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मृत्यु के बाद जन्म किसका और कब ?

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        अनामिका, प्रयागराज 

       कर्मफल और पुनर्जन्म का सिद्धांत अटल, अकाट्य और अनुभूत है. यह तमाम सर्वेक्षणों द्वारा प्रमाणित यथार्थ भी है.  

    जब तक हम चेतना के शिखर पर पहुंचकर परम चैतन्य नहीं बनते, जब तक हम भावना-संवेदना का अतल तल नहीं छूते, जब तक हम पूर्णतः आनंदित जीवन जीकर परमानंद का अनुभव नहीं करते; तब तक अतृप्त वासनाओं की अभिपूर्ति के लिए, कर्मफल के लिए और शेष विकास के लिए हमारा जन्म-मरण होता रहता है.

    यानी तब तक हम मोक्ष की अवस्था नहीं पाते. मोक्ष की अवस्था पाने पर हमें जन्म के लिए विवस नहीं होना पड़ता. तब हम भगवत्ता को उपलब्ध होते हैं. किसी विशेष प्रयोजन के लिए अवतार लेना हमारी स्वैक्षिक मौज होती है. 

      पूर्णत्व के सफल सिद्ध मार्ग हैं :

~ स्थूल परार्थ के लिए ही खुद को अर्पित कर देना : विनोवा भावे, मदर टेरेसा आदि.

~ प्रेम-भक्ति में लीन हो जाना : मीरा, राबिया, चैतन्य आदि.

~ध्यान-साधना : बुद्ध, महावीर, महर्षि रमण, जे. कृष्णमूर्ति आदि.

~अखंड प्रेम आधारित संभोग साथना : शिव-शिवा, काम-रति, ऋषि-पूर्वज आदि.

    जब कोई व्यक्ति मरता है, तो साधारण हो तो तत्क्षण पैदा हो जाता है. उसे ज्यादा देर नहीं लगती उसको नया शरीर ग्रहण करने में. इसलिए कि सामान्य गर्भ सदा उपलब्ध होते हैं।

    जब कोई असाधारण आदमी मरता है, कोई महापुरुष या कोई महापापी, तब उसको जन्म लेने में लम्बा समय लग जाता है. इसलिए कि उसके योग्य गर्भ तत्काल उपलब्ध नहीं होते हैं; कभी-कभी निर्मित होते हैं। 

    हिटलर जैसा व्यक्ति मर जाए, तो सैकड़ों वर्ष लग जाएंगे उसको मां-बाप खोजने में। उसके योग्य गर्भ पाने के लिए उसको प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। इस प्रतीक्षा के क्षण में वह प्रेत होगा। 

    कोई आत्मज्ञानी मर जाए और अभी बोध की उस जगह न पहुंचा हो, जहां से फिर जन्म नहीं होता, तो उसको भी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, सैकड़ों वर्ष. तभी उसके योग्य गर्भ मिल सकेगा।

       नीचे की छोर पर और ऊपर की छोर पर प्रतीक्षा करनी होती है। जो लोग ऊपर के छोर पर प्रतीक्षा करते हैं, उनको हम देव कहते रहे हैं। जो नीचे के छोर पर प्रतीक्षा करते रहते हैं, उनको हम प्रेत कहते रहे हैं।

    दोनों छोर पर प्रतीक्षा करती हुई आत्माएं हैं, जिनको अभी गर्भ लेना है। देव स्वभावतः आनंदित होते हैं किसी की सहायता करने में। प्रेत आनंदित होते हैं, किसी को भ्रष्ट करने में, पथ से हटाने में।

      ये दोनों आत्माएं आपके आसपास काम कर रही हैं। आपकी जैसी प्रवृत्ति होती है, उस प्रवृत्ति की आत्मा आपमें घुसकर आपके ज़रिये व्यक्त होती है, खुराक पाती है, आपको शक्ति भी देती है.

 किसी का सूत्र है : अगर दुष्कर्म के परिणाम वश तू उदास हुआ है, तो तेरे आसपास की ऐसी  आत्माएं उदासी के क्षण में तुझे पकड़ती हैं और तुझसे ऐसे काम करवाती हैं, जो तूने स्वयं कभी नहीं किए होते हो।

    आपको कई बार ऐसा लगता है कि यह काम मैं नहीं करना चाहता था; फिर भी किया। यह मेरी मरजी न थी, तय भी किया था कि नहीं करूंगा; फिर भी किया। कई बार ऐसा भी होता है कि आप कोई अच्छा काम करना बिलकुल पक्का कर लेते हैं और फिर ऐन वक्त पर बदल जाते हैं। यह अनुभव उक्त सूत्र को सही सावित करता है.

     एक नवयुवती मेडिटेशन शिविर में हमारे प्रशिक्षक मानवश्री के पास पहुंची. रो रही थी। उनसे बोली, सबकुछ छोड़ने को तैयार हूँ, स्वीकार करें. उन्होने उससे कहा, कल. कल दोपहर आना। 

  अगले दिन समय पर वह पहुंची. बोली कि मैं महीने भर से तैयार हूं.  कल फाइनली आई थी। लेकिन जैसे ही आपने कहा, कल आ जाना, न मालूम क्या हुआ, मेरा भाव ही चला गया। मुझे अभी अपना निर्णय छोड़ देना है।

  वह रो रही है अभी भी. कह रही है कि मैं आपको लेना चाहती हूं और लेने की बहुत तैयारी है और बहुत दिन से प्रतीक्षा है। किन्तु पता नहीं क्या हो गया है मेरे भीतर कि अब हिम्मत ही नहीं जुट रही है लेने की। 

  उसे यह भी लगता है कि लेना है। नहीं ले पारही है. इसलिए रो भी रही है।

         हमें खयाल में सत्य नहीं है. हमारे चारों तरफ विचार का एक विराट जगत है. उसमें आत्माएं भी हैं. उसमें विचारों के पुंज भी हैं। उनको हम किन्हीं क्षणों में पकड़ लेते हैं और आविष्ट हो जाते हैं। 

     उस आवेश में फिर हम जो करते हैं, वह हमारा किया हुआ नहीं है। शुभ विचार भी हम पकड़ते हैं, शुभ आत्माएं भी हमें सहारा देती हैं। अशुभ विचार भी पकड़ते हैं, अशुभ आत्माएं भी बाधा डालती हैं।

 जो भीतर से अति प्रसन्न है, इस नियम को समझ लेना, वह सुरक्षित है। जो भीतर से उदास है, वह असुरक्षित है। उदासी के क्षण में आप उपद्रवी आत्माएं, उपद्रवी विचार पकड़ लेते हैं। आंतरिक प्रसन्नता और आनंद के अहोभाव में, जो श्रेष्ठ है, उससे संबंध जुड़ता है। 

   जो स्व को जीते हुए सदा आनंदित रहने की कोशिश करे, उसे इस जगत की जितनी दिव्य शक्तियां है, उन सभी का सहयोग मिल जाता है। 

जो ऎसा नहीं करे, इस जगत में जो भी मूढ़तापूर्ण है, जो भी भारी वजनी और पथरीला है, सबका उसके साथ संग हो जाता है।

         जब आप भीतर से उदास बैठते हैं, तब आपके चारों तरफ उदास चेतनाओं की एक जमात बैठी है, जो आपको दिखाई नहीं पड़ती है : आपसे संयुक्त होती हैं। 

  जब आप भीतर से आनंदित होते हैं, तब आपके चारों तरफ जो आनंदित चेतनाएं तैर रही हैं, जो आपको दिखाई नहीं पड़तीं : आपसे संयुक्त हो जाती हैं.

  आप अपने आसपास एक वर्तुल निर्मित कर रहे हैं। इसलिए अगर आप साधक/साधिका हैं तो इंटर्नली सदा प्रसन्न रहे, न हो परिस्थिति प्रसन्न होने की, तो भी कोई कारण खोज लें, और प्रसन्न रहें। आंतरिक प्रसन्नता को सूत्र बना लें।

शिवसूत्र कहता है : “दृढ़ बन। अब तू मध्य द्वार के निकट आ रहा है, जो क्लेश का भी द्वार है, जिसमें दस हजार नागपाश हैं।’ अब तू करीब आ रहा है यात्रा के मध्य बिंदु पर। मध्य बिंदु आखिरी बिंदु है। अगर तू उस पार हो गया, तो दूसरे छोर पर जाना आसान हो जाएगा।  मध्य बिंदु अटकाव बन गया, तो तू वापिस गिर सकता है। 

    इस मध्य बिंदु पर दस हजार नागपाश हैं। दस हजार उलझनें खड़ी होंगी। दस हजार उपद्रव खड़े होंगे। जितने उपद्रव तूने किए हैं अनंत-अनंत जन्मों में, सब तुझे पकड़ेंगे और वापिस बुला लेना चाहेंगे। जिन-जिनका तूने साथ किया हो, जिन-जिन नासमझियों का, वे सब नासमझियां एक बार आखिरी कोशिश करेंगी कि लौट आओ; इतने पुराने संगी-साथी, कहां जाते हो.

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