प्रस्तुति : पुष्पा गुप्ता
अब ट्रेन में सफ़र करना भी चुनौतीपूर्ण काम हो चुका है। अब यह हिन्दुस्तानी जुबान के ‘सफ़र’ से अधिक अंग्रेज़ी ज़ुबान के ‘सफ़र’ में तब्दील हो चुका है, जिसका मतलब होता है तकलीफ़ झेलना। अगर आपकी जेब में पैसा है तो आप एसी का टिकट लीजिए और अगर इतना पैसा नहीं है तो जनरल या स्लीपर डिब्बे में धक्के खाते हुए जाइए। अगर ट्रेन में किसी तरह चढ़ भी गये, तो कोई गारण्टी नहीं है कि सुरक्षित अपने गन्तव्य तक पहुँच पायेंगे.
ट्रेनों में लगातार बढ़ती भीड़, भेड़-बकरियों की तरह यात्रा करते लोग, रेल दुर्घटनाओं में बढ़ोतरी, यह भारतीय रेलवे का ग़रीब विरोधी चरित्र दर्शाता है।

हालिया रेल दुर्घटना बंगाल में हुई। जलपाईगुड़ी में दो ट्रेनों के बीच 17 जून को हुए दर्दनाक हादसे में 12 लोगों की मौत हो गयी और 25 लोग घायल हुए हैं। (इस लेख के लिखे जाने के बाद गोंडा के पास चंडीगढ़-डिब्रूगढ़ एक्सप्रेस पटरी से उतर गई जिसकी वजह से 4 लोगों की मौत हो गई) मोदी सरकार ने मृतकों के परिवारों को 2 लाख रुपये और घायलों को 50 हज़ार रुपये देकर अपना पल्ला झाड़ लिया है।
रेल मन्त्री हमेशा की तरह या तो घड़ियाली आँसू बहा देते हैं या ऐसे दिखाते है कि सब ठीक हो जायेगा। लेकिन सवाल यह है कि इस हादसे के लिए कौन ज़िम्मेदार है? किसी भी जाँच द्वारा यह बात सामने आयेगी ही कि किसी स्तर पर मानवीय चूक हुई है। बात वहीं समाप्त हो जायेगी। लेकिन इन मानवीय चूकों की बढ़ती बारम्बारता के पीछे कई ढाँचागत कारण ज़िम्मेदार हैं। इसलिए सवाल उन ढाँचागत कारकों का है।
मोदी सरकार के पिछले 10 वर्षों में रेलवे की हालत बद से बदतर हुई है, सिर्फ़ यात्रियों की नहीं बल्कि कर्मचारियों की। कर्मचारियों की स्थिति की पहले बात करें तो, रेलवे में नौकरियों को घटाया जा रहा है, जो नौकरियाँ हैं उनका ठेकाकरण और कैज़ुअलीकरण कर दिया गया है। भारतीय रेलवे में 78 हज़ार लोको एवं असिस्टेण्ट लोको पायलट हैं।
रेलवे में लोको पायलट और सहायक लोको पायलट के कुल 1,27,644 पद हैं, जिनमें से 18,766 पद (14.7 फीसदी) एक मार्च 2024 तक रिक्त थे। लोको पायलट के 70,093 पद स्वीकृत हैं, जिनमें से 14,429 (लगभग 20.5 फीसदी) खाली पड़े हैं, जबकि सहायक लोको पायलट के 57,551 पद स्वीकृत हैं, जिनमें से 4,337 (लगभग 7.5 फीसदी) खाली हैं।
नतीजतन, ड्राइवरों पर काम का भयंकर बोझ है। कई जगहों पर ड्राइवरों को गाड़ियाँ रोककर झपकियाँ लेनी पड़ रही हैं क्योंकि 18-20 घण्टे लगातार गाड़ी चलाने के बाद बिना सोये दुर्घटना की सँभावना बढ़ जाती है। पश्चिम रेलवे के अहमदाबाद डिवीजन द्वारा मई 2023 में तैयार एक आधिकारिक नोट में कहा गया था कि लोको पायलट की कमी के कारण अप्रैल 2023 में 23.5 प्रतिशत लोको पायलट ने काम करने के अधिकतम समय 12 घण्टे से अधिक काम किया।
इसी प्रकार, लगातार 6-6 दिन रात की ड्यूटी करवाये जाने के कारण भी रेल दुर्घटनाओं की संख्या बढ़ रही है। 2021-22 से 2022-23 के बीच नुकसानदेह रेल दुर्घटनाओं की संख्या में 37 प्रतिशत की भारी बढ़ोत्तरी हुई। कई बार ड्राइवरों को बिना शौचालय विराम के 10-10 घण्टे तक काम करना पड़ता है।
इसी प्रकार सिग्नल प्रणाली में लगे स्टाफ़ को भी या तो बढ़ाया ही नहीं गया या पर्याप्त रूप में नहीं बढ़ाया गया। नतीजतन, वहाँ भी काम के बोझ के कारण त्रुटियों और चूकों की सँभावना बढ़ जाती है। यही हाल ग्रुप सी व डी के रेलवे कर्मचारियों का भी है। 2015 से 2022 के बीच ग्रुप सी व डी के 72,000 पदों को रेलवे ने समाप्त कर दिया।
एक लिखित जवाब में रेल मन्त्री ने अलग-अलग जोन में मौजूद भर्तियों के बारे में बताया कि, ग्रुप सी में कुल 2,48,895 पद खाली हैं और ग्रुप ए और बी में 2070 पद खाली पड़े हैं। वहीं पूरे देश में क़रीब 3,04,143 पद खाली हैं। एक ओर रेलवे स्टेशनों, ट्रैकों की संख्या बढ़ रही है, वहीं पदों को कम कर और ठेकाकरण कर निजी कम्पनियों को मुनाफ़ा कूटने की आज़ादी दी जा रही है और रेलवे कर्मचारियों पर बोझ को बढ़ाया जा रहा है। यह मोदी सरकार की नीतियों का ही नतीजा है।
2007-08 में रेलवे में 13,86,011 कर्मचारी थे। लेकिन आज यह संख्या 12.27 लाख हो चुकी है। यानी करीब 1,85,984 नौकरियों की कटौती।
आज दुर्घटनाओं में मृतकों की संख्या इतनी बड़ी होने के पीछे एक कारण यह भी है कि जनरल बोगियों में मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकशों की जनता को जानवरों और भेड़-बकरियों की तरह सफ़र करने पर मजबूर होना पड़ता है। आँकड़े बताते हैं कि 2005 में 23 प्रतिशत एसी कोच थे और 77 प्रतिशत स्लीपर कोच और 2023 में स्लीपर कोच 46 प्रतिशत ही रह गये और एसी कोच की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। पहले सभी ट्रेनों में चार जनरल कोच हुआ करते थे, अब सिर्फ़ दो ही होते हैं।
बता दें कि रोज़ाना 2 करोड़ 40 लाख लोग सफ़र करते हैं, जिसमें अधिकतम जनरल में ही यात्रा करते हैं। 2023 के आँकड़े बताते हैं कि अप्रैल से अक्टूबर के बीच कुल 390.2 करोड़ रेल यात्रियों में से 95.3 फीसदी ने जनरल और स्लीपर क्लास में यात्रा की है। सिर्फ़ 4.7 फीसदी यात्रियों ने एसी क्लास डिब्बों में सफ़र किया। क़ायदे से सरकार को रेलों और बोगियों की संख्या बढ़ानी चाहिए ताकि हर कोई मानवीय, गरिमामय और आरामदेह स्थितियों में सफ़र कर सके।
मोदी सरकार वन्दे भारत ट्रेन का खूब प्रचार करती है और इसे “नये भारत” की ट्रेन बताती है और कवच योजना का प्रचार करती है, इससे मध्यमवर्ग की एक आबादी को लग सकता है कि रेलवे तरक्की पर है। आइए इसकी भी सच्चाई जानते हैं। अगर कवच की बात करें तो अभी तो देश भर में सिर्फ़ 1,445 किलोमीटर में कवच लगाया गया है, जबकि रेलवे 69,000 किलोमीटर की कुल लम्बाई के मार्ग का प्रबन्धन करती है।
दूसरी तरफ़ आम जनता वन्दे भारत में नहीं स्लीपर या जनरल डिब्बे में सफ़र करती है। वन्दे भारत की अगर बात करें तो इस ट्रेन में सफ़र करके भी अन्य ट्रेनों के मुक़ाबले औसतन 65 मिनट ही बचता है और इसके लिए आपको 52 प्रतिशत अधिक क़ीमत चुकानी पड़ती है। इसके अलावा ट्रेनों का घण्टों लेट होना व रद्द होना सामान्य सी बात हो चुकी है।
अगर सुफरफास्ट ट्रेनों की बात करें, जिसकी समान्य गति 123 कि.मी प्रति घण्टा होनी चाहिए, उन ट्रेनों की गति 55 कि.मी प्रति घण्टा है। वहीं मोदीजी देश को “बुलेट ट्रेन”(जिसकी गति 250 किलोमीटर प्रति घण्टे होती है) का लॉलीपॉप 2014 से पकड़ा रहे हैं। अगर ट्रेनों के रद्द होने की बात करें तो बीते 5 वर्षों में 1,16,060 ट्रेन रद्द हो चुकी है। ट्रेनों को समय पर चलाने और रफ़्तार को बढ़ाने का बहाना लेकर मोदी सरकार रख-रखाव के काम को भी आउटसोर्स करने, यानी निजी कम्पनियों को दे रही है।
रेलवे में हर ट्रेन के रख-रखाव के निर्धारित समय को छह घण्टे से घटाकर दो घण्टे करने की योजना है। ऐसे में ट्रेन के रख-रखाव के समय को कम करने और इस बेहद महत्वपूर्ण काम को बाहर की कम्पनियों द्वारा ठेके पर कराना यात्रियों की ज़िन्दगी के साथ खिलवाड़ करना है।
साथ ही पिछले कुछ सालों में रेलवे ने टिकट रद्द करने, तत्काल बुकिंग, प्रीमियम किराया आदि से भी हज़ारों करोड़ की कमाई की है। दूसरी ओर आम यात्रियों के लिए सुविधाएँ बढ़ने के बजाय बदतर हो गयी हैं। बाक़ी ट्रेन में सफ़र करते हुए साफ़-सफ़ाई की स्थिति से तो सब वाक़िफ हैं। भारतीय रेल इस समय जिन इन्जनों, रेल के डिब्बों, सिग्नल व्यवस्था आदि का इस्तेमाल कर रही है, वे पहले ही पुराने पड़ चुके हैं।
रेलवे को अपने आधारभूत ढ़ाँचे को और दुरुस्त करने की ज़रूरत है, जबकि रेलवे बीते 10 वर्षों में इन्फ्रास्ट्रक्चर पर 2.5 करोड़ खर्च करने के दावा करती है। गोदी मीडिया भी बड़ी बेशर्मी के साथ सरकार का बचाव कर रही है कि मोदी सरकार के राज में ट्रेन हादसे में कमी आयी है, जबकि सच्चाई यह है कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़ों से पता चलता है कि पिछले 10 सालों में ट्रेन दुर्घटनाओं के कारण कुल 2.6 लाख लोगों की मौत हुई है। इसपर यह गोदी मीडिया चुप्पी साध लेती है।
एक ओर रेलवे का नेटवर्क विस्तारित किया गया है, दूसरी ओर रेलवे में कर्मचारियों की संख्या को लगातार कम करके मोदी सरकार मौजूदा कर्मचारियों पर काम के बोझ को भयंकर तरीके से बढ़ा रही है। ऐसे में, दुर्घटनाओं और त्रासदियों की संख्या में बढ़ोत्तरी की सँभावना नैसर्गिक तौर पर बढ़ेगी ही। ऐसी जर्जर अवरचना के भीतर मोदी सरकार बुलेट ट्रेन के शेखचिल्ली के ख़्वाब दिखा रही है, तो इससे बड़ा भद्दा मज़ाक और कुछ नहीं हो सकता। तात्कालिक तौर पर निश्चय ही ऐसी दुर्घटनाओं के लिए किसी व्यक्ति की चूक या ग़लती ज़िम्मेदार नज़र आ सकती है।
लेकिन यह एक व्यवस्थागत समस्या है जिसके लिए मौजूदा मोदी सरकार की छँटनी, तालाबन्दी और ठेकाकरण की नीतियाँ और रेलवे को टुकड़ों-टुकड़ों में निजी धन्नासेठों के हाथों में सौंप देने की मोदी सरकार की योजना ज़िम्मेदार है। यह मोदी सरकार की पूँजीपरस्त और लुटेरी नीतियों का परिणाम है। इस बात को हमें समझना होगा क्योंकि सरकारें ऐसी त्रासदियों की ज़िम्मेदारी भी जनता पर डाल देती हैं और अपने आपको कठघरे से बाहर कर देती हैं। देश के सबसे बड़े सरकारी व सबसे ज़्यादा रोज़गार पैदा करने वाले संस्थान को बर्बादी के कगार पर ला खड़ा करने और उसे मुनाफ़ाखोरों के हाथों बेचने के ख़िलाफ़ संगठित प्रतिरोध की ज़रूरत है, क्योंकि यह लड़ाई सिर्फ़ रेलकर्मियों की नहीं है, ये लड़ाई सभी मेहनतकशों की लड़ाई है। इस लड़ाई को मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ व्यापक प्रतिरोध से जोड़ने की ज़रूरत है। (चेतना विकास मिशन).