राष्ट्र के सभी स्वतंत्रता सेनानियों को श्रद्धांजलि देने के लिए आज देश आजादी का अमृत महोत्सव
मना रहा है। अगर देश का भविष्य महान बनाना है तो युवा पीढ़ी में भारत के महान इतिहास का
गौरव पैदा करना ही होगा। आजादी के अमृतकाल में कर्तव्य और विश्वास का ये अमृत आजादी के
मतवालों को याद करने का एक सुनहरा अवसर है जिनकी कहानियां सुनते ही खून दोगुनी रफ्तार से
दौड़ने लगता है। ऐसे कितने ही अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों के किस्से इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं
जो न केवल रास्ते दिखाते थे बल्कि लोगों को उस पर चलाते भी थे। ऐसे ही स्वतंत्रता सेनानियों की
कहानी इस अंक में भी पढ़ने को मिलेगी। इस अंक में 16 अक्टूबर का दिन भी आ रहा है, जिस दिन
वर्ष 1905 में बंगाल का विभाजन हुआ था। इतिहास में बंग-भंग के नाम से दर्ज यह घटना भारत के
स्वतंत्रता संग्राम की वह ऐतिहासिक घटना है जिसने न केवल भारतीयों को एक रहने की सीख दी
बल्कि अंग्रेजी शासन की जड़ें तक हिला दी थी……
रामकृष्ण खत्री : जिनके प्रयासों के कारण बना था काकोरी शहीद स्मारक
जन्म : 03 मार्च 1902, मृत्यु : 18 अक्टूबर 1996
भा रतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख क्रांतिकारी रामकृष्ण खत्री का जन्म 03 मार्च 1902 को
महाराष्ट्र के बुलढाणा जिले में हुआ था। उनके पिता का नाम शिवलाल चोपड़ा और माता का नाम
कृष्णा बाई था। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा चिखली और चंद्रपुर नगर में ग्रहण की। बचपन से ही उनके
हृदय में देश प्रेम का अंकुर फूटने लगा था। अपने छात्र जीवन से ही रामकृष्ण खत्री, बाल गंगाधर
तिलक से प्रभावित थे। उन्होंने साधु समाज को संगठित करने का संकल्प किया। इसके लिए उन्होंने
‘उदासीन मंडल’ की स्थापना की, जहां उन्हें महंत गोविंद प्रकाश के नाम से जाना जाता था। कुछ
समय बाद वे राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ जैसे क्रांतिकारियों के संपर्क में आए और ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन
एसोसिएशन’ में शामिल हो गए। संगठन में राम प्रसाद बिस्मिल ने उन्हें उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश
में एसोसिएशन को फैलाने का जिम्मा दिया, जिसे उन्होंने पूरी जिम्मेदारी के साथ निभाया। खत्री को
हिंदी के साथ-साथ गुरमुखी और अंग्रेजी भाषा की भी अच्छी जानकारी थी, जिसके कारण उन्हें यह
जिम्मेदारी दी गई थी। मराठी भाषा पर भी उनकी अच्छी पकड़ थी। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के
क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश राज के विरुद्ध जबर्दस्त संघर्ष छेड़ने के उद्देश्य से हथियार खरीदने के लिए
ब्रिटिश सरकार के ही खजाने को लूटने की योजना बनाई। इसके लिए काकोरी में ट्रेन लूटी गई। इस
घटना के बाद रामकृष्ण खत्री को पुणे से गिरफ्तार कर लखनऊ की जेल में डाल दिया गया। उन पर
मुकदम चला और उन्हें काकोरी डकैती में शामिल होने के लिए दस साल कैद की सजा सुनाई गई।
अपनी सजा पूरी करने के बाद जब खत्री रिहा हुए तो वे एक बार फिर देश की सेवा में लग गये।
उन्होंने तुरंत अन्य कैदियों को जेल से रिहा कराने के प्रयास शुरू कर दिए। इतना ही नहीं, उन्होंने
राजनीतिक कैदियों को भी जेल से रिहा कराने के लिए आंदोलन किया और इस प्रयास में वह काफी
सफल भी रहे। स्वतंत्रता के बाद भी वे देश के नागरिकों की सेवा में जुटे रहे। उन्होंने सरकार के साथ
मिलकर स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों की सहायता के लिए कई योजनाएं भी बनवायीं। रामकृष्ण खत्री
के प्रयासों के कारण ही काकोरी में स्वतंत्रता सेनानियों का स्मारक बनाया जा सका। वह ‘विशाल
परिमाण’ पुस्तक की रचना करने वाले एक लेखक थे। उनकी पुस्तक ‘शहीदों की छाया’ नागपुर से
प्रकाशित हुई थी। उन्होंने ‘काकोरी शहीद स्मृति’ नाम से भी एक पुस्तक लिखी। देश की आजादी में
अपना योगदान देने वाले क्रांतिवीर रामकृष्ण खत्री का 18 अक्टूबर 1996 को निधन हो गया।
आजादी के बाद से अब तक खाद्यान्न उत्पादन में छह गुना की वृद्धि
भारत आज एक राष्ट्र के रूप में गुजरे हुए कल को छोड़कर, आने वाले कल की तस्वीर में नए रंग
भर रहा है। यह वो रंग हैं जो हमारे महान स्वतंत्रता सेनानियों ने भारत के आजादी के आंदोलन के
दौरान सपने के रूप में देखे थे। इन सपनों में भारत के खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि भी शामिल थी
ताकि आजादी के बाद, इस सेक्टर में आत्मनिर्भर हो सके। हमें किसी अन्य देश पर निर्भर नहीं रहना
पड़े। भारत आज उन्हीं महापुरुषों के सपनों को साकार करने के लिए प्रतिबद्धता एवं समर्पण से जुटा
हुआ है और उनके सपनों का भारत बनाने में योगदान दे रहा है। इसका परिणाम है कि आजादी के
बाद से अब तक खाद्यान्न उत्पादन में देश ने छह गुना वृद्धि की है। 1950 में जहां 50.82 मिलियन
टन खाद्यान्न का उत्पादन होता था वहीं, 2014 -15 में 252.02 मिलियन टन खाद्यान्न का उत्पादन
होने लगा। अब 2021-22 में 314.51 मिलियन टन खाद्यान्न का रिकॉर्ड उत्पादन होने का अनुमान है।
2021-22 के आंकड़े खाद्यान्न उत्पादन के तृतीय अग्रिम अनुमानों पर आधारित है।
ब्रह्मबांधव उपाध्याय : भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में खप जाने वाले प्रथम संपादक
जन्म : 11 फरवरी, 1861, मृत्यु : 27 अक्टूबर 1907
महान स्वाधीनता सेनानी, क्रांतिकारी और पत्रकार ब्रह्मबांधव उपाध्याय का जन्म 11 फरवरी, 1861 को
पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के खानान गांव में हुआ था। जब वे हाई स्कूल में थे तो वे राष्ट्रवादी
आंदोलन की ओर आकर्षित हुए। वे सुरेंद्रनाथ बनर्जी के माजिनी, गारीबाल्दि और यंग इटली पर दिए
गए भाषणों से अत्यधिक प्रभावित थे। कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही वे स्वाधीनता आंदोलन में
शामिल हो गए थे। कोलकाता में स्कॉटिश चर्च कॉलेज में स्वामी विवेकानंद उनके सहपाठी थे।
ब्रह्मबांधव युद्ध कला सीखने और अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए ग्वालियर राज की सेना में शामिल
होना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने दो बार कोशिश भी की, लेकिन महाराजा की नीतियों के कारण
हताश होकर उन्हें वापस लौटना पड़ा। वे पहले से ही ब्रह्म समाज के सक्रिय सदस्य थे। अपने बहुत
से समकालीन लोगों की तरह ब्रह्मबांधव भी राष्ट्रीय गौरव की स्थापना के साथ आध्यात्मिक शांति
भी चाहते थे। वे 1888 में ब्रह्म मिशनरी के रूप में सिंध गए। उनकी जीवनी में लेखक जूलियस
लिप्नर ने लिखा है कि ब्रह्मबांधव ने नए भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिसकी
पहचान उन्नीसवीं सदी की पहली छमाही में उभरने लगी। ब्रह्मबांधव, रवीन्द्रनाथ टैगौर और स्वामी
विवेकानंद के मित्र थे। माना जाता है कि स्वामी विवेकानंद ने क्रांति की ज्वाला प्रज्वलित की,
ब्रह्मबांधव ने इस ज्वाला को और प्रज्वलित किया, उसकी रक्षा की और बलिदान दिया। ब्रह्मबांधव ने
बंगाली अखबार संध्या का संपादन किया और अंतिम सांस तक इसके संपादक रहे। उन्होंने संध्या
और बांग्ला साप्ताहिक युगांतर के माध्यम से स्वराज और स्वदेशी आंदोलन को लोकप्रिय बनाया।
उन्होंने ब्रिटिश उपनिवेशवाद और यूरोपीय सांस्कृतिक आधिपत्य के खिलाफ अंग्रेजी भाषा में लेख
लिखे। 10 सितंबर 1907 को ब्रह्मबांधव को गिरफ्तार कर लिया गया और राजद्रोह के आरोप में
मुकदमा चलाया गया। ब्रह्मबांधव ने अदालत में अपने बचाव से मना कर दिया। इसके बाद 23
सितंबर 1907 को बैरिस्टर चितरंजन दास के माध्यम से अदालत में उनका बयान जमा कराया गया।
बयान में ब्रह्मबांधव ने कहा कि वे संध्या के प्रकाशन, प्रबंधन और संचालन की सभी जिम्मेदारी
स्वीकार करते हैं। ब्रह्मबांधव ने यह भी कहा कि 13 अगस्त 1907 को अखबार में प्रकाशित लेख
उन्होंने ही लिखे थे। उन्हीं में से कुछ लेखों को उत्तेजक मानते हुए ब्रह्मबांधव के खिलाफ मुकदमे का
आधार बनाया गया था। ब्रह्मबांधव ने मुकदमे की कार्यवाही में शामिल होने से मना कर दिया।
दरअसल, उन्हें विश्वास था कि स्वराज के ईश्वर नियुक्त मिशन का हिस्सा बनने के कारण उन्हें
किसी भी तरह लोगों को अंग्रेजों के विरुद्ध भड़काने के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
सुनवाई के दौरान ब्रह्मबांधव के पेट में दर्द हुआ और उन्हें कोलकाता के अस्पताल में भर्ती कराया
गया। अस्पताल में उनकी सर्जरी की गई लेकिन उनकी तकलीफ कम नहीं हुई और 27 अक्टूबर 1907
को उनका निधन हो गया।
अपने धुन के पक्के थे महात्मा गांधी
के निकट सहयोगी मूलचंद चंदेल
साल 1920 में चलाए गए असहयोग आंदोलन के दौरान जब महात्मा गांधी ने विदेशी वस्त्रों और
सामानों को जलाने और स्कूल-कॉलेज का बहिष्कार करने का आह्वान किया तो उससे प्रेरित होते हुए
राजस्थान में जयपुर जिले के बस्सी गांव निवासी मूलचंद चंदेल ने अपना एक ऐसा कपड़ा जला दिया
जिसे वह बहुत प्रेम से पहनते थे। यह कपड़ा उन्हें एक मिल के मालिक ने दिया था। देश की खातिर
उन्होंने कभी भी अपनी पसंद-नापसंद की परवाह नहीं की और राष्ट्रहित को सदैव सर्वोपरि माना।
अपने धुन के पक्के और आजाद भारत का स्वप्न देखने वाले मूलचंद चंदेल ने भारत की आजादी के
लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का निर्णय ले लिया था। चंदेल जब अहमदाबाद गए तो उन्हें वहां
साबरमती आश्रम जाने का मौका मिला था। वहां उन्हें महात्मा गांधी के करीब जाने और उनके
विचारों को समझने का महत्वपूर्ण अवसर मिला। इस घटना ने चंदेल के जीवन को बदलने में बहुत
बड़ी भूमिका निभाई। ऐसे में 1920 में जब महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन शुरु किया तो मूलचंद
चंदेल भी इसमें शामिल हो गए। इतना ही नहीं, मूलचंद चंदेल का पर्यावरण से भी प्रेम अगाध था।
यही कारण है कि वे आजीवन पर्यावरण के लिए काम करते रहे। बातचीत में वे आमतौर पर कहा
करते थे कि जो व्यक्ति आम का पेड़ लगाता है, वह उसका फल नहीं खाता लेकिन इसका अर्थ यह
नहीं है कि वह पेड़ लगाए ही नहीं। यही कारण है कि उन्होंने संकल्प लेकर बस्ती में कई पौधे लगाए
और लगवाएं। वे कहा करते थे कि पौधे लगाना बड़ी बात नहीं है बल्कि उसका बच्चों की तरह
संरक्षण होना चाहिए। आजादी के अमृत महोत्सव में, जयपुर स्थित कस्तूरी देवी शैक्षणिक विकास एवं
सामाजिक शोध संस्थान ने 2021 में साल भर तक मूलचंद चंदेल की 61वीं पुण्यतिथि जोर-शोर से
आयोजित करने और इसके लिए एक समिति गठित करने की योजना बनाई थी। अमृत महोत्सव के
दौरान संगठन की ओर से अनेक कार्यक्रम आयोजित किए गए, जिसमें पौधारोपण व संगोष्ठी के
कार्यक्रम शामिल थे। मूलचंद चंदेल का 24 अक्टूबर 1960 को निधन हो गया। n
जयदेव कपूर : जिनकी सहनशीलता देख
खुद अंग्रेज अफसर भी रह जाते थे दंग
जन्म : 24 अक्टूबर 1908, मृत्यु : 19 सितंबर 1994
स्व तंत्रता सेनानी जयदेव कपूर का जन्म 24 अक्टूबर 1908 को उत्तर प्रदेश के हरदोई में हुआ था।
उनके पिता का नाम शालिग्राम कपूर और मां का नाम गंगा देवी था। कानपुर के डीएवी कॉलेज में
पढ़ाई के दौरान वह एक अन्य क्रांतिकारी शिव वर्मा के साथ हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में
शामिल हो गए। 1925 में जयदेव को बनारस में क्रांतिकारी नेटवर्क विकसित करने की जिम्मेदारी
सौंपी गई। ऐसे में, उन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में बी.एससी पाठयक्रम में प्रवेश ले लिया।
वहां भगत सिंह कई दिन तक उनके साथ लिम्बड़ी हॉस्टल में रहे। जयदेव कपूर ने आगरा में बम
बनाने का प्रशिक्षण भी लिया था। वह क्रांतिकारियों को बम बनाने की ट्रेनिंग भी देते थे। एक बार
टेस्टिंग के दौरान उनके घर के पास ही बम फट गया था। उनका चंद्रशेखर आजाद से लेकर सभी
नामी क्रांतिकारियों के साथ मिलना-जुलना, उठना-बैठना रहता था। साथ ही वे क्रांतिकारी गतिविधियों
में पूरी तरह सक्रिय भी रहते थे। उन्होंने ट्रेड डिस्प्यूट बिल और पब्लिक सेफ्टी बिल के विरोध में
असेंबली में बम गिराने की घटना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कहा जाता है कि भगत सिंह और
बटुकेश्वर दत्त के लिए सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने के लिए दाखिल होने की व्यवस्था करने वाले
जयदेव कपूर ही थे। बम फेंकने के लिए जाने से पहले भगत सिंह ने अपने नए जूते यह कहते हुए
उन्हें दे दिये थे कि पुलिस इसे छीन लेगी लेकिन कम से कम जयदेव कपूर तो इसे पहन सकेंगे।
साथ ही भगत सिंह ने एक पॉकेट घड़ी भी उन्हें दी थी। कहा जाता है कि इन्हें देते हुए भगतसिंह से
जयदेव से आजादी की मशाल को जलाए रखने का वचन लिया था। ये कोई आम घड़ी नहीं थी बल्कि
क्रांति के महान क्षणों की गवाह रही थी। ये घड़ी भगत सिंह को महान क्रांतिकारी शचींद्रनाथ सान्याल
ने दी थी। जिन्हें ये घड़ी रास बिहारी बोस से मिली थी। जयदेव कपूर ने उन जूतों को स्मृति के रूप
में संभाल कर रखा। बम विस्फोट के बाद इस घटना में शामिल सभी क्रांतिकारियों को पकड़कर जेल
भेजा जाने लगा। ऐसे में जयदेव को भी गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें अंडमान निकोबार के
सेल्यूलर जेल भेज दिया गया जिसे कालापानी के नाम से जाना जाता था। कहा जाता है कि अंडमान
की जेल में उनको 60 दिनों तक रोज सुबह 30 बेंत मार खाने की सजा मिली थी। इस सजा के
दौरान जयदेव कपूर धैर्य से काम लेते और उनकी ये सहनशीलता देख अंग्रेज अफसर भी दंग रह जाते
थे। अंडमान जेल की सजा के दौरान बदन पर पड़े बेंत के निशान जयदेव के शरीर पर ताउम्र बने
रहे। जयदेव ने भगत सिंह और अन्य साथियों से उनके अंतिम समय में मिलने की इच्छा व्यक्त की
थी। वे सेल्यूलर जेल में 16 वर्ष रहे और स्वतंत्रता से कुछ वर्ष पहले ही रिहा किए गए। 19 सितंबर
1994 को उनका निधन हो गया।