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नई राष्ट्रपति से बेहतर कौन जानता है कि जल, जंगल, ज़मीन पर पहला हक़ किसका

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वर्षा मिर्जा भम्माणी

इस लेख को लिखने का विचार शुक्रवार को अख़बार में पहले पन्नों पर प्रकाशित दो तस्वीरें हैं।  एक में देश की प्रथम नागरिक चुन लीं गईं द्रौपदी मुर्मू अपनी बिटिया इतिश्री  के हाथ से मिठाई खा रही हैं और दूसरी जिसमें सोनिया गांधी अपनी बेटी प्रियंका गांधी के साथ गाड़ी में बैठकर प्रत्यर्पण निदेशालय यानी ईडी के दफ्तर से लौट रही हैं। वर्तमान राजनीतिक धरातल पर दो बेहद विपरीत हालात के बावजूद ये दोनों स्त्रियां संघर्ष की बुलंद दस्तानों का प्रतिनिधित्व करती हैं। उन्नीस साल की उम्र में इटली की एक लड़की का भारतीय लड़के से प्रेम कर बैठना और फिर खुद को पूरी तरह से लड़के के देश और परिवार के संस्कारों में ढाल लेना।  उसके बाद पहले लड़के की मां का गोलियों से छलनी हुआ शरीर देखना और  फिर कुछ ही सालों में उस लड़के को भी अलविदा कह देना जिसके आतंकी हमले में शरीर के हिस्से भी नहीं मिले थे। ये सोनिया गांधी हैं।  नवनिर्वाचित राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू भी संघर्ष का ही दूसरा नाम हैं। उनके बेहद अपने केवल चार साल के अंतराल में उनसे बिछड़ गए। पचीस साल के बेटे लक्ष्मण का शरीर उन्हें उसके कमरे में मिला और दूसरा बेटा 28 साल की उम्र में एक सड़क दुर्घटना का शिकार हो गया। अक्टूबर 2014 में उनके पति भी नहीं रहे। ब्याह के बाद उनकी तीन साल की पहली बेटी भी दुनिया छोड़ गई थी । ऐसे में एक स्त्री का यूं शिखर तक आना बहुत मायने रखता है। 

दर्द के बड़े रास्तों से चलकर आई ये दोनों स्त्रियां आज अलग अलग माहौल में हैं। द्रौपदी मुर्मू देश की पंद्रहवीं सबसे युवा राष्ट्रपति चुन ली गईं हैं और वे आज़ादी के पचहत्तरवें  साल में इस महत्वपूर्ण पद को संभाल रही हैं। वे अपने गाँव की पहली आदिवासी लड़की थीं जिन्होंने कॉलेज में दाखिला लिया।ओडिशा की संथाल आदिवासी समाज की मुर्मू पहले शिक्षिका ,फिर रायरंगपुर नगर पंचायत से सभासद ,विधायक और भाजपा बीजू जनता दल की संयुक्त सरकार में मंत्री रहीं हैं। 2015 में  वे झारखंड की राज्यपाल नियुक्त हुईं। एक लोकसभा चुनाव वे हारी हैं। वे भाजपा के आदिवासी मोर्चा की उपाध्यक्ष भी रहीं हैं । 2016 में झारखंड की भाजपा सरकार ने आदिवासियों की ज़मीन औद्योगिक इस्तेमाल के लिए अधिग्रहित करनेवाला एक कानून संशोधित किया जिसके भारी विरोध को देखते हुए राज्यपाल मुर्मू ने इसे लौटा दिया। वे मुर्मू अब देश की राष्ट्रपति हैं जो ना केवल देश के दस करोड़ आदिवासियों के लिए बल्कि समूचे  सवा अरब भारतियों के लिए गौरव का पर्याय हैं। 

सोनिया गांधी पर लौटते हैं।  ‘द रेड साड़ी’ किताब लिखने वाले स्पेनिश लेखक जेवियर मोरोन थी सात साल पहले जब जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में आए थे तो सबकी जिज्ञासा यही थी कि उन्होंने सोनिया गांधी को किताब की कहानी का विषय क्योंकर बनाया। उनका कि एक लड़की जो तीन बहनों में सबसे शांत और गंभीर थी उनका भारत के खतरनाक राजनीतिक माहौल में यूं रच बस जाना हैरान करता था। हालांकि मेरी उनसे एक दो से ज़्यादा मुलाकातें नहीं हैं और ना ही उनकी पार्टी के लोगों ने मेरी इस किताब में कोई दिलचस्पी ली फिर भी मेरी इस कहानी में खूब रूचि थी। दरअसल कोंग्रेसियों ने तो इस किताब के प्रतिबंध में खूब दिलचस्पी ली थी। यह किताब 2013 के आसपास प्रकाशित हुई  थी। सोनिया गांधी के लिए हम भारत के लोग  एकराय रखते हुए देखे जाते हैं  कि जिस तरह उन्होंने खुद को भारत भूमि से एकाकार किया वैसा किसी के लिए आसान नहीं। यहां तक की भारतीय स्त्रियों के लिए भी नहीं जो आसानी से खुद को नई  परिस्थितियों में ढाल लेती हैं।  दूसरी बात जिसके लिए उन्हें आदर दिया जाता है वह दो बार जीत के बावजूद प्रधानमंत्री पद  नहीं लेना जबकि देश खुद उनके बारे में  विदेशी की  दुविधा से मुक्त हो चुका था। इस त्याग और अनुकूलन के बावजूद वह क्या है जो केंद्र में काबिज सरकार उन पर  ईडी की जांच का दबाव बना रही है जबकि पार्टी प्रवक्ता नेशनल हैराल्ड से जुड़े मामले में यही कहते हैं कि आयकर का मामला पहले से ही कोर्ट में विचाराधीन है।  अख़बार की  आज़ादी के  इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका थी  इसीलिए घाटे में चल रहे पत्र को बचाने के लिए एक कंपनी बनाई गई जिसका एक भी रुपया कोई भी सदस्य नहीं ले सकता। इसमें  कोई हेराफेरी नहीं हुई है। सरकार बेवजह पहले पांच दिनों तक राहुल गांधी और अब सोनिया गांधी को ईडी का डर दिखला रही है। यह तो हुई प्रवक्ताओं की बात सच्चाई यह भी है कि सरकारी एजेन्सिया अब पिंजरे के तोते नहीं रहीं,  खुंखार शेर हैं जो इलेक्शन प्रबंधन में मदद करती  हैं। सरकारें गिरानी हों, विधायकों से पार्टी बदलवानी हो ईडी, सीबीआई मुख्यमंत्रियों और रिश्तेदारों पर दहाड़ते हुए देखे जाते हैं। महाराष्ट्र ,राजस्थान बंगाल समेत कई राज्यों में ये एजेंसियां सक्रिय देखी गई हैं। 

चंचल भू उन सामाजिक कार्यकर्ताओं और वरिष्ठ लेखकों में हैं जो इंदिरा गांधी के आपातकाल में जेल में डाल दिए गए थे । वे लिखते हैं क्यों अपमानित किया जा रहा है एक महिला को जो बीमार भी हैं। बार बार इस परिवार को क्यों अपमानित किया जा रहा है। श्रीमती सोनिया गांधी एक परंपरा की वाहक हैं। पाप से घृणा करो पापी से नहीं। वैचारिक मतभेद अपनी जगह पर, मनभेद नहीं होना चाहिए। अटलजी को किडनी की दिक्कत थी। आज जिस सोनिया गांधी को बीमारी की हालत में अपमानित किया जा रहा है वही  सोनिया गांधी  अपने पति राजीव गांधी के कहने पर अटल जी का हालचाल लेती रहीं और उनके विदेश में इलाज का प्रबंध कर दिया। ना राजीव गांधी और ना सोनिया गांधी ने इस पर एक शब्द भी कभी बोला है। 

 निर्मला पुतुल एक बेहतरीन कवयित्री हैं और झारखण्ड से हैं। उनकी कविता ‘आदिवासी स्त्रियां’ की पंक्तियां  देखिये

 वे नहीं जानती कि 

कैसे पहुंच जाती हैं उनकी चीज़ें दिल्ली 

जबकि राजमार्ग तक पहुंचने से पहले ही 

दम तोड़ देती हैं उनकी दुनिया की पगडंडियां 

नहीं जानतीं कि कैसे सूख जाती हैं 

उनकी दुनिया तक आते-आते नदियां 

तस्वीरें कैसे पहुंच जाती हैं उनकी महानगर 

नहीं जानती वे नहीं जानती। 

द्रौपदी मुर्मू अब दिल्ली पहुंच चुकी हैं और पूरी उम्मीद की जानी चाहिए की आदिवासी स्त्री की नदी अब नहीं सूखेंगी। अब वे महानगर आएंगी  भी तो मुकम्मल वजूद के साथ आएंगी जैसे नई राष्ट्रपति आई हैं। बेशक नई राष्ट्रपति से बेहतर कौन जनता है कि जल, जंगल, ज़मीन पर पहला हक़ किसका है और आदिवासी स्त्री इसे बचाने के लिए किस कदर संघर्षरत है।

प्रजातंत्र से साभार

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