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*सिद्ध इंसान बीमार- दुःखी क्यों दिखता है?*

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   (मेडिटेशन ट्रेनर, डिवाइन आर्गेज्म क्रिएटर, मनस्विद-मोटिवेटर डॉ. विकास मानवश्री से हुए संवाद पर आधारित सहज प्रतिसंवेदन)

       ~ आरती शर्मा 

लोग कहते हैं, आपको तो बीमार नहीं होना चाहिए, दुःखी नज़र नहीं आना चाहिए।

   लेकिन आपको किसने कहा कि ऐसा होता है? मैंने तो कभी किसी बुद्ध पुरुष के बारे में नहीं सुना जो बीमार न रहा हो। बीमारी शरीर की होती है। उसका चेतना से या संबुद्ध होने या न होने से कोई लेना-देना नहीं है।

    कई बार ऐसा होता है कि बुद्ध इंसान बुद्धुओं से अधिक रोगग्रस्त होते हैं। कई कारण हैं. वे शरीर से हट जाते हैं, इसलिए शरीर के साथ सहयोग नहीं रह जाता; गहरे में वे स्वयं को शरीर से पृथक कर लेते हैं। शरीर तो रहता है लेकिन आसक्ति और सेतु टूट जाता है।

   उस दूरी के कारण कई बीमारियां होती हैं। अब वे शरीर में तो हैं लेकिन उसके साथ उनका सहयोग नहीं रहा। इसीलिए हम कहते हैं कि बुद्ध पुरुष कभी दोबारा पैदा नहीं होता, क्योंकि अब वह किसी शरीर के साथ सेतु नहीं बना सकता। सेतु टूट गया है। जब वह शरीर में होता है तब भी, वास्तव में मर ही गया होता है।

     महात्मा बुद्ध जब करीब चालीस वर्ष के थे तो उन्हें बुद्धत्व की घटना घटी। जब वह अस्सी वर्ष के थे तब उनकी मृत्यु हुई, तो वह चालीस वर्ष और जीए। जिस दिन वह शरीर छोड़ रहे थे आनंद रोने लगा और बोला, ‘हमारा क्या होगा? आपके बिना हम अंधकार में गिर जाएंगे। आप जा रहे हैं और हम अभी संबुद्ध भी नहीं हुए। हमारी अपनी ज्योति अभी जली नहीं और आप जा रहे हैं। हमें छोड्‌कर न जाएं!’

    बुद्ध ने कहा, ‘क्या? क्या कह रहे हो आनंद? मैं तो चालीस वर्ष पहले ही मर गया था। यह अस्तित्व तो केवल आभास-अस्तित्व था, छाया मात्र था। किसी तरह चल रहा था, लेकिन उसमें बल नहीं था। यह तो अतीत का ही आवेग था।’

     यदि आप एक साइकिल को पैडल मार रहे हो फिर रुक जाओ और पैडल न मारो, साइकिल को कोई सहयोग नहीं दे रहे फिर भी आवेग के कारण, अतीत में जो ऊर्जा दी है उसके कारण वह कुछ समय तक चलती रहेगी।

   इसी तरह जिस क्षण कोई इंसान बुद्धत्व को उपलब्ध होता है, उसका सहयोग समाप्त हो जाता है। अब शरीर अपने ढंग से चलेगा। उसके पास अपना आवेग है। कई जन्मों से उसे आवेग दिया गया है। उसका अपना जीवन-काल है जो पूरा होगा। लेकिन अब, क्योंकि शरीर के साथ कोई तरिक बल नहीं है तो वह साधारण लोगों से अधिक बीमार हो सकता है।

     रामकृष्ण कैंसर से मरे। रमण कैंसर से मरे। विवेकानंद जलोदर से मरे. अभी दिगंबर संत तरुण सागर पीलिया से मरे. शिष्यों को तो बड़ा धक्का लगा, लेकिन अपने अज्ञान के कारण वे समझ नहीं पाए।

     एक बात और समझने जैसी है। जब कोई व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता है तो यह उसका अंतिम जन्म होता है। सारे अतीत के कर्म और पूरा लेन-देन इसी जन्म में पूरा होना है। पीड़ा-यदि उसे कोई पीड़ा होनी है तो-बहुत सघन हो जाएगी।

आपके लिए कोई जल्दी नहीं है. आपकी पीड़ा तो कई जन्मों पर फैल जाएगी। लेकिन बुद्ध या रमण के लिए तो वह अंतिम जन्म है। जो भी अतीत से आया है उसे पूरा होना है। हर चीज में हर कर्म में एक सघनता होगी। यह जीवन एक प्रगाढ़ जीवन हो जाएगा।

    कई बार ऐसा होता है-इसे समझना थोड़ा कठिन है-एक क्षण में कई जन्मों की पीड़ा झेल लेनी पड़ती है। एक क्षण में सघनता बहुत अधिक हो जाती है, क्योंकि समय को सिकोड़ा अथवा फैलाया जा सकता है।

     आप जानते हो कि कई बार आपको झपकी लग जाती है और कोई सपना देखते हो, और जब  जागते हो तो पता चलता है कि कुछ ही सेकेंड सोए हो। लेकिन इतना लंबा सपना देखा! यह संभव है कि एक छोटे से सपने में पूरा जीवन देखा हो। क्या हुआ? इतने थोड़े से समय में इतना लंबा सपना कैसे देख पाए?

    समय का केवल एक ही तल नहीं है जैसा कि हम साधारणत: समझते हैं समय के कई तल हैं। स्वप्न-समय का अपना अस्तित्व है। जागते समय भी समय बदलता रहता है। घड़ी के हिसाब से चाहे न बदले, क्योंकि घड़ी तो यंत्र है, लेकिन मनोवैज्ञानिक हिसाब से समय बदलता रहता है।

  जब सुखी होते हो समय तेजी से बहता है। जब उदास होते हो, समय धीमा हो जाता है। यदि पीड़ा में हो तो रात लगता है कभी खतम नहीं होगी; और यदि सुखी और आनंदित हो तो पूरी रात एक क्षण में बीत सकती है।

    जब कोई व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता है सब लेन-देन पूरा करना होता है : दुकान बंद करने का समय आ गया। लाखों जन्मों की यात्रा है और सारे हिसाब-किताब साफ करने हैं, क्योंकि और कोई अवसर नहीं मिलेगा। बुद्धत्व के बाद बुद्ध पुरुष एक दूसरे ही समय में जीता है और उसे जो भी होता है वह गुणात्मक रूप से भिन्न होता है। लेकिन वह साक्षी बना रहता है।

     महावीर पेट के दर्द से मरे, अल्सर जैसा कुछ था, कई वर्षों तक वह पीड़ित रहे। उनके शिष्य जरूर कठिनाई में पड़े होंगे क्योंकि उन्होंने इसके आस-पास एक कहानी गढ़ ली। वे समझ ही नहीं पाए कि महावीर क्यों पीड़ा झेलें तो उन्होंने एक कहानी गढ़ ली जिससे शिष्यों के बारे में कुछ पता चलता है, महावीर के बारे में नहीं।

    वे कहते हैं कि एक व्यक्ति जो बड़ी दुष्ट-आत्मा था, गोशालक महावीर की पीड़ा का कारण था। उसने अपनी दुष्ट शक्ति महावीर पर फेंकी, और अपनी करुणा के कारण महावीर उसे पचा गए, और इसी कारण वह पीड़ित हुए। इससे महावीर के बारे में कुछ पता नहीं चलता लेकिन शिष्यों की कठिनाई के बारे में पता चलता है। वे महावीर को पीड़ित देखने की कल्पना भी नहीं कर सकते तो कारण उन्हें कहीं और खोजना पड़ा।

     मुझे पेट से संबंधित समस्या रहती है. जहाँ- तहां का खाना-पीना, सो स्वाभाविक है. एक दिन कोई बोला, ‘आपने जरूर किसी और का कष्ट ले लिया होगा।’ इससे मेरे बारे में कुछ पता नहीं चलता, उसके बारे में पता चलता है। उसके लिए यह समझ पाना कठिन है कि मैं उसे यूँ नेचुरली पीड़ित दिखता हूं। तो उसने कहा, ‘आपने जरूर किसी और का कष्ट ले लिया होगा।’

   मैंने उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन ऐसों को समझाना असंभव है। जितना ही उन्हें विश्वास दिलाने की कोशिश करो, उतना ही उन्हें विश्वास हो जाता है कि वे सही हैं। अंत में उसने मुझसे कहा, ‘आप कुछ भी कहें, मैं नहीं सुनने वाला। मैं तो जानता हूं! आपने किसी और की बीमारी ले ली है।’

   अब क्या किया जाए? शरीर का बीमार होना या स्वस्थ होना, उसके अपने मामले हैं। यदि आप अभी भी उनके बाबत कुछ करना चाहते हो तो अभी भी शरीर से आसक्त हो। वह अपने अनुसार चलेगा; उसके बारे में ज्यादा चिंता लेने की जरूरत नहीं है।

    मैं केवल एक साक्षी हूं। शरीर पैदा हुआ है, शरीर मरेगा, केवल साक्षीत्व ही रह जाएगा। वह सह रहेगा। केवल साक्षीत्व ही पूर्णतया शाश्वत है, बाकी सब बदलता रहता है, बाकी सब एक बहाव है।

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