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आखिर क्यों करते हैं अपना शरीर मेडिकल को दान?

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शाहनवाज आलम 

अगर मेडिकल साइंस के विकास में राजनेताओं और विचारधाराओं के योगदान का अध्ययन किया जाए तो हम पाएंगे कि सबसे बड़ा योगदान कम्युनिस्ट राजनेताओं का रहा है। वहां एक तरह से अलिखित परंपरा है कि मृत्यु के बाद शरीर को मेडिकल कॉलेज को सौंप दिया जाए ताकि छात्र-छात्राएं शरीर पर प्रयोग कर जीवित लोगों के बेहतर स्वास्थ्य के लिए शोध कर सकें। 

ज्योति बसु, कैप्टन लक्ष्मी सहगल, बुद्धदेब भट्टाचार्य हों या सीताराम येचुरी सभी ने अपना शरीर शोध के लिए मेडिकल कॉलेजों को दान किया। आरएसएस, हिंदू महासभा, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, गौ रक्षा दल का कोई बन्दा ऐसा नहीं करता। शायद इसकी वजह अपने बारे में उनका यह सटीक मूल्यांकन हो कि न तो वो जीते जी समाज के किसी सकारात्मक काम में इस्तेमाल हो सकते हैं ना वो मृत्यु के बाद ही किसी काम के साबित होंगे। मानवता के प्रति घोर कुंठा और नकारात्मकता शायद इसकी वजह हो।

मेडिकल कॉलेज में एडमिशन ले पाना मध्य वर्ग की पहुंच से बहुत पहले ही बाहर हो चुका है। श्रमिक और मजदूर वर्ग तो अपने बेटों-बेटियों को मेडिकल कॉलेज में भेजने की कल्पना भी नहीं कर सकता। बहुत कर्जा-उधार लेकर फार्मा और नर्सिंग तक ही सोच पाता है।

ऊपरी मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा अब संघी और गरीब विरोधी हो चुका है। यानी राजनीतिक भाषा में कहें तो वो कम्युनिस्ट विरोधी होता है। आज कल उसे गोदी मीडिया ने इस विचारधारा के लोगों को अर्बन नक्सल और देशद्रोही कहना सिखा दिया है। इस वर्ग की पिछली पीढ़ी उन्हें रूस और चीन के एजेंट कह कर बदनाम करती थी। यह काम पीढ़ी दर पीढ़ी होता है। जैसे राहुल गांधी की छवि खराब करने वाले किसी युवा संघी के संघी पिता यही काम राजीव गांधी के लिए और उसके संघी पिता नेहरू के लिए कर चुके होते हैं। 

यह कल्पना करना कितना विडंबना भरा है कि श्रमिकों और कमज़ोर तबकों के हितों के लिए आजीवन लड़ने वाले शरीर के निर्जीव पड़ जाने के बाद शत्रु वर्ग के लोग उस पर शोध करते हैं। उस शोध का कितना फ़ायदा गरीब लोगों तक पहुँच पाता है यह किसी भी गरीब परिवार या गरीबों के मुहल्ले में जाकर देखा जा सकता है। 

तो यह जो मेडिकल कॉलेजों में भारी फ़ीस देकर एडमिशन पाने वाला विशेषकर उत्तर भारतीय वर्ग है इसके दोहरे चरित्र का एक रोचक उदाहरण देखिये। देश की एक मशहूर कम्युनिस्ट नेत्री के परिवार ने जब उनका शव एक मेडिकल कॉलेज को दान किया तब एक महिला के परिजनों ने उनकी दान की हुई आँखें ले लीं।

लेकिन कुछ सालों बाद जब वही महिला मरने लगी तब उस कम्युनिस्ट नेता के परिवार ने उन आँखों को उन्हें लौटा देने का आग्रह किया ताकि वो किसी और के काम आ सकें क्योंकि मनुष्य की आँखें दो बार ट्रांसप्लांट हो सकती हैं। तब उस परिवार ने ऐसा करने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि अंग दान करना उनके धर्म के खिलाफ़ है। यानी आंख लेते समय धर्म आड़े नहीं आया, आंख देते समय धर्म आड़े आ गया। खैर, स्वतंत्रता आंदोलन की गवाह रहीं वो आंखें उस महिला के साथ हमेशा के लिए बुझ गयीं। 

उत्तर भारत की दक्षिणपंथी राजनीति ने स्वास्थ्य और इलाज के मामले में हमें कितना नुकसान पहुंचाया है इसका अंदाज़ा शायद ही कभी लग पाए। फिलहाल अपने उत्तर भारतीय राज्य मध्य प्रदेश से एक ताज़ा खबर यह है कि एक अस्पताल ने हिंदू महिला मरीज को मुस्लिम व्यक्ति का खून चढ़ाने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि ऐसा करने पर सरकार उसकी नौकरी छीन लेगी।

जननायक राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा जब कर्नाटक में कहीं थी तब हम भारत यात्रियों के लिए मृत्यु के बाद अपनी आंखें दान करने के लिए एक कैंप लगा था। अधिकतर लोग जिनमें दक्षिण भारतीय ही ज़्यादा थे, ने आँखें दान करने के लिए फॉर्म भरा था। किसानों और मजदूरों के पक्ष में बोलने के लिए राहुल गांधी पर अक्सर आरएसएस के लोग वामपंथी होने का आरोप लगाते रहे हैं। मुझे याद नहीं उस समय नेत्र दान का कैंप लगाने के लिए संघियों ने उन पर यह आरोप लगाया था या नहीं।

यहां एक और घटना का ज़िक्र ज़रूरी होगा। वरिष्ठ पत्रकार तथा आउटलुक और नेशनल हेराल्ड के एडिटर रहे स्वर्गीय नीलाभ मिश्र ने अपनी मृत्यु से आठ-दस दिन पहले हुई मुलाक़ात में कहा था कि किसी को लीवर या किडनी ट्रांसप्लांट कराना हो तो उसे बिना समय बर्बाद किए दक्षिण भारत के अस्पतालों में ट्राई करना चाहिए क्योंकि भारत के उस हिस्से में वैज्ञानिक सोच ज़्यादा है इसलिए लोग अंगदान ज़्यादा करते हैं।

बहरहाल, सभी जनपक्षधर राजनीतिक दलों और नेताओं को सीताराम येचुरी और कम्युनिस्ट नेताओं की इस परंपरा से सीख लेनी चाहिए। आख़िर हम राजनीति अपने लोगों की बेहतरी के लिए ही करने का तो दावा करते हैं। तो फिर यह दावा सिर्फ़ जीवित रहने तक ही क्यों रहे। कॉमरेड सीताराम येचुरी अमर रहें

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