सूचना का अधिकार (आरटीआई) के तहत मार्च 2024 में रेल मंत्रालय ने अपने जवाब में बताया था कि रेलवे में विभिन्न सुरक्षा श्रेणियों के तहत करीब 10 लाख पदों में से 1,52,000 पद रिक्त हैं। इसके तहत ट्रेन ड्राईवर, निरीक्षक, चालक दल नियंत्रक, लोको प्रशिक्षक, ट्रेन नियंत्रक, ट्रैक अनुरक्षक, स्टेशन मास्टर, पॉइंट्समैन, इलेक्ट्रिक सिग्नल अनुरक्षक सहित सिग्नलिंग पर्यवेक्षक श्रेणी के पद रिक्त हैं। इन पदों पर काम करने वाले कर्मचारी ट्रेनों के संचालन में प्रत्यक्ष तौर पर शामिल रहते हैं, इसलिए ट्रेनों के सुचारू रूप से संचालन के लिए इन पदों को भरा जाना नितांत आवश्यक था। इसी तरह लोको पायलटों को लेकर आरटीआई के जवाब में रेलवे का कहना था कि इसके तहत कुल 70,093 पद आरक्षित हैं, जिसमें से 14,429 पद रिक्त पड़े हैं।
16 जून की सुबह पश्चिम बंगाल में सिलीगुड़ी के पास रेड सिग्नल की वजह से कंचनजंघा एक्सप्रेस सवारी गाड़ी रुकी होती है। इसके कुछ अंतराल बाद एक मालगाड़ी भी उसी ट्रैक पर आकर पीछे से टक्कर मार देती हैं, जिसमें अब तक 10 लोगों की मौत की सूचना है, जबकि 40 लोग घायल बताये जा रहे हैं। पिछले वर्ष ही ओडिशा के बालासोर में भारतीय रेलवे के इतिहास का दूसरा सबसे भयानक ट्रेन हादसा हुआ था, जिसमें 288 लोग हताहत हुए थे। तब भी सिग्नल खराब होने की सूचना सामने आई थी। तब भी रेल मंत्रालय की कमान अश्विनी वैष्णव संभाल रहे थे, और इस बार तो उनके पास रेल मंत्रालय के साथ-साथ कई अन्य महत्वपूर्ण मंत्रालयों का गुरुतर भार सौंपा गया है।
दोनों हादसों की वजह एक है, भारतीय रेलवे के पास पर्याप्त संख्या में कर्मचारियों का अभाव है। यह बात सरकार को भी पता है, विपक्ष भी जानता है और देश भी समझता है। लेकिन एक-दो दिन के हंगामे के बाद सबकुछ बदस्तूर जारी रहता है। दुर्घटना के फौरन बाद प्रधानमंत्री सहित अन्य केंद्रीय मंत्रियों की पोस्ट X पर लहराने लगती है, जिसके बाद देश का मीडिया मान लेता है कि सरकार ने घटना की जानकारी हासिल कर ली है, और कुछ देर बाद ही मरने वालों और घायल लोगों के लिए मुआवजे की घोषणा के साथ मामला रफा-दफा हो जाता है। देश के सबसे बड़े राजनेता के द्वारा दिवंगतों के प्रति शोक संवेदना संदेश को ही सबसे बड़ा पारितोषिक साबित करने वाली मीडिया का क्या यही दायित्व रह गया है?
भारतीय रेलवे को एक समय देश की लाइफलाइन माना जाता था। देश को एक सूत्र में पिरोने के काम का सबसे बड़ा श्रेय अगर किसी एक संस्था को दिया जा सकता है तो वह है भारतीय रेलवे। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद ब्रिटिश साम्राज्य ने अपने व्यावसायिक एवं सामरिक हितों को ध्यान में रखते हुए भारत में रेल पटरियों का जाल बिछाने का जो सिलसिला शुरू किया था, वह अपनेआप में एक मिसाल है। आजादी के बाद भारत के विभिन्न हिस्सों में औद्योगिक कल-कारखानों में काम करने के लिए एक प्रदेश से देश के दूसरे छोर पर जाने के लिए सबसे सुरक्षित और किफायती साधन के तौर पर रेलवे ने भारतीयों के दिलों में एक अमिट छाप छोड़ी थी। लेकिन पिछले दो दशकों, और विशेषकर 2014 के बाद से भारतीय रेलवे और आम गरीब लोगों के बीच एक खाई सी बन गई है, जो दिनों-दिन चौड़ी होती जा रही है।
मोदी युग से पहले हर वर्ष आम बजट के साथ-साथ अलग से रेल बजट पेश किये जाने की परंपरा थी। बजट की बारीकियों के प्रति अरुचि रखने वाला आम आदमी भी रेल बजट में इस बार क्या आया, को लेकर उत्सुक रहता था। देश के संगठित क्षेत्र में सर्वाधिक रोजगार मुहैया कराने वाले उद्योग के तौर पर प्रतिष्ठित भारतीय रेलवे के मंत्रालय का कार्यभार संभालने के लिए सत्तारूढ़ दल और घटक दलों में होड़ मची रहती थी। लेकिन आज ये सब इतिहास हो चुका है। आज हम सहजता से नहीं जान सकते कि भारतीय रेलवे ने अपनी प्राथमिकता में किस चीज को रखा है। बाहर से देखें तो आपको लग सकता है कि मोदी शासन में रेलवे में सुधार के लिए काफी कुछ किया जा रहा है। इसमें डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर से लेकर बुलेट ट्रेन और रेलवे स्टेशनों का रंग-रोगन कर नया लुक देने की कोशिश आम यात्रियों और विदेशी पर्यटकों के मन में बेहतर छवि पेश कर सकती है।
लेकिन थोड़ा गहराई पर जाएं तो पता चलता है कि भारतीय रेलवे अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। ट्रेनों के समय से चलने के जमाने लद गये। कोविड-19 महामारी के दौरान रेलवे के संचालन को ठप कर, पुनर्संयोजन का जो सिलसिला शुरू हुआ है, उसने करोड़ों आम लोगों के लिए सर्व-सुलभ सैकड़ों रेलगाड़ियों को पटरी से ही उतार डाला है। यह ऐसी तकलीफ है, जिसकी कोई सुनवाई नहीं क्योंकि तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया के लिए साधारण पैसेंजर और एक्सप्रेस ट्रेनों का कोई मोल ही नहीं रहा। पिछले दो दशकों के दौरान जो सिलसिला शुरू हुआ, उसने अब करोड़ों आम भारतीयों के लिए ट्रेन के सफर को उनकी पहुंच से कोसों दूर कर दिया है।
उदाहरण के लिए, साधारण अनारक्षित बोगियों की संख्या में लगातार घटोत्तरी और स्लीपर क्लास के डिब्बों की संख्या में उत्तरोत्तर का जो सिलसिला कुछ दशक पहले शुरू हुआ था, उसने हाल के वर्षों में एक और गुणात्मक छलांग लगा दी है। आज अधिकांश ट्रेनों में जनरल बोगी की संख्या घटकर एक-दो रह गई है। स्लीपर क्लास को वातानुकूलित बोगियों ने तेजी से स्थानापन्न करना शुरू कर दिया है। राजधानी, शताब्दी एक्सप्रेस से कंप्लीट वातानुकूलित ट्रेन चलाने का जो सिलसिला शुरू हुआ था, अब नजर दौडाएं तो आप पाएंगे कि एक के बाद एक ट्रेनों की सीरीज ने खुद को स्थापित कर लिया है। इधर हाल में वन्दे भारत एक्सप्रेस ट्रेन को भाजपा की सरकार ने अपना प्रतीक चिन्ह बना लिया है।
16 जून को जिस रोज हालिया ट्रेन दुर्घटना हुई थी, रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव का पिछले दिन दिया गया बयान सुर्ख़ियों में था। रेल मंत्री दावा कर रहे थे कि अगले पांच वर्षों के दौरान देश में 500 वन्दे भारत ट्रेनें दौड़ेंगी। रेल मंत्री को शायद नहीं पता कि देश के करोड़ों लोग हर साल रोजी-रोटी कमाने के लिए देश के एक कोने से दूसरे कोने की यात्रा करने के लिए भारतीय रेलवे के आसरे ही हैं। देश में करीब 15,000 यात्री ट्रेनें हैं, जिनके रख-रखाव, मरम्मत और ट्रैक, सिग्नलिंग पर आवश्यक ध्यान देने की जिम्मेदारी भी रेल मंत्री की ही है। इन करोड़ों लोगों को साल में एक या दो बार अपने कार्य स्थलों से शादी-ब्याह, धार्मिक उत्सव या त्यौहार के दौरान अपनी जड़ों की ओर लौटना होता है। 2-3 महीने पहले रेलवे में अपनी सीट की बुकिंग करने पर भी वेटिंग लिस्ट आखिर तक कन्फर्म नहीं हो पाती। कुछ सौ कंप्लीट वातानुकूलित ट्रेनों को समय पर अपने गंतव्य तक पहुंचाने के चक्कर में शेष हजारों ट्रेनों को घंटों लेट कराने का सिलसिला दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है।
ऐसा लगता है कि मोदी सरकार ने देश के नागरिकों को भी श्रेणीबद्ध करने की ठान ली है। पैसेंजर ट्रेनों में वर्ग विभाजन की रेखा जो पहले महीन हुआ करती थी, अब इसे धडल्ले से अपनाया जा रहा है। कुछ ट्रेन हैं, जिनके लिए सुविधा और सुरक्षा तो कोई खास नहीं है, लेकिन महंगी होने और डायनामिक फेयर की व्यवस्था इन्हें अधिसंख्य भारतीयों की पहुंच से बहुत दूर कर चुकी है। यहीं से भारतीय रेल में दो क्लास बन जाते हैं। एक एलीट क्लास के लिए ट्रेन है, जो मुख्यतया प्रमुख लाइन पर दौड़ती हैं। इनके लिए आवश्यक रख-रखाव और ट्रैक मेंटेनेंस, सिग्नल इत्यादि का इंतजाम चाक-चौबंद रखा जाता है। वहीं दूसरी तरफ, सैकड़ों अन्य रूट हैं जिनमें हजारों साधारण एक्सप्रेस ट्रेन दौड़ती हैं।
यहां पर इस तथ्य पर भी गौर करना होगा कि जिस 10-15% आबादी को ध्यान में रखते हुए केंद्र की मोदी सरकार और रेल मंत्री अश्वनी वैष्णव भारतीय रेल की दशा-दिशा में इतना बड़ा आमूलचूल परिवर्तन करने के लिए आमादा हैं, उनके पास सड़क और वायुमार्ग का विकल्प पहले से मौजूद है। वास्तव में देखें तो ये वर्ग कम दूरी के लिए अपने चौपाया वाहन को प्राथमिकता देता है और लंबी दूरी के लिए हवाई मार्ग से यात्रा पसंद करता है। वन्दे भारत जैसी ट्रेनों के कई उदहारण से पता चलता है कि मूल रूप से भारतीय रेलवे इसे घाटे का सौदा मानता है। कई रूट्स पर वन्दे भारत ट्रेन में सीटें खाली रह जा रही हैं। लेकिन पन्त प्रधान के लिए तो चंद ट्रेन को वर्ल्ड क्लास दिखाकर वाहवाही लूटना ही प्रिय शगल रहा है।
रेल हादसों को रोकने के लिए सरकार ने 2017-18 में राष्ट्रीय रेल संरक्षण कोष की स्थापना की थी। इसके तहत केंद्र सरकार और भारतीय रेलवे को हर वर्ष 20,000 करोड़ रूपये का कोष तैयार करना था, जो रकम पांच वर्षों में 1 लाख करोड़ रूपये होकर रेल सुरक्षा के लिए आरक्षित होता। पिछले वर्ष सीएजी की रिपोर्ट से पता चलता है कि राष्ट्रीय रेल संरक्षण कोष से रेल सुरक्षा पर खर्च करने के बजाय 1,004 करोड़ रूपये से फुट मसाजर, क्राकरी, इलेक्ट्रिकल सामान, फर्नीचर, विंटर जैकेट्स, कंप्यूटर, स्वचालित सीढि़यां और गार्डन के रख-रखाव पर खर्च किया गया।
रेल मंत्री अश्वनी वैष्णव को सोशल मीडिया में रेल मंत्री की जगह रील मंत्री की उपाधि से नवाजा जा रहा है। उनका एक पिछला वीडियो इन दिनों काफी वायरल है, जिसमें वे दो रेलगाड़ियों के मॉडल को प्रदर्शित करते हुए दिखा रहे हैं कि कैसे सुरक्षा कवच सिस्टम लग जाने से यदि सिग्नल की कोई समस्या हो या मानवीय चूक की स्थिति में भी सुरक्षा कवच ट्रेन को सुरक्षित दूरी पर रोकने में सक्षम है। लेकिन फिर सवाल उठता है कि बालासोर रेल दुर्घटना के बाद भी कवच को सभी रेलगाड़ियों में अभी तक क्यों स्थापित नहीं किया जा सका? भारत में 1,08,706 किमी लंबा रेल ट्रैक है, जिसमें से मात्र 1,455 किमी ट्रैक को ही पिछले वर्ष तक कवच से सुरक्षित किया जा सका है।
भारतीय रेल के निजीकरण का सिलसिला भी शुरू हो चुका है। कई प्रमुख रेल स्टेशनों को ठेके पर देने से पहले सरकार द्वारा उनका जीर्णोद्धार कर निजी हाथों में सौंपा जा चुका है। फिलहाल, रेल मंत्रालय सैकड़ों रेलवे स्टेशनों के रंग-रोगन में जुटी हुई है, जो बताता है कि आने वाले दिनों में भारतीय रेल का निजीकरण और बड़ी संख्या में उपेक्षित रूट्स पर यात्री ट्रेनों के बंद होने का सिलसिला तेज होने जा रहा है। भारतीय रेल अब 140 करोड़ आम भारतीयों के लिए लाइफलाइन होने से कोसों दूर जा चुकी है, इसकी मिसाल हम 60 वर्ष से अधिक उम्र के भारतीय नागरिकों को 50% रियायती दर पर उपलब्ध होने वाले टिकट के मोदी शासनकाल में खात्मे के साथ पहले ही देख चुके हैं।