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विरोध के बावजूद उत्तर प्रदेश में बौद्ध कथा का आयोजन क्यों?

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अंजनी कुमार

हिंदी समाचार पत्र ‘दैनिक भास्कर’ ने बीते 19 दिसंबर, 2023 और फिर अगले दिन कानपुर मुख्यालय से लगभग 50 किमी दूर घाटमपुर के पहेवा गांव में बौद्ध कथा के आयोजन पर दलित समुदाय पर हुए हमले की एक विस्तृत रिपोर्ट अपने वेबसाइट पर प्रकाशित किया। इस रिपोर्ट के मुताबिक यह बौद्ध कथा पिछले साल, 2022 में भी कराई गई थी और उस समय भी वहां सवर्ण और दलित जातियों के बीच तनातनी और कुछ तोड़फोड़, धमकी दिए जाने की घटना घटित हुई थी। 

इस बार दलित समुदाय द्वारा कराये जा रहे चार दिवसीय कार्यक्रम पर फिर से हमला किया गया। पंडाल में रखी कुर्सियां तोड़ दी गईं, लोगों को मारा-पीटा गया। पंडाल उजाड़ दिया गया। ‘दैनिक भास्कर’ द्वारा प्रकाशित उपरोक्त खबर के अनुसार हवाई फायरिंग की गई और धमकी दी गई कि इस तरह के कार्यक्रम हुए तो लाशें गिरेंगी। इसी रिपोर्ट में संत रविदास की क्षतिग्रस्त प्रतिमा की तस्वीर भी प्रकाशित है। यह कार्यक्रम बकायदा पुलिस को सूचित करके और उसकी अनुमति से किया जा रहा था। अब तनाव भरे माहौल में वहां प्रादेशिक आर्म्ड कांस्टेबुलरी (पीएसी) और पुलिस बल तैनात कर दिया गया है तथा कुछ लोगों की गिरफ्तारी भी की गई है। 

प्रकाशित खबर के अनुसार सवर्ण समुदाय का कहना है कि कार्यक्रम के बहाने सवर्णों को गाली नहीं दिया जाना चाहिए। उनके अनुसार उनके लिए सभी संत सम्मानित हैं। उनका आरोप है कि पिछले साल के कार्यक्रम में एक ब्राह्मण का पुतला बनाकर उसे जूते की माला पहनाई गई और उसके चेहरे पर कालिख पोता गया था। सवर्ण समुदाय का एक पक्ष यह भी है कि उन्होंने एसडीएम रामनुज को गत 16 दिसंबर को ही शिकायत दर्ज करा दी थी और अंदेशा जताया था कि यदि इस साल भी यह कार्यक्रम होगा तब बवाल हो सकता है। लेकिन पुलिस ने कार्यक्रम आयोजित करने की अनुमति दी। 

प्रकाशित खबर बताती है कि इस मामले में स्थानीय घाटमपुर के विधायक सरोज पुरी के सहयोगी मनीष तिवारी, चंद्रभान मिश्रा, गोलू मिश्रा, शिवम मिश्रा, जीतू मिश्रा, अरुण कोटेदार, किन्नर मिश्रा, विश्वम्भर मिश्रा के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज किया गया। 

रही बात सवर्ण समुदाय के आरोपों की तो स्थानीय पुलिस ने स्पष्ट किया है कि ये आरोप गलत हैं और कथा के दौरान कोई भी समाज विरोधी गतिविधि नहीं की गई।

‘दैनिक भास्कर’ के रिपोर्टर दिलीप सिंह के अनुसार जब वह घटनास्थल पर पहुंचे तब वहां तनावपूर्ण शांति थी। हर घर के बाहर एक सन्नाटा पसरा हुआ था। गांव के बाईं ओर वह मैदान था जहां बौद्ध कथा हो रही थी। वहां दलित बस्ती में मौजूद हर चेहरे पर दहशत साफ झलक रही थी। लोग खुलकर बोल नहीं पा रहे थे। 

उपरोक्त रिपोर्टर ने एक दलित का बयान दर्ज किया– “गांव में दलितों का उत्पीड़न किया जा रहा है। साल 2022 में बौद्ध कथा हुई तो सवर्णों ने दलितों का मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न शुरू कर दिया। धमकी देते हुए कहा था– अगर दोबारा बौद्ध कथा हुई तो लाशें बिछेंगीं। कोटेदर ने राशन कार्ड से नाम काट दिया और कहा कि जाओ अब आंबेडकर राशन देंगे।”

रिपोर्टर के अनुसार बौद्ध कथा के आयोजन समिति के अध्यक्ष राम अवतार और उनकी टीम ने इन दबावों को स्वीकार नहीं किया और इस साल भी पुलिस की अनुमति लेकर कार्यक्रम आयोजित किया। इसी गांव के रामसागर पासवान के अनुसार गांव में सवर्ण लोग आए दिन शराब पीकर झगड़ा करते हैं, जेबों से पैसा तक निकाल लेते हैं। इसी गांव के रणवीर के अनुसार, “मैं अनुसूचित जाति का हूं, मेरा समाज बिल्कुल भी नहीं उठ पा रहा है। वह कहीं पर अपनी बात नहीं कह सकता है। सवर्ण बड़े लोग हैं, उनकी ही हर जगह सुनवाई होती है। किसी के खेत खलिहान में बच्चे चले जाएं तो वे गाली-गलौज करते हैं।” वे तो पुलिस की अनुमति के बिना ही आए दिन अखंड रामायण और पूजा-पाठ करते है। लेकिन हमलोगों को आयोजन के लिए अनुमति लेनी पड़ती है। वह आगे बताते हैं कि राशन कार्ड से मेरा नाम काट दिया है। कोटेदार ने कहा कि जाओ भीमराव आंबेडकर से जाकर राशन लो। इसके बाद भगा दिया। 

दैनिक भास्कर की उपरोक्त रिपोर्ट के अनुसार चंद्रबाबू बताते हैं कि गांव के प्रजापति समाज के लिए ट्यूबवेल पास हुआ था, लेकिन रातों-रात उसे विधायक की मदद से दूसरी जगह लगवा दिया गया। पानी नहीं मिलने से खेत सूख जाते हैं। 

कानपुर के पहेवा गांव में सवर्णों द्वारा किए गए हमले के बाद बौद्ध कथा आयोजन स्थल का दृश्य

आयोजन समिति के अध्यक्ष राम अवतार कहते हैं कि सवर्ण समाज को यह हजम नहीं हो पा रहा है कि दलित जागरूक हो रहे हैं। हम अपने महापुरूषों के जरिए पीढ़ियों को जगाने का प्रयास कर रहे हैं। दिसंबर महीने में उनके द्वारा बौद्ध कथा और आंबेडकर प्रवचन का आयोजन डॉ. आंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस के मौके पर कराया जा रहा है। यह उस धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा को आगे बढ़ाने की कोशिश है, जिसे डॉ. आंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाकर शुरू किया। 

दरअसल, डॉ. आंबेडकर का जीवन और उनकी रचनाएं हिंदू धर्म की वर्णवादी वर्चस्व की धारा को न सिर्फ राजनीतिक तौर पर, बल्कि सांस्कृतिक तौर पर भी चुनौती देते हैं। डॉ. आंबेडकर ने अपने सांस्कृतिक प्रतिरोध की चेतना को धर्म के साथ जोड़ते हुए उसे बौद्ध धर्म तक ले गए और उसे एक नया रूप भी देने की कोशिश की। यह दलित समाज को सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक सहित जीवन के हर पहलु को नए सिरे से परिभाषित करने और नये आंदोलन को निर्मित करने की प्रेरणा देता है।

उत्तर प्रदेश में डॉ. आंबेडकर की सक्रियता प्रत्यक्ष तौर पर बेशक महाराष्ट्र जैसी नहीं रही, लेकिन उनका असर आगरा और कानपुर शहर सहित पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जरूर रहा है। कहा जा सकता है कि इन शहरों में चमड़े के कारोबार ने दलित समुदाय को आगे बढ़ने का मौका दिया। कांशीराम ने बसपा का गठन करने के पहले शहरों में रहने वाले दलित व्यवसायियों और कर्मचारियों को संगठित करना शुरू किया तथा कार्यकर्ताओं को साथ लेकर साइकिल यात्रा निकाली। ऐसा करते हुए वह दलित चेतना को डॉ. आंबेडकर से जोड़ रहे थे और उन्हें राजनीतिक तौर पर एक नए तरह से गोलबंद कर रहे थे। 

यही कारण था कि 1990 के दशक में उत्तर प्रदेश के सुदूर गांवों में भी डॉ. आंबेडकर की मूर्तियां स्थापित हुईं और जब कभी इन मूर्तियों पर हमला हुआ, दलित समुदाय संगठित होकर प्रतिरोध के लिए खड़ा हुआ। इन्हीं आंदोलनों में एक सामानांतर धार्मिक चेतना भी प्रवाहित हो रही थी। और, वह थी डॉ. आंबेडकर के द्वारा प्रतिपादित नवयान आधारित चेतना। चूंकि बसपा सत्ता हासिल करने के लिए ‘हाथी नहीं गणेश हैं, ब्रह्मा-विष्णु-महेश हैं’ का नारा लगाने लगी, इसीलिए यह बौद्ध धर्म की नई धारा राजनीतिक संरक्षण से बाहर हो गई। लेकिन, जो आंबेडकरवादी चेतना दलित समुदाय का हिस्सा हो गई, उसने प्रतिरोध की चेतना को नहीं छोड़ा। गांवों में बौद्ध रीति से विवाह की परंपरा मजबूत हुई है, जिसमें डॉ. आंबेडकर के समतामूलक विचारों का अनुसरण करने की शपथ ली जाती है और दहेज प्रथा और आडंबरपूर्ण व्यवहार का विरोध किया जाता है। 

कानपुर के पहेवा गांव की घटना दलित समुदाय की उस दूसरी परंपरा की खोज है, जिसकी तलाश उसे डॉ. आंबेडकर तक ले आई। यह परंपरा उनके तथाकथित अनुयायियों और उनके नाम पर बनी पार्टियों ने भले ही कमजोर कर दिया हो या छोड़ दिया हो, लेकिन दलित समुदाय ने इसे अभी भी अंगीकृत कर रखा है। 

वे जातक कथाओं की परंपराओं में बौद्ध कथा और आंबेडकर प्रवचन कराकर प्रतिरोध की दूसरी परंपरा को आगे ले जाने में लगे हुए हैं। दमन के बावजूद अपने सांस्कृतिक अधिकार के लिए लड़ना निश्चित ही किसी भी समाज को राजनीतिक तौर पर गोलबंद करता है और उसमें आर्थिक अधिकार की चेतना को नया आकार देता है।

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