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*फिलिस्तीन-इजराइल-सघर्ष : शांति के प्रयास तक में पीछे क्यों रह गए विश्वगुरू!*

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    प्रस्तुति : पुष्पा गुप्ता

कैरो में आहूत शांति शिखर बैठक में भारत की उपस्थिति नहीं है। इस महत्वपूर्ण बैठक में मिस्र के राष्ट्रपति अब्देल फतह अल-सीसी, फिलिस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास, जार्डन, जापान, बहरीन, कतर, कुवैत, इटली, साइप्रस, दक्षिण अफ्रीक़ा, जर्मनी, स्पेन के शिखर नेता, मंत्री व कूटनीतिक उपस्थित हैं। भारत के शांति प्रयासों में लीड नहीं लेने से उसके विश्वगुरू वाले ढोल की पोल स्वतः खुल जाती है।

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन कन्फ्यूज़्ड हैं। हमास के हमले के समय बयान देते रहे कि हम नेतन्याहू के साथ हैं। अब बोले कि जिस तरह का हमला गज़ा में हुआ, उसकी पुनरावृति नहीं होनी चाहिए। लेकिन नेतन्याहू अपने अमेरिकी आका की भी नहीं सुन रहे। भारत की तरह अमेरिका में भी 2024 में आम चुनाव है। मगर, भारत में फाइनल से पहले कई सेमीफाइनल हैं। पीएम मोदी इस समय पांच राज्यों में आहूत सेमीफाइनल की व्यूह रचना में ख़ुद इतना उलझ गये कि सांस लेने तक की फुर्सत नहीं है। संभवतः यही विवशता है कि पीएम मोदी मध्यपूर्व में शांति के लिए लीड नहीं ले रहे हैं। 

      लेकिन जो बाइडेन की घरेलू राजनीति में इस समय इज़राइल में अटका पड़ा है। अपने घर की समस्याओं को एड्रेस करने में विफल जो बाइडेन एक युद्धकालीन नेता की तरह अचानक से सक्रिय हुए हैं। बावज़ूद इसके, प्रतिद्वंद्वी रिपब्लिकंस ने 80 साल के जो बाइडेन को एक कमज़ोर, शिथिल और ढीले-ढाले नेता के रूप में उनकी छवि गढ़ने में सफलता प्राप्त की है। 

ठीक से देखा जाए तो हर आम चुनाव से कुछ महीने पहले किसी दूसरे इलाके़ में युद्ध की स्थिति बनती है, और अमेरिका का सत्ता और विपक्ष अपने हिसाब से नैरेटिव गढ़ता है। दो दशक पहले के डेवलपमेंट को देखिये। 2003 से 2011 तक के इराक युद्ध पर ग़ौर करें, उन नौ वर्षों में अमेरिकी नेता अपने देश के मतदाताओं और टैक्स पेयर्स की आंखों में घूल झोंकते रहे। 2016 में अमेरिकी आम चुनाव वाले समय सीरिया डिस्टर्ब कर दिया गया। सीरिया 2020 तक गृहयुद्ध में उलझा रहा, इस बीच अफग़ानिस्तान भी एक बड़ा मोर्चा था। अमेरिकी नेता अपनी घरेलू राजनीति को युद्ध के बहाने मज़बूत करते रहे, वो भी दुनिया के मुख़्तलिफ़ इलाक़ों में।

     बाइडेन मध्य-पूर्व के शांति अभियान में एक लुंज-पुंज, निरर्थक नेता साबित हो रहे हैं। दुनिया युद्धविराम चाह रही थी, उसके उलट जो बाइडेन गज़ा के खिलाफ इजरायली सैन्य अभियान को समर्थन देने के लिए इजरायल पहुंच गये। लेकिन जिस पैमाने पर गज़ा में नरसंहार हुआ, उसे देखते हुए जो बाइडेन भी चैतरफा दबाव में आ गये लगता है। गुरूवार को उन्हें कहना पड़ा कि ऐसी ग़लती न दोहराई जाए। अफसोस बाइडेन का यह बयान नक्कारखाने में तूती की आवाज़ साबित हुई। लेकिन बाइडेन के बयान का मतलब यही होता है कि मानवता के विरूद्ध इज़राइल ने अपराध किया है।

अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय में बेंजामिन नेतन्याहू पुतिन के बाद इस कालखंड के दूसरे नेता शायद हो जाएं, जिन्हें युद्ध अपराधी बना दिया जाए।

    इस समय कुछ अहम सवाल हैं। पहला कि गज़ा में फंसे बंधकों को बाहर कैसे निकाला जाए। दूसरा, जो स्थानीय नागरिक हैं, उन्हें आबोदाना और सुरक्षित आशियाना कैसे मुहैया कराया जाए? तीसरा, जो कुछ फिलस्तीन-इज़राइल के बीच हुआ, उसका डैमेज कंट्रोल कैसे हो? और चैथा, अब्राहम अकार्ड का क्या होगा? पहले दो सवालों का जवाब तुर्की, मिस्र और संयुक्त अरब अमीरात के प्रयासों से स्पष्ट हो जाता है। तुर्की के विदेश मंत्री हकान फिदान ने बुधवार को बयान दिया कि हमास से हमारी बातचीत हुई, मगर कोई ठोस नतीज़ा निकला नहीं। इन दो सवालों को अड्रेस करने के बाद ही तीसरे चैथे का रास्ता साफ होता है।

    लेकिन हमें इज़राइल फिलस्तीन विवाद की टाइम लाइन को संक्षेप में समझ लेना चाहिए। वर्ष 1917 में प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन ने ऑटोमन साम्राज्य से फिलिस्तीन के बड़े भूभाग को अपने कब्जे में लिया और 2 नवंबर, 1917 की बॅल्फोर घोषणा के तहत यहूदियों को बसने के लिए जगह देने का अहद किया गया। नवंबर 1947 में संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव-181 के तहत फिलिस्तीन के इस भूभाग को यहूदी और अरब राज्य में विभाजित कर दिया गया, तथा जेरूसलम को अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण में रखा गया। इस तरह के विभाजन से पूर्वी जेरूसलम सहित वेस्ट बैंक का हिस्सा जॉर्डन के पास और गज़ा पट्टी का क्षेत्र मिस्र की हदों में चला गया। फलस्वरूप साढ़े सात लाख फिलिस्तीनी शरणार्थियों ने वेस्ट बैंक, गज़ा पट्टी और दूसरे अरब देशों में जाकर शरण ली।

14 मई, 1948 को इजराइल की स्थापना हुई, जो अरबों के लिए अस्वीकार्य था। 8 महीनों तक इजराइल और अरब देशों में युद्ध चला। मध्य-पूर्व के इतिहास में 1967 का छह दिवसीय युद्ध दर्ज़ है, जिसमें इजराइल ने जॉर्डन, सीरिया और मिस्र को पराजित कर पूर्वी यरुशलम, वेस्ट बैंक, गज़ा पट्टी और गोलन पहाड़ी पर कब्जा कर लिया था।

      उसी साल अरब देशों ने खार्तूम बैठक में तीन का प्रस्ताव पेश किये, जिसके अंतर्गत ‘इजराइल के साथ कोई शांति नहीं, इजराइल के साथ कोई वार्ता नहीं, और इजराइल को किसी प्रकार की मान्यता नहीं’ का संकल्प किया गया। हमास लीडरशिप की यही लाइन है।

     15 साल बाद खार्तूम प्रस्ताव को नकारते हुए 1979 में कैंप डेविड समझौते के आधार पर मिस्र ने शांति समझौते पर हस्ताक्षर कर इज़राइल को मान्यता दी। उसके प्रकारांतर जॉर्डन ने वर्ष 1994 में इजराइल के साथ सुलह कर लिया। इस बीच इजराइल और फिलिस्तीन ने 1993 और 1995 में ओस्लो समझौते पर हस्ताक्षर किए। लेकिन 2000 के दशक की शुरुआत में जब इजरायल में विद्रोह (इंतेफादा) की श्रृंखला शुरू हुई, तो समझौते टूट गए।

      13 अगस्त 2020 को इजराइल-यूएई के बीच शांति समझौते की घोषणा हुई, और उसके प्रकारांतर 11 सितंबर को बहरीन-इजराइल समझौते पर हस्ताक्षर हुए। इन समझौतों में अमेरिका और सऊदी अरब की अहम भूमिका को हम नकार नहीं सकते। मिडिल-इस्ट के ये वो देश हैं, जो अमेरिका के रहमों करम पर चलते रहे हैं। 

इसे घ्यान में रखना चाहिए कि वर्ष 2011 में बहरीन में उठे जन-विद्रोह को नियंत्रित करने के लिये सऊदी अरब ने कुवैत और यूएई के साथ अपनी सेना भेजी थी। 2018 में सऊदी अरब ने बहरीन को 10 बिलियन डॉलर की आर्थिक सहायता भी उपलब्ध कराई थी। 15 सितंबर 2020 को अब्राहम अकाॅर्ड पर हस्ताक्षर हुआ था, जिसमें हस्ताक्षर करने वालों में इज़राइल, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन थे। यहूदी धर्म और इस्लाम के बीच विश्वास मज़बूत करने के लिए इस समझौते को अब्राहम के नाम पर रखा गया है, क्योंकि दोनों ही एकेश्वरवाद के समर्थक हैं। 

     इस तरह के समझौते का ही नतीज़ा है कि दो दिन पहले यूएई के अधिकारियों ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि अमीरात और इजरायलियों के बीच आर्थिक संबंध जारी रहेंगे। अमीरात के विदेश व्यापार राज्य मंत्री थानी बिन अहमद अल जायौदी ने कहा कि कूटनीति और कारोबार का हम मिश्रण नहीं करते। बहरीन और मिस्र भी लगभग इसी लाइन पर दीख रहे हैं। लेकिन इसके साइड इफेक्ट से मुसलमान देश बच नहीं पाये। 

     भारत मध्य-पूर्व विवाद को पटरी पर लाने में पीछे क्यों है? भारत ने 1950 में इज़राइल को मान्यता दी थी, और 1992 में दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संबंध स्थापित हुए थे। 2017 में प्रधानमंत्री मोदी इज़राइल गये थे, तब उनका ग्रैंड स्वागत हुआ था। मोदी और बीबी की दोस्ती परवान चढ़ती गई। सुरक्षा में साझेदारी बढ़ती गई। 2022 में अदानी समूह और एक इजराइली भागीदार ने हाइफा पोर्ट के लिए 1.2 बिलियन डॉलर का टेंडर हासिल किये। भारत-इजराइल मुक्त व्यापार समझौते के लिए भी बातचीत चल रही है। बावज़ूद इसके फिलस्तीन व इजराइल से भारत के संबंध जटिल हैं। भारत फिलिस्तीनियों के समर्थन में कभी-कभार अपनी पुरानी लाइन पर वापिस लौट आता है।

भारत के साथ ईरान के भी मैत्रीपूर्ण संबंध हैं, लेकिन इस समय ईरान जिस तरह से इज़राइल को ललकार रहा है, उससे भारत का इत्तेफ़ाक रखना भी सहज नहीं है। 

     मिस्र से भी मोदी से निकटता बढ़ी है, जून 2023 में हमारे प्रधानमंत्री काहिरा गये थे। मगर, हमास से सुलह के लिए अमीरात, सऊदी अरब और मिस्र से क्या संवाद भारत ने किये? इस देश के प्रतिपक्ष तक को नहीं मालूम। मोदी ने पश्चिम एशिया की ओर देखो नीति को धार देनी चाही, उसी का नतीज़ा था कि वो सऊदी अरब और यूएई जैसे दिग्गज देशों के क़रीब अपनी नीति को ले आये। मगर, जो कुछ फिलिस्तीन-इज़राइल में हुआ, उसे शांत करने की पहल में पीएम मोदी पीछे रह गये, इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिए। 

    कूटनीति को क्रमवार देखिये। पहले पीएम मोदी ने नेतन्याहू को फोन किया, भारतीय विदेश मंत्रालय ने इज़राइल के समर्थन में बयान दिया। बाद में फिलस्तीन को समर्थन देने वाले बयान की बारी आई। महमूद अब्बास से भी पीएम मोदी ने बात की। यानी, प्रथम ग्रासे दक्षिणपंथी की नीति पर प्रधान सेवक अग्रसर हैं। मगर, हमारी सबसे बड़ी चिंता गज़ा वाले हिस्से में फंसे भारतीय हैं, जिन्हें निकाल लाने में बुधवार को विदेश मंत्रालय ने विवशता ज़ाहिर कर दी। 

   हमास ने दो अमेरिकी बंधकों को रिहा किया है। उससे शांति की रौशनी मिलने लगी है। कैरो बैठक में अपनी प्रारंभिक टिप्पणी में, मिस्र के राष्ट्रपति अब्देल फतह अल-सिसी ने नेताओं को गाजा पट्टी में मानवीय आपदा को समाप्त करने, इजराइल और फिलिस्तीनियों के बीच शांति का मार्ग पुनर्जीवित करने के लिए एक रोड मैप पर बातचीत के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने कहा कि रोड मैप के लक्ष्यों में गाजा को सहायता पहुंचाना और युद्धविराम पर सहमति शामिल है, जिसके बाद द्विराष्ट्र समाधान के लिए बातचीत होगी।

     जॉर्डन के राजा अब्दुल्ला ने शिखर सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा, कि सभी नागरिकों का जीवन मायने रखता है। गाजा में चल रहा निरंतर बमबारी अभियान हर स्तर पर क्रूर और बेहिस है। यह घिरे हुए और असहाय लोगों को दी जा रही सामूहिक सजा है। यह अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून का घोर उल्लंघन है।

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