से राहत की उम्मीद करते हैं जो उन्हें डरपोक और निर्बल बना देती है।   

     फेसबुक और इंस्टाग्राम  का इस्तेमाल सबसे अधिक होता है। 13-17 वर्ष के किशोरों में 71 प्रतिशत फेसबुक और 52 प्रतिशत इंस्टाग्राम का इस्तेमाल करते हैं।  पूना यूनीवर्सिटी की दूसरे वर्ष की छात्रा आकांक्षा साहनी बताती है कि मुझे इंस्टाग्राम की आदत नहीं है लेकिन मैं इसके साथ जुड़ी हुई हूँ। यहाँ तक कि प्रतिदिन की जानकारी बहुत जीवन्त लगती है जब उसको फोटो खींच कर अपलोड किया जाता है।

    मैं फोटो को अलग-अलग तरह ऐडिट करके उसकी खूबसूरती बढ़ा कर छोटे-छोटे सिरलेखों के साथ अपलोड करती हूँ। जब उसे पूछा गया कि किस चीज़ की फोटो खींच कर अपलोड करती है तो वह कहती है कि यह बहुत फज़ूल लगेगा पर मैं हर चीज़ की और मुझे दिलचस्प लगने वाली हर जगह की फोटो खींचती हूँ।

    सुबह की अपनी चाय के कप से बारिश के बाद पार्क में मिट्टी के किनारे तक की फोटो खींचती हूँ। मुझे इन सारी चीज़ों को अपने फोन में रखना अच्छा लगता है। इससे भी ज़रूरी, जब मेरे फोन की बत्ती जलती है तो वहाँ मुठ्ठी भर नोटीफिकेशन होती हैं जो बताती हैं कि 23 लोगों ने मेरी फोटो को पसन्द किया है और एक बहुत खूबसूरत टिप्पणी भी की है तो मैं बहुत उत्साहित महसूस करती हूँ।

     अन्य नशों की तरह ही इण्टरनेट का इस्तेमाल दिमाग में डोपामाइन की मात्रा बढ़ाती है और मनुष्य खुशी महसूस करता है। एक इण्टरनेट छुड़ाओ केन्द्र में इलाज़ करा रहा 21 वर्षीय नौजवान बताता है कि: “मैं महसूस करता हूँ कि यह तकनीक मेरी ज़िन्दगी में बहुत खुशियाँ लेकर आयी है और कोई भी काम मुझे इतना उत्तेजित नहीं करता और आराम नहीं देता जितना कि यह तकनीक देती है। जब मैं उदास होता हूँ तो मैं खुद को अकेला करने और दुबारा खुश होने के लिये इस तकनीक का इस्तेमाल करता हूँ। जो नौजवान वर्ग ‘नये’ जैसे प्यारे शब्द को जिन्दा रखता है, जिनके पास नये कल के सपने, नये संकल्प, नयी इच्छाएँ, नया प्यार और नये विश्वास होते हैं वही नौजवान आज बेगानगी और अकेलेपन से दुखी होकर आभासी यथार्थ की राहों पर चल रहे हैं जिसका अन्त अत्यन्त बेगानगी में होता है।

सोशल नेटवर्किंग साइट्स के बाद नौजवानों में प्रचलित चीज़ है ऑनलाइन वीडियो गेमिंग। दशक 1970-80 में सामने आने के बाद वीडियो गेम इण्डस्ट्री ने 2002 तक 10.3 बिलियन डालर कमाये। वीडियो गेमों की तरफ लोगों का बढ़ता रुझान भी आज वीडियो गेम लत (एडिक्शन) का रूप धारण कर चुका है।

    एक मैगज़ीन में छपी खोज के अनुसार 3034 बच्चों में से 9 प्रतिशत बच्चे ऑनलाइन वीडियो गेम एडिक्शन के शिकार हैं और 4 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं जो 50 घण्टे प्रति सप्ताह की औसत से इसका इस्तेमाल करते हैं।

     आज वीडियो गेम मनोरंजन से कहीं दूर होकर घातक चीज के नज़दीक पहुँच चुका है। कोरीयन मीडिया द्वारा दी गयी एक खबर के अनुसार एक जोड़े ने, जो प्रतिदिन 12 घण्टे कम्प्यूटर पर ‘वर्चुअल’ (आभासी) बच्चे का पालन-पोषण करता था, अपनी 3 महीने की बच्ची को नज़रअन्दाज़ किया और कुपोषण के कारण जिसकी मौत हो गयी। वहीं ज्यादातर वीडियो गेम हिंसात्मक होते हैं ; यह बच्चों और युवाओं में जीत की अंधी लालासा ‘विन एट एनी कास्ट’ की प्रवृत्ति भरते हैं।

     इस तरह के गेम ऐसी मानसिकता का निर्माण करते हैं जिसमेंं सहजीवन और सहअस्तित्व की भावना की बजाय खुद के लिये जीने और स्वार्थ की भावना बढ़ती है। यह घटना बखूबी दिखाती है कि आज इंसान में बेगानगी की भावना इतनी गहरी हो चुकी है कि असली इंसानों को अनदेखा करके अपनी ऊर्जा उस दुनिया पर लगाती है जो आभासी है।

    इण्टरनेट की लत का दिमागी रोग जितना आस-पास के लिये घातक है, इससे भी कहीं ज़्यादा यह उस इंसान के लिये खतरनाक है जो इसका शिकार है। चीन के एक नौजवान को जब यह एहसास हुआ कि उसको इण्टरनेट की आदत हो चुकी है तो उसने इससे पीछा छुड़ाने की कोशिश की। पर असफल होने पर उसने अपना बायाँं हाथ यह सोच कर काट लिया कि हाथ नहीं रहेगा तो इण्टरनेट इस्तेमाल भी नहीं कर सकेगा।

    इण्टरनेट की लत आज एक गम्भीर समस्या है। नौजवानों को इसकी जकड़ से बचाने के लिये दुनिया भर में अलग-अलग तरीके अपनाये जा रहे हैं। चीन में इण्टरनेट छुड़ाओ शिविर चलाए जा रहे हैं जहाँ 1500 के करीब शिक्षित निर्देशक हैं जो नौजवानों की इण्टरनेट छुड़वाने में मदद करते हैं। ‘वैब जंकीज़’ नामक दस्तावेजी इन शिविरों की एक तस्वीर पेश करती है। कोरिया के स्कूलों में पढ़ाये जा रहे पाठ्यक्रम में इण्टरनेट के इस्तेमाल के बारे सही जानकारी जैसे विषय शामिल किये गये हैं। 3-3 वर्ष के बच्चों से भी इस बारे बात की जाती है।

     सवाल यह है कि इसका दोषी कौन है? क्या वे नौजवान इसके दोषी हैं जो इसके सन्ताप में जी रहे हैं या विज्ञान द्वारा समाज को भेंट की यह तकनीक इसकी दोषी है। इसके लिये दोषी न तो तकनीक है ना ही वह नौजवान। इसकी जड़ मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था में है। विज्ञान जो मनुष्य की सेवा के लिये सृजित किया जाता है जब मुनाफे की जकड़ में आता है तो अपने विपरीत में बदल जाता है।

     मानव द्वारा विकसित विज्ञान मानव को ही गुलाम बना लेता है। इण्टरनेट की आदत का दूसरा और मुख्य कारण समाज में फैल रही बेगानगी है जो इस व्यवस्था का अभिन्न अंग है। सड़-गल रही पूँजीवादी व्यवस्था से मिली आत्मिक कंगाली और बेगानगी नौजवानों को इण्टरनेट का सहारा लेने के लिये मज़बूर करती है और इसके परिणाम आज हमारे सामने हैं। पूँजीवाद में कोई भी आविष्कार पूँजी की जकड़बन्दी में उपभोक्तावाद को बढ़ावा देता है। 

     इण्टरनेट मात्र लोगों के जुड़ने के लिये वर्चुअल स्पेस और सूचना संजाल का स्थान नहीं है, बल्कि पूँजी निवेश, मुनाफ़ा कमाने के स्थल के साथ लोगों को पूँजी की संस्कृति का गुलाम बनाने की पाठशाला भी है। इसके माध्यम से पोर्न इंडस्ट्री, हैकिंग, सूचना चोरी, जैसे तमाम कारोबार किये जाते हैं। जहाँ एक और श्रम की लूट द्वारा लोगों की जिन्दगी को कोल्हू का बैल बनाकर पूँजीवाद ने उनके सामाजिक सरोकार के वक्त और सामाजिक दायरे को सिकोड़ दिया है वहीं दूसरी तरफ रहे-सहे वक्त को जो लोग सार्वजनिक जीवन और परिवेश से सीधा सम्बन्ध बनाने, उसे जानने और बदलने की प्रक्रिया में लगा सकते है; उसे इण्टरनेट की नशाखोरी ने ग्रस लिया है।    

     अनायास नहीं है कि रिलायंस जियो ने फ्री इण्टरनेट की मुहिम चलायी जिससे उसने न सिर्फ इससे अरबों रूपये कमाये बल्कि हमारे युवाओं के बेशकीमती वक्त को इस आभासी दुनिया में खर्च करने का नशा भी परोसा, हमारी सूचनाओं तक में उसने सेंधमारी भी की। इण्टरनेट की लत का शिकार व्यक्ति इस विभ्रम में रहता है कि वह ग्लोबल ज्ञान और सूचना तक पहुँच रहा है परन्तु प्राप्त सूचनाओं का वह एक विशुद्ध उपभोक्ता होता है और वह भी ऐसा उपभोक्ता जिसकी विश्लेषण क्षमता और आत्मिक सम्पदा का उपभोग हो चुका होता है।

    वैश्विक जानकारी के विभ्रम में वह निरन्तर आत्मविस्मृत, समाजविमुख, एकाकी तथा अलगावग्रस्त कूपमण्डूक बनाता जाता है। राहत शिविर, दवाइयाँ, मनोवैज्ञानिक हल कुछ राहत तो दे सकते हैं लेकिन अन्तिम रूप में इस समस्या को खत्म नहीं कर सकते। इण्टरनेट की आदत जैसे मानसिक रोगों का निदान मुनाफ़ा केन्द्रित व्यवस्था में नहीं वरन उस व्यवस्था में हो सकता है जिसके केन्द्र में मनुष्य हो।

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