राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नेतृत्व में 12 मार्च 1930 को शुरु हुए ‘दांडी मार्च’ को भारतीय स्वतंत्रता
संग्राम का अहम पड़ाव माना जाता है। अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से नमक सत्याग्रह के लिए
दांडी मार्च की शुरुआत की गई थी। इस मार्च के जरिए बापू ने अंग्रेजों के बनाए नमक कानून को
तोड़कर उस सत्ता को चुनौती दी थी जिसके बारे में कहा जाता था कि उसके साम्राज्य में कभी सूरज
नहीं डूबता। नमक सत्याग्रह के 91 वर्ष पूरे होने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2021 में साबरमती
आश्रम से अमृत महोत्सव की शुरुआत सांकेतिक पदयात्रा को हरी झंडी दिखा कर की थी। 15 अगस्त
2023 तक चलने वाले इस महोत्सव ने 2 साल में राष्ट्र को संकल्पों की सिद्धि के लिए किया
प्रेरित……
आजादी का अमृत महोत्सव भारत के 75 वर्षों का अखिल भारतीय समारोह है। यह अभियान देश भर
में अधिकतम जन भागीदारी के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम के माध्यम से चलाया जा रहा है। देश के
इतिहास में ऐसे कई नायक-नायिकाएं हैं जिनकी देशभक्ति ने जन-जन को प्रेरित किया और राष्ट्र को
नई राह दिखाई। आजादी के अमृत महोत्सव की श्रृंखला में इस बार पढ़िए जयरामदास दौलतराम,
सहोदरन अय्यपन, अंबिका चक्रवर्ती और डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुंजे की कहानी जिन्होंने अपनी
कर्तव्यपरायणता और राष्ट्र के प्रति समर्पण से न केवल देश को नई ऊंचाई दी बल्कि उनके दिखाए
रास्ते का सिरा पकड़ भारत आज नई कहानी लिख रहा है।
जयरामदास दौलतराम : नमक सत्याग्रह
के दौरान जिन्हें अंग्रेजों की गोली लगी
जन्म : 21 जुलाई 1891, निधन : 1 मार्च 1979
सन 1942 में वह फिर गिरफ्तार हुए और तीन वर्ष के लिए नजरबंद रहे। जयरामदास दौलतराम का
पत्रकारिता और पठन-पाठन से भी गहरासंबंध रहा।
प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी जयरामदास दौलतराम का जन्म 21 जुलाई 1891 को कराची में हुआ था जो
अब पाकिस्तान में है। एक सिंधी परिवार में जन्मे जयरामदास दौलतराम का अकादमिक करियर भी
शानदार रहा। उन्होंने कानून की डिग्री प्राप्त करने के बाद प्रैक्टिस शुरू की लेकिन जल्द ही इसे छोड़
दिया। वह एक बेहतरीन वक्ता भी माने जाते थे। विद्यार्थी जीवन में ही उनका संपर्क प्रसिद्ध नेताओं
और गोपाल कृष्ण गोखले, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, फिरोजशाह मेहता जैसे स्वतंत्रता सेनानियों
से हो चुका था। 1915 में वह महात्मा गांधी के व्यक्तिगत संपर्क में आए और उनके अनुयायी बन
गए। दौलतराम महात्मा गांधी के दर्शन से बहुत अधिक प्रभावित थे और अहिंसा एवं सत्याग्रह को
हथियार बना स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते थे। जयरामदास ने 1916 में एनी बेसेंट के होम रूल
आंदोलन में भी भाग लिया। वो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए और 1920 में असहयोग
आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। 1928 में वह विदेशी वस्त्र बहिष्कार समिति के सचिव बने।
जयरामदास नमक मार्च और भारत छोड़ो आंदोलन के एक प्रमुख कार्यकर्ता और मुख्य संगठनकर्ता
थे। आंदोलन के दौरान भीड़ पर पुलिस की गोलीबारी में उनके पेट में भी गोली लग गई थी। महात्मा
गांधी की गिरफ्तारी के बाद उन्हें भी गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। सन 1942 में वह फिर
गिरफ्तार हुए और तीन वर्ष के लिए नजरबंद रहे। जयरामदास दौलतराम का पत्रकारिता और पठन-
पाठन से भी गहरा संबंध रहा। अपने जीवन काल में वह कई अखबारों से जुड़े रहे। वह इन अखबारों
और पत्र-पत्रिकाओं में देशभक्तिपूर्ण लेख प्रकाशित करते थे। 1947 में विभाजन के दौरान जयरामदास
ने भारत में रहने का फैसला किया और उन्हें बिहार का राज्यपाल नियुक्त किया गया।
बिहार के राज्यपाल पद से सेवानिवृत्त होने के बाद उन्होंने भारत के दूसरे कृषि मंत्री के रूप में पदभार
संभाला। उन्होंने भारत की संविधान सभा में पंजाब के एक निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया।
1950 से 1956 तक जयरामदास ने असम के राज्यपाल के रूप में भी काम किया। असम के
तत्कालीन राज्यपाल रहते हुए जयरामदास दौलतराम ने 15 नवंबर 1953 को मेघालय की राजधानी
शिलांग से 45 किलोमीटर की दूरी पर मैरांग शहर में स्थित यू तिरोत सिंह स्मारक की आधारशिला
रखी थी।
सात शहीदों के सम्मान में बिहार विधानसभा परिसर के सामने चौराहे पर एक स्मारक का निर्माण
किया गया है जिसकी आधारशिला 15 अगस्त, 1947 को बिहार के पहले और तत्कालीन राज्यपाल
जयरामदास दौलतराम ने ही रखी थी। 1 मार्च 1979 को जयरामदास दौलतराम का निधन हो गया।
उनकी स्मृति में भारत सरकार ने 1985 में डाक टिकट भी जारी किया था।
सहोदरन अय्यपन : जिन्होंने भाईचारे को बढ़ावा देने के लिए किया ‘मिश्र भोजनम’ का आयोजन
जन्म : 21 अगस्त 1889, मृत्यु : 6 मार्च 1968
केरल के समाज सुधारक और चिंतक सहोदरन अय्यपन का जन्म 21 अगस्त 1889 को केरल के
एर्नाकुलम स्थित चेरई में हुआ था। अय्यपन के बाल्यकाल में ही उनके पिता का निधन हो गया। ऐसे
में उनके परिवार के अन्य सदस्य और बड़े भाई ने उनका पालन-पोषण किया। वह नारायण गुरु के
विचार से प्रभावित थे इसलिए अय्यपन उनके शिष्य बन गए। निष्ठावान और राष्ट्रवादी अय्यपन ने
1928 में युक्तिवाद नामक एक पत्रिका निकाली ताकि स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे की भावना का
प्रचार-प्रसार किया जा सके। उनके संपादकीय, लेख और कविताएं अपने-अपने क्षेत्रों की असाधारण
रचनाओं में शामिल है। उनके लेख और संदेश की विषयवस्तु आज भी प्रासंगिक है।
अय्यपन ने केरल में ‘मिश्र भोजनम’ का आयोजन किया। ‘मिश्र भोजनम’ को केरल के पुनर्जागरण
आंदोलन में मील का पत्थर माना जाता है। इसमें सभी जातियों के लोगों ने एक साथ भोजन किया।
समाज में भाईचारे को प्रोत्साहन देने के लिए अय्यपन ने ‘सहोदरन’ पत्रिका शुरू की। इसका प्रभाव ही
था कि उनके नाम के साथ सहोदरन शब्द जुड़ गया। ‘सहोदरन’ का मतलब होता है भाई यानि वह
सबके भाई थे। इतना ही नहीं वह एक कवि, निबंधकार, पत्रकार, सामाजिक चिंतक, वक्ता, सामुदायिक
नेता के
साथ-साथ प्रतिबद्ध राजनेता भी थे जिन्होंने जाति प्रथा व अन्य सामाजिक बुराईयों के खिलाफ
अंतिम सांस तक लड़ाई लड़ी। उन्होंने कोचीन विधान परिषद का चुनाव लड़ा था और कई साल तक
इस सीट का प्रतिनिधित्व करते रहे। केरल के एक समाज सुधारक और राजनेता अय्यपन ने केरल में
कई विकासात्मक परियोजनाओं को भी आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 6 मार्च 1968 को
अय्यपन का निधन हो गया लेकिन केरल के सांस्कृतिक एवं सामाजिक पुनर्जागरण के इतिहास में
उनका योगदान सदैव याद किया जाता रहेगा। वह राजनीति में भी लंबे समय तक सक्रिय रहे। 1985
में चेराई में सहोदरन अय्यप्पन की याद में एक स्मारक बनाया गया। सहोदरन स्मारक में उस घर
को भी शामिल किया गया है जहां उनका जन्म हुआ था। 14 फरवरी 1996 को भारत के तत्कालीन
राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने कोच्चि में अय्यप्पन की एक मूर्ति का अनावरण किया था।………..
ऐतिहासिक चटगांव विद्रोह के नायक थे अंबिका चक्रवर्ती
जन्म : 1892, मृत्यु : 6 मार्च 1962
क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी अंबिका चक्रवर्ती का जन्म अविभाजित बंगाल के चटगांव जिला स्थित
बरमा गांव में वर्ष 1892 में हुआ था। उनके पिता का नाम नंदकुमार चक्रवर्ती था। बाद में उनका
परिवार चटगांव आकर रहने लगा जो अब बांग्लादेश का हिस्सा है। चटगांव शस्त्रागार केस के प्रसिद्ध
क्रांतिकारी, वीर और साहसी देशभक्त अंबिका चक्रवर्ती पर उस समय के क्रांतिकारियों और स्वामी
विवेकानंद का बहुत अधिक प्रभाव था जिससे प्रभावित होकर वह युवावस्था में ही स्वाधीनता की
लड़ाई में कूद पड़े। वह विद्रोही स्वभाव के थे और क्रांतिकारी विचारों से खासे प्रभावित थे। यही कारण
है कि क्रांतिकारी गतिविधियों में उनकी विशेष सक्रियता रही। अज्ञात कारणों से उन्हें पहली बार 1916
में गिरफ्तार किया गया और 1918 में वह रिहा हुए। बाद में वह इंडियन रिपब्लिकन आर्मी के सदस्य
बन गए जिसका नेतृत्व मास्टर दा सूर्य सेन ने किया था। बाद में वह चटगांव के युगांतर पार्टी के भी
सदस्य बने। माना जाता है कि उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण ही उन्हें वर्ष 1924 में
गिरफ्तार कर लिया गया और 1928 तक वह जेल में रहे। 1928 में जेल से छूटे तो उनके इरादे और
अधिक फौलादी हो चुके थे। इसके बाद उन्होंने अपने कुछ साथियों के साथ चटगांव को अंग्रेजों से
स्वतंत्र कराने की योजना बनाई। उन्होंने 18 अप्रैल 1930 को स्वतंत्रता सेनानी के एक समूह का
नेतृत्व किया और संचार प्रणाली पर हमला किया। इस हमले ने चटगांव क्षेत्र में पूरी संचार प्रणाली
को क्षतिग्रस्त कर दिया। 22 अप्रैल 1930 को जलालाबाद में अंग्रेजी अधिकारियों के साथ मुठभेड़ में
वह गंभीर रूप से घायल हो गए। हालांकि, वह वहां से भागने में सफल रहे। कुछ महीने बाद ब्रिटिश
पुलिस ने उन्हें हिरासत में ले लिया। उन पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें मौत की सजा सुनाई
गई। बाद में मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया। उन्हें पोर्ट ब्लेयर के सेल्युलर
जेल ले जाया गया। जेल से बाहर आने के बाद उनके विचारों में बदलाव आया और आजादी के बाद
उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया। वह 1952 में पश्चिम बंगाल विधान सभा के सदस्य भी चुने गए।
भारत की स्वतंत्रता के बाद वह 1962 में अपनी मृत्यु तक लोगों की अथक सेवा करते रहे। जीवन भर
देश की आजादी और क्रांति की अलख जगाने वाले अंबिका चक्रवर्ती का 6 मार्च 1962 को सड़क
दुर्घटना में निधन हो गया।
डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुंजे : जिन्होंने युवा शक्ति को मजबूत बनाने का रखा लक्ष्य
जन्म : 12 दिसंबर 1872, मृत्यु : 3 मार्च 1948
भारत के प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुंजे का जन्म 12 दिसंबर 1872 को
बिलासपुर (वर्तमान में छत्तीसगढ़) में हुआ था। डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुंजे ने एक ऐसा जीवन जिया
जिसमें उन्होंने युवा शक्ति को मजबूत बनाने का लक्ष्य रखा जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अहम
योगदान दे सकें। उन्होंने 1898 में ग्रांट मेडिकल कॉलेज बॉम्बे से अपनी मेडिकल डिग्री पूरी की और
बॉम्बे नगर निगम में एक चिकित्सा अधिकारी के रूप में कार्य करना शुरू किया। हालांकि, बाद में
उन्होंने अपना पूरा जीवन भारत के स्वतंत्रता संग्राम को समर्पित करने का फैसला किया और नौकरी
छोड़ दी। इसके बाद उन्होंने अपना पूरा जीवन देश की आजादी के लिए न्यौछावर कर दिया। असल
में मुंजे पेशे से डॉक्टर तो थे लेकिन उन्हें शस्त्रों का भी जबरदस्त ज्ञान था। देश के ऐसे कई क्षेत्र हैं
जहां डॉ. मुंज ने अहम योगदान दिया। ऐसा ही एक क्षेत्र सेना का था जिसने उन्हें बहुत आकर्षित
किया। नागपुर मे एक सैन्य स्कूल स्थापित करने का उनका सपना था जहां मां भारती के सपूतों को
युद्ध के मैदान में महत्वपूर्ण भूमिका के लिए सैन्य प्रशिक्षण दिया जा सके। अपने सपने को पूरा
करने के लिए उन्होंने 1934 में सेंट्रल हिंदू मिलिट्री एजुकेशन सोसाइटी की स्थापना की जिसका
उद्देश्य मातृभूमि की रक्षा के लिए युवाओं को सैन्य प्रशिक्षण देना था। अपनी सोच को विस्तार देने
और भारत के मजबूत सैन्य बल के लिए उन्होंने 12 जून 1937 को नासिक में भोंसला मिलिटरी
स्कूल की स्थापना की। वह चाहते थे कि इस संस्थान से निकले छात्र विजय की महत्वाकांक्षा,
वाकपटुता और कूटनीति की शक्ति से संपन्न हो।
18 अगस्त 1930 को उन्होंने एक भाषण दिया था जिसमें उन्होंने विश्व में चल रहे गतिविधियों का
हवाला दिया। स्पेन और सुदूर पूर्व में चल रहे युद्ध का उल्लेख किया और दुनिया पर मंडरा रहे युद्ध
के बादल पर अपने विचार रखे। अपने एक भाषण में उन्होंने कहा था कि हर लड़के को शारीरिक और
सैन्य प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। उन्हें यह प्रशिक्षण सांप्रदायिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि राष्ट्रीय
दृष्टिकोण से दिया जाना चाहिए। एक और विषय था जिसमें उनकी गहरी रुचि थी। वह समाज में
जाति को लेकर होने वाले असमानता को खत्म करना चाहते थे। इस दिशा में उन्होंने काफी काम
किया और चुनावों में गैर-ब्राह्मणों को भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया। वह हिंदू महासभा के
सदस्य भी थे। 1927 से 1928 तक ‘अखिल भारत हिन्दू महासभा’ के अध्यक्ष भी रहे। माना जाता है
कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को बनवाने में भी उनका अहम योगदान था। वह संघ के संस्थापक केशव
बलिराम हेडगेवार के राजनितिक गुरु थे। 3 मार्च 1948 को उनका निधन हो गया। n
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विश्व वन्यजीव दिवस – 3 मार्च
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